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कब तक निर्दोष लोगों को यूंही बलि का बकरा बनाया जाता रहेगा

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मुनेश त्यागी 

     दिल्ली की एक अदालत ने दिसंबर 2019 को जामिया मिलिया इस्लामिया में हिंसा से जुड़े मामले में 11 अभियुक्तों को रिहा करते हुए कहा है कि पुलिस ने इन आरोपियों को “बलि का बकरा” बनाया और वह दोषी लोगों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं कर पाई। अदालत ने जेएनयू के पूर्व छात्र शरजील इमाम, सफूरा जरगर और जामिया मिलिया के छात्र आसिफ इकबाल समेत 11 लोगों को आरोप मुक्त कर दिया है।

      अदालत ने कहा है कि पुलिस वास्तविक और असली अपराधियों को पकड़ने में नाकाम रही और उसने जानबूझकर इन निर्दोष आरोपियों को बलि का बकरा बनाकर जेल में ठूंस दिया।अदालत ने कहा है कि विरोध करना बोलने के बुनियादी अधिकार का ही एक रूप है जिसका जानबूझकर गला नहीं घोटा जा सकता, हालांकि बोलने के अधिकार पर तर्कपूर्ण प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।

     अदालत ने पाया कि ये आरोपी केवल वहां पर मौजूद थे, मगर इनके खिलाफ ऐसा कोई भी सबूत नहीं था कि जिससे इन्हें अपराधी बनाया जा सके। कोर्ट ने पुलिस की कार्यवाही पर सवाल उठाते हुए और चिंता व्यक्त करते हुए कहा की पुलिस को सावधान होने की जरूरत है उसे विरोध करने और सशस्त्र विद्रोह के बीच भेद करना चाहिए। अदालत ने आगे कहा कि हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं पुलिस असली अपराधियों को पकड़ने में नाकाम रही और उसने खानापूर्ति करने के लिए इन निर्दोष आरोपियों पर निराधार मुकदमे लाद दिए।

     अदालत ने पाया कि इस मामले में पुलिस ने आरोपियों से संबंधित व्हाट्सएप, एसएमएस या दूसरा कोई सबूत दाखिल नहीं किया है और उसने जानबूझकर मौज मस्ती के लिए निर्दोष लोगों को मुकदमे में फंसा दिया जो निष्पक्षता के सिद्धांतों के खिलाफ है। कोर्ट ने माना कि वहां पर बहुत सारे प्रदर्शनकारी थे जिसमें कुछ असामाजिक तत्व हो सकते हैं जिन्होंने वहां पर कानून विरोधी गतिविधियां की हो लेकिन यहां पर सबसे मुख्य प्रश्न यह है कि क्या आरोपी उन कानून विरोधी हरकतों में शामिल थे? इस सवाल का पुलिस के पास कोई जवाब नहीं था।

     भारतीय न्याय शास्त्र में यह कोई अकेली घटना नहीं है। बहुत सारे दूसरे मुकदमों में भी पुलिस द्वारा गलत केसों में निर्दोष आरोपियों को फंसाया जाता है जिन्हें बाद में 10:15 साल अदालती कार्रवाई का सामना करते हुए बाइज्जत बरी कर दिया जाता है। मगर यहीं पर सवाल है कि झूठे मामलों में निर्दोष आरोपियों को फंसाने के लिए पुलिस अधिकारियों पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जाती और निर्दोष लोगों को झूठे केस में फंसाने का सिलसिला लगातार जारी है।

       इससे पहले 90 के दशक में राष्ट्रीय पुलिस कमीशन की रिपोर्ट कह चुकी है कि 60% मामलों में पुलिस द्वारा झूठे केस में फंसा कर निर्दोष लोग जेल भेजे गए हैं और सबसे ज्यादा अफसोस की बात यह है कि राष्ट्रीय पुलिस की इस रिपोर्ट पर आज तक कोई कार्यवाही नहीं की है और लाखों निर्दोष लोग जेलों में सड़ रहे हैं। 

      यहां पर हमारा कहना है कि पुलिस व्यवस्था को सुधारते हुए, उन पुलिस अधिकारियों और कर्मियों के खिलाफ तुरंत ही सख्त से सख्त कार्रवाई की जाए, जिन्होंने खानापूर्ति करने के लिए निर्दोष आरोपियों को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया था। उनकी तमाम पदोन्नतियां और वेतन वृद्धि रोक देनी चाहिए, उन्हें ग्रेच्युटी और पेंशन के अधिकार से वंचित कर देना चाहिए और निर्दोष घोषित किए गए आरोपियों को कम से कम 20 लाख रुपए क्षतिपूर्ति के रूप में अदा किए जाएं। 

      जब तक पुलिस अधिकारियों के खिलाफ इस तरह की सख्त कानूनी कार्रवाई नहीं होगी, तब तक निर्दोष लोगों को यूंही बलि का बकरा बना दिया बनाता जाता रहेगा और असली अपराधी समाज में यूं ही घूमते रहेंगे और कानून, संविधान, कानून के शासन और अदालतों पर यूं ही हंसते रहेंगे, उसका मखौल उड़ाते रहेंगे।

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