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ध्यान : कैसे मिले वैश्वानर जगत में प्रवेश 

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        डॉ. विकास मानव 

 वैश्वानर जगत केवल चेतन तत्व या शक्तितत्व का मूल स्रोत है। अपने इस मूल केंद्र में शक्तितत्व सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करता है। इसीलिए शक्तितत्व को मूलशक्ति, पराशक्ति व जगत नियंत्रणकारी शक्ति की संज्ञा दी गई है। 

     इसका प्रथम प्रकट रूप ब्रह्माण्ड ऊर्जा अर्थात् Cosmic Rays है। इनके द्वारा सम्पूर्ण विश्व का नियंत्रण होता है। सूक्ष्मतम प्राणवायु ‘ईथर’ द्वारा सूर्य किरणों और ब्रह्माण्ड ऊर्जाओं में जो अदृश्य संघर्ष होता है उसके परिणाम स्वरुप तीन प्रकार की विद्युत् चुम्बकीय तरंगों (इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन) का आविर्भाव होता है जिनके सहयोग से अणु-परमाणु की सृष्टि होती है। 

     हमने तीनों विद्युत ऊर्जाओं को महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के नाम से संबोधित किया है और शक्तियों की सगुण उपासना का शिलान्यास किया है। ये तीनों विद्युत चुम्बकीय ऊर्जाएं ज्ञानशक्ति, मनःशक्ति और क्रियाशक्ति के रूप में विकसित हैं। 

    बाद में ये तीनों शक्तियां इच्छाशक्ति, विचारशक्ति, संकल्पशक्ति और मन, बुद्धि, अहंकार या मन, वाक्, प्राण के रूप में प्रकट होती हैं। वैश्वानर लोक केवल चेतन तत्वयुक्त होने के कारण अनंत शक्तियों का भंडार है। उन्हें भौतिक कार्यों की सहायता के लिए अथवा पारलौकिक कल्याण के निमित्त उपयोग के लिए दो मुख्य साधन हैं–पहला है योग और दूसरा है तंत्र। 

      संकल्पशक्ति, विचारशक्ति और प्राणशक्ति योगसाधना के मूल आधार हैं। इसी प्रकार तंत्रसाधना का मूल आधार भी मनःशक्ति के साथ ये तीनों शक्तियाँ हैं। एक शक्ति की अधिकता के कारण तंत्र को योग से विशिष्ट माना गया है। योग में जहाँ प्राण की प्रधानता है, वहीँ तंत्र में मन की प्रधानता है। योगी और तांत्रिक इन शक्तियों को विकसित कर वैश्वानर लोक में प्रवेश करते हैं और जब वापस लौटते हैं तो वही शक्तियां उनमें योग-तंत्र की सिद्धियों और चमत्कारों के रूप में प्रकट होती हैं। 

     साधारण लोगों की संकल्प, विचार आदि शक्तियां अविकसित होने के कारण वे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बाहर निकलने में असमर्थ होते हैं।

      योग-तंत्र की साधना का मुख्य उद्देश्य है–इन शक्तियों को विकसित करना ताकि वे गुरुत्वाकर्षण के बाहर निकल कर वैश्वानर लोक से संपर्क स्थापित कर सकें और उसमें प्रवेश कर सकें। मानव शरीर में उक्त तीनों विद्युत चुम्बकीय तरंगों के भेद हैं–मस्तिष्क, ह्रदय और नाभि। इनकी सहायता से संकल्प, विचार आदि शक्तियां जब पूर्ण विकसित हो जाती हैं तो मस्तिष्क से ‘अल्फ़ा’ तरंगें, चित्त से ‘बीटा’ तरंगें और नाभि से ‘डेल्टा’ तरंगें निकलने लगती हैं। ये तीनों विद्युत् चुम्बकीय तरंगों के परिवर्तित रूप हैं।

       अल्फ़ा, बीटा और डेल्टा–ये तीनों तरंगें उन्नत  विचार, मन और संकल्प  आदि शक्तियों की वाहिका हैं। जिस प्रकार वैज्ञानिक उपकरणों की सहायता से ध्वनि, शब्द, चित्र आदि विद्युत धारा में बदल कर फोन, कंप्यूटर, रेडियो, टेलीविज़न आदि में प्रकट होते हैं, उसी प्रकार शरीर के तीनों केेन्द्रों के यंत्रों द्वारा संकल्प आदि शक्तियां उक्त तीनों तरंगों में बदल कर वैश्वानर लोक में प्रकट होती हैं। संकल्प के अनुसार योगी अथवा तांत्रिक इनकी सहायता से कहीं भी प्रकट हो सकते हैं। किसी भी वस्तु का निर्माण कर सकते हैं।

      कहीं से किसी वस्तु को मगा भी सकते हैं। योगियों और तांत्रिकों की जिन सिद्धियों और चमत्कारों को देख कर हम-आप आश्चर्यचकित होते हैं–उनका यही मूल रहस्य है

