नरेन्द्र कुमार
साम्राज्यवादी सरगना पुतिन उक्रेन के अस्तित्व के लिए लेनिन और 1917की रूसी समाजवादी क्रांति को जिम्मेदार ठहरा रहा है। दरअसल पुतिन जार की तरह रूस के आसपास के छोटे राष्ट्रों पर अपना दबदबा चाहता है, जबकि अमेरिका तथा दूसरे साम्राज्यवादी शक्तियां वहां अपने मनमाफिक सरकार बना कर वहां के बाजार, प्राकृतिक संपदा तथा श्रम शक्ति पर अपना नियंत्रण चाहते हैं। ठीक इसके विपरीत लेनिन तथा स्टालिन ने जनवाद के आधार पर शोषण के विरुद्ध समाजवादी समाज बनाने के लिए इन सभी छोटे राष्ट्रों को एक साथ मिलकर सोवियत संघ बनाने की अपील की थी जिसे इन राष्ट्रों ने स्वेच्छा से स्वीकार किया था। सोवियत संघ में इन राष्ट्रों को अधिकार दिया गया था कि वे जब चाहे अलग हो सकते हैं। इन राष्ट्रों के अंदर पूंजीवादी शक्तियां और मजदूर किसानों के बीच सत्ता के संघर्ष में निश्चय ही लेनिन और स्टालिन ने मजदूरों तथा किसानों की सत्ता के साथ एकता का हाथ बढ़ाया था। यूक्रेन की समस्या 100 वर्ष से भी अधिक पुरानी है। इस जटिल राष्ट्रीयता की समस्या को स्टालिन ने पूरी काबिलियत के साथ हल किया था जिसके लेनिन भी कायल थे। आज स्तालिन की मृत्यु के 69 वर्ष हो गए। हम इस मसले को स्तालिन के राष्ट्रीयता के प्रश्न के समाधान के नजरिए से विश्लेषण करते हैं और यूक्रेन की समस्या से गुजरते हुए स्तालिन की काबिलियत से रूबरू होने की कोशिश करते हैं ।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान 1917 में रूसी में क्रांति होती है और अपने वायदे के अनुसार लेनिन तथा स्तालिन जार के अंदर फौजी हुकूमत के नियंत्रण में रखे गए सभी राष्ट्रीयताओं की आजादी के अधिकार की घोषणा करते हैं। उन्होंने यह भी अपील की कि नई सोवियत सरकार ‘सोवियत संघ’ के रूप में संगठित होगी जिसमें किसी भी राष्ट्र को परस्पर सहमति और जनवाद के आधार पर साथ रहने और असहमति की स्थिति में अलग हो जाने का अधिकार होगा। जार के शासन वाले रूस में बलपूर्वक रखे गए विभिन्न राष्ट्रों ने सोवियत संघ में साथ रहने का फैसला किया, जबकि फिनलैंड ने अलग हो जाने का निर्णय लिया। स्तालिन के नेतृत्व में फिनलैंड की आजादी की घोषणा की गई। ठीक इसके बाद यूक्रेन में उस समय के कूलक और पूंजीवाद के समर्थक शक्तियों ने अलग हो जाने के लिए आवाज उठायी। इतना ही नहीं उन लोगों ने एकतरफा कार्रवाई करते हुए जर्मनी के खिलाफ अपने मोर्चे से फौजियों को वापस बुलाना शुरू कर दिया। यहां तक कि उन्होंने लाल सेना की फौजी टुकड़ियों को मोर्चे पर जाने में बाधा पैदा किया। उस समय लेनिन के सामने एक विकट समस्या थी। एक तरफ राष्ट्रों को स्वतंत्रता का अधिकार देने की वचनबद्धता थी, तो दूसरी तरफ राष्ट्रवाद का इस्तेमाल करते हुए यूक्रेन के प्रतिक्रियावादी शक्तियों के द्वारा अलग राष्ट्र बना कर पश्चिम के साम्राज्यवादियों के साथ गठजोड़ करने का इरादा था, जो भविष्य में नवगठित सोवियत संघ के लिए संकट और परेशानी का कारण बनता। ऐसी स्थिति में राष्ट्रीयता के मंत्री के रूप में स्तालिन ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। कई राउंड के वार्ता के बीच स्तालिन ने मजदूरों और