राजेंद्र शर्मा
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब सरकार में शीर्ष स्तर से ‘मुफ्त की रबड़ी बनाम उत्पादक खर्च’ की बहस छेड़ी थी‚ तभी अनेक टिप्पणीकारों ने इस बहस के जरिए खड़े पेश किए जा रहे झूठे द्वैध या बाइनरी के मंतव्यों पर आशंकाएं जताई थीं। 2023-24 के बजट में‚ जिसे अमृत काल का पहला बजट बताया जा रहा है, न सिर्फ कुछ परिवर्तित रूप में इस बहस को आगे बढ़ाया गया है, बल्कि तथाकथित ‘मुफ्त की रेवडि़यों’ के प्रति वर्तमान शासन की हिकारत को काफी हद तक अमल में भी लाया गया है।
इस हिकारत का सबसे आंखें खोलने वाला उदाहरण है‚ राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम‚ जिसका नाम बदलकर मोदी निजाम में उसमें महात्मा गांधी का नाम जोड़ दिया गया था। इसके लिए आबंटन में भारी कटौती कर दी गयी है। ताजा बजट में इसके लिए सिर्फ 60,000 करोड़ रुपये का आबंटन किया गया है‚ जबकि 2021-22 में इस कार्यक्रम पर वास्तविक खर्च 1,12,000 करोड़ रुपये के करीब का रहा था। बेशक‚ 2021-22 में इस कार्यक्रम पर 1,12,000 करोड़ रुपये खर्च होने से‚ कोविड तथा उससे जुड़ी पाबंदियों की मार झेल रहे‚ शहरों से गांवों में वापस लौटे प्रवासी मजदूरों को आय का कुछ हीला मिलने के रूप में बहुत जरूरी सहायता मिली थी‚ लेकिन अर्थव्यवस्था के कोविड के असर से उबरने की दलील से इस कार्यक्रम के लिए आबंटन में भारी कटौती का औचित्य किसी भी तरह से सिद्ध नहीं किया जा सकता है। सचाई यह है कि गहराते कृषि संकट तथा ग्रामीण क्षेत्र में कमाई वाले काम में भारी कमी की पृष्ठभूमि में यह ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम आम तौर पर काम मांगने वालों के खासे बड़े हिस्से को न सिर्फ खाली हाथ लौटाता रहा है‚ इसके तहत काम पाने वालों को भी पूरे परिवार में एक ही सदस्य को साल में पचास दिन का काम भी मुश्किल से ही मिल पा रहा है। याद रहे कि मूल कानून में‚ काम करने वाले हरेक परिवार से एक व्यक्ति को‚ साल में कम से कम सौ दिन का रोजगार मुहैया कराने की गारंटी का प्रावधान है। साफ है कि इस कानून में ग्रामीण क्षेत्र में जिस हद तक न्यूनतम रोजगार सहायता मुहैया कराने की कल्पना निहित थी‚ उसके आस–पास तक भी नहीं पहुंचा जा सका है‚ लेकिन हैरानी की बात नहीं है कि वर्तमान सरकार ने आबंटन की कमी के सहारे मनरेगा के लाभ के दायरे को सिकोड़ने की पिछली यूपीए सरकार की परंपरा को ही आगे बढ़ाया है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पहले कार्यकाल के एक चर्चित संसदीय संबोधन में ही तब के नरेगा को‚ इसे शुरू करने वाली यूपीए सरकार की ‘विफलताओं का स्मारक’ करार देकर‚ इस कार्यक्रम के प्रति अपनी हिकारत जाहिर कर दी थी। उसके बाद से मोदी सरकार एक प्रकार से मजबूरी में इस कार्यक्रम के बोझ को ढोती रही है‚ हालांकि महामारी के दौर में इस कार्यक्रम से महत्वपूर्ण मदद मिलने की बात अब मौजूदा सत्ताधारियोें को भी स्वीकार करनी पड़ी है‚ लेकिन मनरेगा के लिए आवंटन का निचोड़ा जाना तो सिर्फ एक ही उदाहरण है।