 मन के दो रूप हैं–चेतन और अवचेतन। इन दोनों रूपों का सम्बन्ध उसकी चारों अवस्थाओं से है–जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। सुषुप्ति और तुरीय अवस्थाओं में होने वाले अवचेतन मन के क्रिया-कलापों से साधारण लोग अनभिज्ञ रहते हैं।

      योगतंत्र विज्ञान के अनुसार मन की एक और अवस्था है जिसे ‘तुरीयातीत अवस्था’ कहते हैं। परामनोविज्ञान भी इस पांचवीं अवस्था को अभी जान-समझ नहीं पाया है। इस अवस्था में मन का तीसरा अति सूक्ष्म रूप ‘मनसातीत’ है। अवचेतन मन में अकल्पनीय और अविश्वसनीय शक्तियां तो हैं ही–इसे परामनोवैज्ञानिक गण समझते हैं लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम कि मनसातीत रूप और तुरीयातीत अवस्था में कितनी उच्चकोटि की अकल्पनीय शक्तियां विद्यमान हैं। इसे योग-तंत्र विज्ञान ही बतला सकता है और उच्चकोटि के योगी-तांत्रिक ही समझ सकते हैं।

       मन की शक्ति पदार्थ की शक्ति से कहीं अधिक है और है असीम। तुरीयातीत अवस्था समाधि की एक ऐसी उच्चतम अवस्था है जिसमें अन्य अवस्थाओं की अपेक्षा मन की शक्ति असीम हो उठती है। इस स्थित में इच्छाशक्ति द्वारा किसी भी जड़ पदार्थ को चेतनायुक्त किया जा सकता है और किसी भी वस्तु के रूप और गुण का आमूल-चूल परिवर्तन भी किया जा सकता है। इतना ही नहीं, तत्काल इच्छानुसार किसी भी पदार्थ या वस्तु का निर्माण किया जा सकता है। देश-काल की सीमा का उल्लंघन कर शरीर एक से अधिक स्थानों पर एकसाथ प्रकट भी हो सकता है।

       आकाश-गमन, दूर-श्रवण (दूर की आवाजों को सुनना), दूर स्थित मनुष्य के चित्त की अवस्था और उसकी गतिविधि का ज्ञान आदि जितनी चमत्कारपूर्ण योग की सिद्धियां हैं, उन सबके मूल में मन की तुरीयातीत अवस्था की शक्तियां ही कार्य करती हैं। इतना ही नहीं, इन शक्तियों के माध्यम से सूक्ष्म शरीर द्वारा लोक-लोकान्तरों में भ्रमण भी करते हैं। देश-काल की सीमा उन्हें बांध नहीं सकती।

      मन की जितनी अवस्थाएं हैं उनमें तुरीय अवस्था और तुरीयातीत अवस्था सर्वोच्च अवस्थाएं हैं। अब तक विज्ञान, धर्म, संस्कृति, कला, काव्य, साधना आदि के क्षेत्र में जितनी उन्नति हुई है–उन सबके मूल में ये अवस्थाएं रही हैं।

      विश्व के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन के शब्दों में “ज्ञान हमारा वहीँ तक साथ दे सकता है, जहां तक हम उसे जानते और सिद्ध कर सकते हैं। लेकिन एक ऐसी भी स्थिति आती है जहाँ मस्तिष्क सहसा बोध के उच्चतर स्तर पर पहुँच जाता है।”

     इसको सहज उपलब्धियां, अन्तर्ज्ञान कुछ भी कह लीजिये। संसार के सब महान अविष्कार मनुष्य की प्रज्ञा के आगे की इस रहस्यमयी अनुभूति द्वारा ही संभव हुए हैं। भौतिक विज्ञान के मूल में विद्युत और उसकी शक्तिया ही हैं। उसके सिद्धांत मानव-बुद्धि और तर्क पर आधारित हैं। मन और उसकी शक्तियों का उसमें महत्व नहीं है। यही कारण है भौतिक विज्ञान के मूल में भ्रम और त्रुटियाँ दिखाई देती हैं, समय-समय पर जिनके सुधार की आवश्यकता पड़ती है।

       योग और तंत्र में कोई अंतर नहीं । उसकी जितनी भी अंतरंग साधनाएं हैं वे सब मन की तुरीय और तुरीयातीत अवस्थाओं की साधनाएं हैं। तंत्र-निर्देशित और योग-निर्दिष्ट विभिन्न रहस्यमयी गोपनीय क्रियाओं और पद्धतियों द्वारा मन के सभी रूपों, स्थितियों और अवस्थाओं में प्रवेश कर उसकी शक्तियों को अर्जित करना, उनके द्वारा वैश्वानर लोकों की दैवीय शक्तियों से तादात्म्य स्थापित करना तथा उनकी सहायता से लौकिक-पारलौकिक कार्यों का सम्पादन करना– उच्चकोटि के योगी और तंत्र-साधक का लक्ष्य होता है।

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