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साहित्य कैसे रचेगा राजनीति द्वारा प्रभावित जीवन को ?

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सुनील यादव

समय निरंतर बदलता है और उसके साथ जीवन और परिवेश भी। जैसे किसान के हल को ले लीजिए। आज से लगभग पंद्रह साल पहले अस्सी प्रतिशत किसानों के पास हल और बैल था जिससे वह स्वयं खेती करता था। किसान को बैलों से बड़ा प्रेम था, यहाँ तक कि किसान बैल को अन्न खिलता और घी पिलाता था। बैल एक प्रकार से उसके परिवार का सदस्य था। उस परिस्थिति में प्रेमचंद की कहानी दो बैलों की कथा ज्यादा प्रासंगिक और अर्थवान थी क्योंकि बैल से आदमी का सीधा जुड़ाव था, किन्तु वर्तमान में निन्यानबे प्रतिशत किसानों की खेती ट्रैक्टर से होती है और बैल नीलगायों की तरह छुट्टा घूम रहे हैं। यहाँ तक कि वे अब किसानों की सबसे बड़ी समस्या बन बैठे हैं। ऐसे में आने वाले दस, बीस साल में हल और बैल की खेती देखने और करने वाले दोनों ही जब विलुप्त हो जायेंगे तब उन दो बैलों का मर्म एवं प्रासंगिकता और भी संदिग्ध हो जाएगी क्योंकि जब बैल और किसान के संबंध का विषय ही विलुप्त हो जायेगा तो उस कथा का अर्थ अनभिज्ञ सा हो जायेगा जैसे कभी अतिशयोक्ति-पूर्ण वीर काव्य थे। हालांकि, पशु-प्रेम, सहयोग भावना जैसे विषयों के लिए वह कहानी सदैव प्रासंगिक और अर्थवान रहेगी। चूँकि जिन उपदानों का प्रयोग कर किसी रचना की सिद्धि की जाती है यदि वह उपादान मौजूद या प्रचलित हो तो कहानी की मारक छमता अधिक होती है। अतः समय के साथ साहित्य भी अपनी अर्थवत्ता खोता है। खास करके यथार्थ चित्रण वाले वस्तु-रूप में।

आजादी की भूमिका में हमारा साहित्य एक सैनिक की तरह लड़ा है। समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं, कविता-कहानियों में देश को बदलने की असीमित छमता रही थ। साहित्यकारों और साहित्य ने अपनी भूमिका स्पष्ट करते हुए अपनी धारणा बदली और जनचेतना फैलाई भी। साहित्य की ईमानदारी पर साहित्य की आलोचना होती थी और साहित्यकार प्रसिद्ध होते थे। क्या आज साहित्यकार उसी ईमानदारी से साहित्य के लिए प्रतिबद्ध है?e.

कुछ दशकों पहले राजनीति को सामान्य जीवन से इतर संस्था माना जाता था परन्तु आज जीवन के हर पहलू में राजनीति का आवश्यक हस्तक्षेप है। ऐसा नहीं है कि पहले हस्तक्षेप नहीं था, परन्तु उसका स्वरूप स्पष्ट नहीं था बल्कि एक तरीके से वह अंधकार में था। राजनीति अपनी जगह थी, जीवन अपनी जगह था। जैसे पहले आम नागरिक को यह लगता था कि बैंक ही ऋण देता है और बैंक ही वसूली, कुर्की आदि करता है, परन्तु वर्तमान में बच्चा-बच्चा यह जानने लगा है कि सरकार की नीतियों के तहत बैंक कर्ज देता है जो पिछले चुनाव में घोषणा की गयी थी और उसी पार्टी की सरकार बनेगी तो वह माफ भी हो जायेगा… आदि। यही नहीं, आज आपका नित्यकर्म भी राजनीति से संबंध रखता है। यदि आप खुले में शौच करते हैं तो, खुले में शौच मुक्त जैसा राजनीतिक स्लोगन दरकिनार होगा और विपक्ष उसे मुद्दा बना लेगा कि फलां पार्टी का स्लोगन केवल प्रचार है, जमीन पर झूठ है। हर घर शौचालय जैसे स्लोगन अपनी राजनीतिक पहचान रखते हैं और आदमी पर राजनीतिक पकड़। आपके मंजन का रेट बढ़ना भी एक राजनीतिक घटना हैं। खाना बनाते हुए माताओं और बहनों की आँख में धुआं लगना भी सिलेंडर बेचने की एक राजनीति है। आपको नींद न आना भी एक राजनीतिक समस्या है। पूजा आप किस पद्धति से करते हैं, किस देवता की करते हैं इसमें भी राजनीतिक हस्तक्षेप है। अतः राजनीति आज व्यक्ति की व्यवस्था और जीवन में एक विशेष सजगता के साथ उपस्थित हो गयी है, जिसे नकारा नहीं ज़ा सकता है।

