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कैसे पहचानें अपनी मौलिकता 

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        ~> नीलम ज्योति 

    यह संसार स्रष्टा की विविधतापूर्ण अद्भुत कृति है। इसमें एकदूसरे से तुलना स्वाभाविक है, लेकिन यदि हम व्यक्तिगत जीवन में किसी से तुलना-कटाक्ष के अंतहीन कुचक्र में उलझ गए तो जीवन में सुख और सफलता का मार्ग कंटकाकीर्ण हो जाता है। हमें इस कुचक्र से बाहर निकलने की आवश्यकता है। 

      किसी से तुलना-कटाक्ष करने के चलते हम ईर्ष्या-द्वेष में फँस जाते हैं और अनावश्यक तनाव एवं मानसिक संताप को निमंत्रण दे रहे होते हैं।

    समझने की जरूरत है कि इस सृष्टि में स्रष्टा की हर रचना स्वयं में अनुपम एवं अनूठी है। 

       सबका अपना सौंदर्य है, अपना वजूद है, अपनी रंगत है, अपना स्वरूप है, अपनी विशेषता है व अपनी उपयोगिता है और साथ ही अपनी सीमाएँ भी हैं। जल में तैरने वाली मछली से पेड़ पर उछल- कूद करने वाले बंदर की तुलना नहीं की जा सकती। कीचड़ में खिलने वाले कमल से गुलाब की क्या तुलना। 

      गरमी में पकने वाले आम से बरफीले क्षेत्रों में तैयार होने वाले सेब की क्या तुलना। हिमालय की वादियों में खिल रहे ब्रह्मकमल से घर-आँगन में खुशबू बिखेर रही तुलसी की क्या तुलना। कहने का तात्पर्य है कि सृष्टि की हर कृति स्वयं में बेजोड़ एवं अनुपम है। इनको निहार कर स्रष्टा की कुशल कारीगरी एवं सौंदर्य-बोध की दाद देनी पड़ेगी।

    यही इनसान के संदर्भ में भी सत्य है। हर व्यक्ति एक विशिष्ट उद्देश्य के साथ अपनी भूमिका निभाने के लिए धरती पर आया है, परमात्मा के विश्व उद्यान को सुंदर- सुरम्य बनाने के लिए भेजा गया है। जरूरत अपने मौलिक स्वरूप को पहचानने की, जीवन के मूल लक्ष्य को समझने की है। 

      वह मौलिक बीज क्या है, जो अंकुरित होने की बाट जोह रहा है। वह मौलिक विचार-भाव क्या है, जो अभिव्यक्त होने के लिए कुलबुला रहा है। वह मौलिक विशेषता क्या है, जो इस सृष्टि के सौंदर्य में एक नया आयाम जोड़ने वाली है। वह मौलिक कृति क्या है, जो सिर्फ और सिर्फ आपके अंदर से बाहर प्रकट होने के लिए जन्मों से इंतजार कर रही है। 

     इन प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने वाले ही स्वयं में निहित मौलिकता से परिचित हो पाते हैं।

    वस्तुतः हमारी मूलभूत आवश्यकता हमारे भीतर निहित इसी मौलिकता को पहचानने की है, न कि दूसरों से तुलना करने की या उनकी नकल करने में स्वयं का समय बरबाद करने की; क्योंकि हर इनसान अपने आप में अनूठा है। हर व्यक्ति अपने अनंत जन्मों के संचित विचार, भाव एवं क्रियाओं का समुच्चय है, जो उसे अपनी अंतर्निहित विशिष्ट शक्तियों एवं मौलिक विशेषताओं से संपन्न बनाते हैं। 

      साथ ही उसकी कुछ कमियाँ भी होती हैं, जिन्हें वह अपने पुरुषार्थ के आधार पर परिमार्जित कर सकता है।

    मौलिकता बाहरी नहीं, बल्कि हमारे आंतरिक स्वरूप से निर्धारित होती है। अध्यात्म क्षेत्र में तो यह सिद्धांत विशेष रूप से लागू होता है। महर्षि रमण जैसे मौनी संत, रामकृष्ण परमहंस जैसे बालसुलभ सरलता की प्रतिमूर्ति, स्वामी विवेकानंद जैसे तेजस्वी वक्ता, कबीर जैसे फक्कड़ जुलाहे, रैदास जैसे जूता गाँठते संत, मीराबाई जैसी नाचती-गाती भक्त- बाहर से देखने में इनमें अंतर जान पड़ सकता है, लेकिन चेतना के स्तर पर सभी उस परमात्मतत्त्व से एकात्म चेतना के शिखर पर आरूढ़ आत्माएँ थीं। बाहरी अभिव्यक्ति सबकी अपने मौलिक स्वरूप के अनुरूप भिन्न-भिन्न थी।

    इनकी आपस में तुलना व किसी को छोटा, किसी को बड़ा कहना बे-मानी होगा; क्योंकि सबका सामाजिक दृष्टि से अपना एक विशिष्ट योगदान था। इनकी तुलना करने पर लगता है, जैसे हम सृष्टि के सौंदर्य का अपमान कर रहे हैं। जरूरत है अपनी मौलिकता को पहचानने की, साथ ही दूसरों की मौलिकता को भी समझने की। 

      इस आधार पर हम एकदूसरे की विशेषताओं को उदारतापूर्वक स्वीकारते- सराहते हुए सामंजस्य के साथ रह सकते हैं और समाज व परिवेश में एक सकारात्मक योगदान दे सकते हैं।

    यदि बात व्यक्तिगत जीवन में आगे बढ़ने की हो तो आगे बढ़ रहे दूसरे व्यक्तियों से आवश्यक प्रेरणा ली जा सकती है। उनकी अच्छाइयों को ग्रहण करते हुए उनके सद्गुणों को हम भी अपनी सफलता की सीढ़ी बना सकते हैं। दूसरों से तुलना कर ईर्ष्या-द्वेष में उलझने से तो हम अपनी अवनति के ही माध्यम बन रहे होंगे। 

     जरूरत दूसरों के व्यक्तित्व से तुलना करने के स्थान पर अपने व्यक्तित्व में सुधार करने और अपनी मौलिक अद्वितीयता को प्रकट करने की है। दूसरों के साथ निरर्थक तुलना करने की भी चेष्टा में हम अनावश्यक तनाव व अशांति के शिकंजे में उलझ रहे होते हैं, जिस कुचक्र का कोई अंत नहीं। जीवन का स्वर्णिम पथ उत्कर्ष के मार्ग पर आगे बढ़ने का है।

    यही बाहरी विकास के साथ आध्यात्मिक विकास का राजमार्ग भी है। दुनिया को सुधारने से पहले स्वयं को सुधारने की आवश्यकता है, दूसरों को ठीक करने से पहले अपना घर सँभालने की आवश्यकता है, जितना जल्दी हम यह समझ पाएँ, उतना ही हमारे लिए हितकर होगा।

      ऐसा कर पाना स्वयं की मौलिकता को जानने, उसको सही तरह से अभिव्यक्त करने, उसको विकसित करने व उसको पूर्णता तक पहुँचाने से ही संभव हो सकेगा।

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