ऐसा ही एक और चौंकाने वाला उदाहरण खाद्य सब्सिडी में भारी कटौती का है। 2022-23 के संशोधित अनुमान की तुलना में खाद्य सब्सिडी में इस बार पूरे 31फीसद की कटौती कर दी गई है। यह खेल किया गया है, खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत दिए जाने वाले सब्सिडीयुक्त सस्ते अनाज की व्यवस्था में। बेशक‚ चुनाव वर्ष को देखते हुए पांच किलो मुफ्त अनाज के वितरण को इस साल के लिए बढ़ा दिया गया है और ज्यादा संभावना अगले साल भी आम चुनाव तक उसके चलाते रहे जाने की ही है‚ लेकिन इस तरह सब्सिडीयुक्त खाद्यान्न वितरण रोक दिया गया है और सरकार ने अपने खाद्य सब्सिडी के खर्च को 31 फीसद घटा लिया है। याद रहे कि यह सब तब किया जा रहा है‚ जब विश्व भूख सूचकांक में भारत सबसे निचले पायदान पर है और दुनिया में सबसे ज्यादा भूख के मारे वयस्क और बच्चे भारत में ही रहते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि इस भुखमरी का संबंध‚ उतना खाद्य सामग्री की कमी से नहीं है‚ जितना आय की गरीबी या आय की कमी से है और इस मामले में स्थिति हाल के वर्षों में बदतर ही होने का सबूत बजट से एक दिन पहले पेश किए आर्थिक सर्वे में खुद सरकार का यह स्वीकार करना है कि मेहनतकशों की वास्तविक आय का बढ़ना तो दूर, उसमें गिरावट ही हो रही है।
कम–से–कम आम चुनाव से पहले के आखिरी पूर्ण बजट में तो इससे बचना किसी भी तरह से संभव नहीं होता‚ लेकिन मोदी राज ने यह भी कर दिखाया है। उसने न सिर्फ ग्रामीण विकास के आबंटन में रुपयों में भी कटौती कर दी है‚ शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में भी मुद्रास्फीति का हिस्सा निकालने के बाद वास्तविक आबंटन में कटौती ही की गई है। आखिरकार‚ उत्पादन व रोजगार में वृद्धि के रूप में आर्थिक वृद्धि‚ जनता के हाथों में क्रय शक्ति के बिना कैसे संभव हैॽ और आज‚ जबकि विश्व मंदी के हालात के चलते‚ निर्यात की मांग नीचे ही जा रही है‚ ऐसी घरेलू मांग के बिना अर्थव्यवस्था ऊपर उठने के बजाए नीचे ही जाएगी। लेकिन यहीं मुफ्त की रेवड़ी बनाम उत्पादक खर्च के अपने झूठे द्वैध के सहारे‚ मौजूदा निजाम ने यह भ्रमजाल खड़ा करने की कोशिश की है कि उसे ढांचागत क्षेत्र में निवेश के रूप में‚ आर्थिक विकास की ऐसी रामबाण दवा मिल गई है‚ जो जनता और उसके हाथों में क्रय शक्ति बढ़ाने पर‚ निर्भरता से मुक्ति दिला देगी।
ढांचागत निवेश 7.5 लाख से बढ़ाकर 10 लाख करोड़ कर दिए जाने को ऐसा ही ‘मास्टर स्ट्रोक’ बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि इसी से रोजगार की‚ विस्फोटक हो चुकी समस्या भी हल हो जाएगी। इस तथाकथित ‘उत्पादक प्रयास’ की ही दलील से‚ मेहनतकशों के हित में सामाजिक खर्चों में कटौतियों को भी सही ठहराने की कोशिश की जा रही है‚ लेकिन यह विकास का भ्रम ही पैदा करेगा, जो ज्यादा दिन नहीं चल सकता है। आखिरकार‚ ढांचागत विकास का उपयोग भी तो क्रयशक्ति से संपन्न आबादी ही कर सकती है। ब्रेख्त की बहुउद्धृत कविता की पंक्तियों को कुछ बदल कर कहें तो — “विकास के चक्के चलाने के लिए‚ आदमी की जरूरत होती है।”
*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक है।)*