जरा अब सोचिए, आज गोदान का परिवेश मौजूद होता तो दातादीन के जगह अमुक पार्टी का अमुक नेता होता। जब होरी का भाई हीरा उसकी गाय को जहर दे देता है तो पुलिस घर आती है और बीच का दलाल बनता है दातादीन। अगर यही घटना आज होती तो बीच का दलाल गाँव का कोई बाहुबली या प्रतिष्ठित नेता बनता। हालांकि, वह प्रतिष्ठित नेता भी केवल दातादीन का अपग्रेड स्वरूप ही होता। कफ़न कहानी को इतना बड़ा राजनीतिक रंग दिया जाता कि बुधिया के कफ़न के लिए राजनीतिक पार्टियों की लाइन लग जाती और सरकारें जबरदस्ती उस पर अपना कफ़न डाल उसका क्रिया-कर्म कर देतीं। आज गाँव में कोई घटना घट जाए तो सहयोग के लिए फलां दल के फलां नेताजी एक पाँव पर खड़े होते हैं। किसी की गमी हो जाए सबसे पहले फलां पार्टी के फलां नेताजी पहुँचेंगे। लड़का-लड़की प्यार कर लें तो थाने में समझौता फलां नेता जी करवाएंगे। जचगी हो, दुर्घटना हो, झगड़ा हो, छुट्टी-छुट्टा हो सबमें राजनीतिक रंग है। अब गाँव के विशिष्टजनों की सूची में अध्यापक और चौधरी नदारद हैं। उसमें सबसे बड़ा नाम बाहुबली नेता का है। तत्पश्चात अन्य छुटभैये नेताओं का और उनका फैसला वोट की तरफ पर निर्भर करता है। राजनीति के इस क्षद्म सहयोग ने जनता को इस प्रकार भ्रमित किया है कि वह अपने अधिकार को भी नहीं समझ पा रही जबकि साक्षरता और शिक्षा पहले से ज्यादा है।

आज विचित्र दौर है। सरकारें शब्द तक को प्रभावित करती हैं। आज के विचार राजनीति के बंधक हैं, आज मजबूर किया जाता है कि आप ऐसे नहीं ऐसे सोचिए नहीं तो आपका किसी प्रकार अहित कर दिया जायेगा। RBI ने अपने कर्मचारियों को विशेष हिदायत दिया है कि अर्थव्यवस्था पर कोई भी लेख बिना गवर्नर के अनुमति के प्रकाशित नहीं होगा। यहाँ तक कि विद्वान् और अध्यापक अपने सामाजिक सरोकार के बयान को मंच से या लेख में प्रकाशित नहीं करवाते क्योंकि कई प्रकार के उन्हें प्रताड़ना का शिकार बनाया जाता है। सरकारी नौकरी करने वाले तो सार्वजनिक स्थलों और कार्यक्रमों तक में जाने से डरते हैं। राजनीतिक बिगाड़ के डर से लोग सही बात नहीं करते…

आज गलत बात को सही करने के लिए नये औजारों के तर्क गढ़े जाते हैं। इतिहास की घटनाएं तक बदल दी ज़ाती हैं। कक्षाओं में डाले जाने वाले सिलेबस में राजनीतिक हस्तक्षेप है। सिलेबस राजनीति से प्रेरित हो बदले और लगाए जाते हैं। राजनीति की ही देन है कि आज शिक्षा जैसे सेवा-कार्य में भी व्यापक भ्रष्टाचार व्याप्त हो गया। अब कक्षाओं में बादल राग और वह तोड़ती पत्थर का मूल अर्थ अध्यापक बताने से डरता है। प्रेमचंद के चरित्रों पर सवाल खड़े होते हैं। अब प्रतीक शब्दावलियों पर पहरा है, ऐसे शब्द असंसदीय हो गए हैं। उदाहरण के तौर पर विकास दिव्यकीर्ति पर हुए विवाद को देखा जा सकता है।

