इस वक्त देश की राजनीति में सबसे ज्यादा चर्चा बुलडोजर की है। बुलडोजर के जरिए जो दो चेहरे सबसे ज्यादा चर्चा में हैं, उनमें से एक हैं ‘बुलडोजर बाबा’ यानी यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ और दूसरे हैं ‘बुलडोजर मामा’ यानी मध्य प्रदेश के सीएम शिवराज चौहान। इस बीच, गुजरात और दिल्ली में भी बुलडोजर की एंट्री हो चुकी है, लेकिन अगर थोड़ा पीछे जाएं और 90 के दशक के सियासी घटनाक्रम के पन्ने पलटें तो पता चलेगा कि ‘बुलडोजर बाबा’ और ‘बुलडोजर मामा’ से पहले एक ‘बुलडोजर मंत्री’ भी रह चुके हैं। उस दौर में ‘बुलडोजर मंत्री’ का जिक्र भी बिल्कुल उसी तरह हर जुबान पर हुआ करता था, जैसा इन दिनों ‘बुलडोजर बाबा’ और ‘बुलडोजर मामा’ का होता है। 90 के दशक में मध्य प्रदेश में बीजेपी की सरकार थी। सुंदरलाल पटवा मुख्यमंत्री थे। उस सरकार में बाबू लाल गौर नगर विकास मंत्री हुआ करते थे। वही बाबू लाल गौर जो कि बाद में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री भी हुए। नगर विकास मंत्री रहने के दौरान बाबू लाल गौर ने राज्य को अतिक्रमण मुक्त कराने का लक्ष्य निर्धारित किया। खास तौर पर शहरों को। अतिक्रमण हटाना इतना आसान नहीं था। उन्होंने इसके लिए बुलडोजरों को हथियार बनाया। बाबू लाल गौर ने अधिकारियों को आदेश दिया था- बुलडोजर चलाओ, अतिक्रमण हटाओ। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में कई इलाकों में अतिक्रमण हटाने के लिए बुलडोजर लेकर खुद बाबू लाल गौर पहुंच जाया करते थे। उस दौर में राज्य के लोगों पर बुलडोजरों का आतंक कुछ इस तरह सिर चढ़कर बोला कि बाबू लाल गौर को वहां ‘बुलडोजर मंत्री’ कहा जाने लगा। तब दिल्ली तक में उन्हें इसी नाम से जाना जाने लगा था। खुद बाबू लाल गौर बताया करते थे कि उस दौर में जब उनकी मुलाकात अटल बिहारी वाजपेयी से दिल्ली में हुई तो अटल जी ने भी उन्हें नाम से संबोधित करने के बजाय कहा, ‘कैसे आना हुआ बुलडोजर महाशय?’
यादव से कैसे बने ‘गौर’
बात बाबू लाल गौर की चली है तो उनसे जुड़ा एक और दिलचस्प किस्सा है। बाबू लाल के नाम के साथ गौर जुड़ने की कहानी बहुत दिलचस्प है। अक्सर मीडिया में बाबू लाल को गौड़ लिख दिया जाता था और फिर बाबू लाल को यह सफाई देनी पड़ती थी कि वह गौड़ नहीं हैं, गौर ही हैं। दरअसल, बाबू लाल यूपी के रहने वाले थे। जाति से यादव, लेकिन पारिवारिक कारणों से उन्हें मध्य प्रदेश शिफ्ट होना पड़ा। उनकी पढ़ाई भी वहीं हुई। नौकरी भी उन्होंने मध्य प्रदेश में की। बाद में राज्य की राजनीति में ऐसा सिक्का जमाया कि दस बार विधायक हुए और मुख्यमंत्री तक बने। नाम के आगे यादव के बजाय गौर लिखने की वजह बताते हुए उन्होंने कहा था, ‘दरअसल कक्षा में मैं शिक्षकों की बात बहुत गौर से सुनता था। संयोग से उनकी क्लास में दो बाबू लाल थे। दोनों ही यादव। ऐसे में नाम को लेकर भ्रम होना स्वाभाविक था। एक दिन शिक्षक ने मेरे नाम के आगे से यादव हटाकर गौर लगा दिया। बस उसी दिन से मैं गौर हो गया।’ यूपी में जब 2012 में अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने तो गौर उनसे मिलने लखनऊ आए। मीडिया ने तब बाबू लाल से पूछा कि क्या उन्हें अपने नाम से यादव हटाकर गौर लगाने का कभी अफसोस होता है? इस पर बाबू लाल गौर ने कहा, ‘जब मेरे भीतर यूपी का सीएम बनने की इच्छा जागृत होती है तो जरूर लगता है कि काश, मेरे नाम के आगे यादव लगा होता।’
बाबू लाल गौर (फाइल फोटो)
जब NIFT में ‘मंत्री कोटा’ का दबाव बना
यह उन दिनों की बात है, जब केंद्र सरकार के वस्त्रोद्योग मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय फैशन प्रौद्योगिकी संस्थान (NIFT) की स्थापना हुई। तब टीएसआर सुब्रमणियन मंत्रालय के सचिव हुआ करते थे। वही टीएसआर सुब्रमणियन जो कि बाद में कैबिनेट सचिव हुए। इस संस्थान ने शुरुआती दिनों में ही ख्याति हासिल कर ली थी और इसमें एडमिशन के लिए सोर्स-सिफारिशें होने लगी थीं। यह किस्सा टीएसआर सुब्रमणियन का ही बताया हुआ है। उनके मुताबिक, उस वक्त वस्त्रोद्योग मंत्री ने एक रोज उन्हें बुलाया और ऐसा रास्ता निकालने को कहा जिससे संस्थान में एडमिशन के लिए ‘मंत्री कोटा’ तय हो जाए। सुब्रमणियन ने कहा कि ऐसा संस्थान के हित में नहीं होगा। जब ऐसे कोटे से छात्र संस्थान में आने लगेंगे तो पढ़ाई का स्तर गिरेगा। मंत्री का तर्क था कि ‘हमारा मंत्रालय ऐसा है कि हमें हर छोटे-बड़े काम के लिए दूसरे मंत्रालयों पर निर्भर रहना पड़ता है। हमारे पास किसी पर उपकार करने का कोई और जरिया नहीं है। अगर कोटा हो जाएगा तो किसी पर हम उपकार तो कर सकेंगे।’ इस तर्क पर भी सुब्रमणियन मंत्री कोटा के लिए नहीं माने। इसके बाद मंत्री ने नाराजगी जताते हुए कहा, ‘ठीक है, आप नहीं समझते तो मैं कोई और रास्ता निकालता हूं।’ उसके बाद उन्होंने अलग से संस्थान के कार्यकारी निदेशक को बुलाया और कोटा वाली बात रखी। कार्यकारी निदेशक सुब्रमणियन से भी दो कदम आगे निकले। उन्होंने कहा कि कोटा तो हो नहीं सकता, लेकिन अगर आप कोटा चाहते ही हैं तो उससे पहले हमारा और सारे प्रफेसर्स के इस्तीफे ले ले लीजिए। इस तरह से मंत्री की कोटा तय कराने की इच्छा पूरी नहीं हो सकी। बाद में टीएसआर सुब्रमणियन ने अपनी एक किताब में लिखा, ‘एक दुर्बल मुख्य कार्यकारी अधिकारी, अध्यक्ष या हस्तक्षेप करने वाला मंत्री वर्षों के कठिन परिश्रम को थोड़े ही समय में नष्ट कर देता है।’