किसानों से बने सोवियतों की संगठित सत्ता के साथ वार्ता आगे बढ़ाया। यूक्रेन में उस समय सत्ता के दो केंद्र थे। एक तो राष्ट्रवादियों के नेतृत्व में संसदीय पद्धति को आगे बढ़ाने वाली सत्ता और दूसरे सोवियतों के रूप में संगठित मजदूर-किसान तथा दूसरे आम लोगों के प्रतिनिधियों से बनी सत्ता थी। हालांकि ऊपरी तौर पर यूक्रेन में राष्ट्रवादियों का ही बोलबाला नजर आ रहा था और मैनशेविक सहित कई बोल्शेविक सत्ता के विरोधी लेनिन तथा स्तालिन पर अपने वायदे के अनुसार उन्हें सत्ता सौंपने का दबाव बना रहे थे। लेनिन के विरोधी मैनशेविक नेता यह सवाल उठाने लगे कि जब फिनलैंड के संसदीय पद्धति को आजादी दी जा सकती है, तो यूक्रेन को क्यों नहीं दिया जाएगा? ऐसी स्थिति के बीच स्तालिन ने एक वैचारिक बहस को आगे बढ़ाया। उन्होंने तर्क पेश किया कि फिनलैंड में सोवियत सत्ता के रूप में मजदूर और किसानों की सत्ता नहीं थी, इसलिए संसदीय पद्धति के प्रतिनिधियों को अलग राष्ट्र के रूप में शासन के अधिकार को सौंप दिया गया, लेकिन यूक्रेन में राष्ट्रवादियों के बजाय मजदूरों और किसानों का सोवियत ज्यादा विकसित जनवादी व्यवस्था है,
इसलिए हम बोल्शेविक लोग क्रांति के मूल स्वरूप की रक्षा करते हुए यूक्रेन के सोवियत को वहां की सत्ता सौंपेंगे। स्टालिन ने ऐसा ही किया। बाद में यूक्रेन की सोवियत ने अन्य राष्ट्रीयताओं के साथ मिलकर बने सोवियत संघ के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उसके बाद का इतिहास यही रहा कि स्टालिन के नेतृत्व में यूक्रेन की मेहनतकश जनता ने न सिर्फ समाजवाद का निर्माण किया, बल्कि हिटलर के खिलाफ संघर्ष करते हुए अग्रिम मोर्चे पर हर तरह की तबाही झेलते हुए मानवता की इस बड़ी जीत का हिस्सेदार बना। स्टालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ ने रूस के आसपास के राष्ट्रों और प्रदेशों के विकास पर रूस से थोड़ा भी कम जोर नहीं दिया।
स्तालिन के शासनकाल में रूस तथा अन्य राष्ट्रीयताओं के बीच किसी तरह का टकराव हम नहीं देखते हैं। तो फिर प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि किन परिस्थितियों में और क्यों आज यह टकराव इतना भयंकर रूप लेते जा रहा है ? लेनिन तथा स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत सत्ता वर्चस्व के बजाय दो राष्ट्रों के बीच में संबंधों को मजबूत बनाने के लिए जनवाद को आगे किया। साथ ही यह भी व्याख्या किया गया कि वास्तविक जनवाद वह नहीं है जिसे चंद पूंजीपति बहुमत श्रमिक आबादी के हितों को नजरअंदाज कर पेश करते हैं। लेनिन तथा स्तालिन ने मेहनतकश की आजादी वाले जनवाद को केंद्र में रखा। उनके जीवन के भौतिक तथा सांस्कृतिक विकास की अधिकतम संभावनाओं को तलाशा और उसे पूरा करने के लिए अर्थव्यवस्था, शिक्षा व स्वास्थ्य में समाजवादी व्यवस्था के द्वारा अभूतपूर्व विकास किया। इसलिए आज यूक्रेन की जनता और साथ ही रूस की जनता जिस युद्ध की त्रासदपूर्ण अवस्था में जी रही है उसे मुक्ति का रास्ता लेनिन और स्टालिन के द्वारा रूस की समाजवादी क्रांति के बाद अपनाई गई नीतियों और रास्ते के द्वारा ही खोजा जा सकता है।-
*नरेन्द्र कुमार*