आज राजनीति हम पर इतनी हावी है कि व्यक्ति अपनी पार्टी की पसंद के विचार को प्रबलता देने के लिए हत्या जैसे जघन्य अपराध को सही ठहरा सकता है। गरीब को मारने वाली महंगाई जैसी बला को भी लोग सही ठहरा सकते हैं, वहीं जनसरोकार के मुद्दों को लोग गलत ठहरा सकते हैं। आखिर जो चीज़ गलत ही है वह सही कैसे हो सकती है? लखीमपुर खीरी में एक नेता किसानों पर जीप चढ़ा देता है और उसे उसकी पसंद के लोग सही ठहराने में लग जाते हैं। बलात्कार के अपराधियों को जेल से रिहा होने पर मिठाई बाँटी ज़ाती है। आज कोई अपराधी जेल से छूटता है तो हजारों की संख्या में लोग उसका स्वागत करते हैं। ‘धर्म’ के जुलुस को शक्ति-प्रदर्शन का जुलूस बनाया गया है। सत्ता की हनक के लिए विरोधी-विचार के दरवाज़े पर खूंखार चेहरे वाला बुलडोजर खड़ा कर दिया गया है तो ऐसे समय में साहित्य अपनी उपयोगिता को किस प्रकार सिद्ध करता है यह देखना बड़ा दिलचस्प होगा। यह सारे परिवेश किस प्रकार साहित्य में दिखाए जाएँगे, यह देखना गौरतलब होगा। साहित्य को उस साहित्यिक दायरे से निकलकर इस वास्तविक दायरे में रूबरू होना चाहिए, जिसमें हम जी रहे हैं, क्योंकि यही हमारा सत्य है।

आज राजनीतिक पार्टियां मनुष्य और समाज नहीं गढ़ती, वे गढ़ती हैं केवल वोट और उस वोट गढ़ने के लिए शब्द, लेखनी, विचार और जुबान जो भी जरूरी हो उसे अपहर्त या खरीदना पड़े, राजनीतिक पार्टियां वह कर रही हैं। क्या हमारा साहित्य भी अपहृत और बिकने के लिए तैयार है या जनता के साथ खड़ा होकर बिगाड़ के डर को ताक पर रखकर सही को सही कहने की हिम्मत रखता है ?

ऐसे ईमान-गिरवी समय में हमारा साहित्य क्या कुछ लिख रहा है, कितने ईमानदारी से लिख रहा है, यह समझना और जानना जरूरी है। हालांकि साहित्य तो विचारधाराओं की गोलबंदी में पहले से ही बेचैन रहा है। आज समाज और जीवन- राजनीतिक खेमों में गोलबंद हो गया है। क्या ऐसे समय में हमारा साहित्य समाज राजनीति के आगे मशाल लेकर चल रहा है… या उसके तमस की खोह में रास्ता भटक गया है?

आज साहित्य को स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, थर्ड जेंडर आदि अलग-अलग खांचे भूलकर ‘राजनीति के दुष्परिणाम विषय-विमर्श’ को केंद्र में रखकर चलना होगा। जिस प्रकार जातियों में बंटकर दलित और पिछड़ा तबका अपनी लड़ाई नहीं लड़ पाता उसी प्रकार साहित्य भी अलग-अलग विमर्शों में बंटकर ऐसे दौर से नहीं लड़ सकता, क्योंकि सारे विमर्श अब राजनीति से सीधे जुड़े और प्रभावित हो रहे हैं।

आजादी की भूमिका में हमारा साहित्य एक सैनिक की तरह लड़ा है। समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं, कविता-कहानियों में देश को बदलने की असीमित छमता रही थ। साहित्यकारों और साहित्य ने अपनी भूमिका स्पष्ट करते हुए अपनी धारणा बदली और जनचेतना फैलाई भी। साहित्य की ईमानदारी पर साहित्य की आलोचना होती थी और साहित्यकार प्रसिद्ध होते थे। क्या आज साहित्यकार उसी ईमानदारी से साहित्य के लिए प्रतिबद्ध है?

सवाल बहुत हैं। उसके जवाब भी खोजे जाएँगे लेकिन समय की फाँक में टांग अड़ाकर कौन खड़ा होता है, इसका निर्णय आने वाला इतिहास करेगा। अतः उसकी सफ में कौन कहाँ खड़ा है अपनी भूमिका स्पष्ट कर लें।

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