विकास की रफ्तार में खेती के दरकिनार होने का मुद्दा गाहे-बगाहे सतह पर आता है। मुद्दे में इतनी गर्मी नहीं होती है कि उस पर सरकार कुछ ठोस निर्णय ले। लिहाजा, अन्नादाता पर हमदर्दी के बादल तो खुब गरजते हैं। पर हकीकत में जो होता है, वह उनके लिए संतोषजनक नहीं होता है। इस तरह के ढेरों झंझावातों के बावजूद किसानों ने अपने पसीने से देश का पेट भरने लायक अनाज उगाया है। धान और गेहूं के बाद दलहन और तिलहन जरूरी अनाजों में है। लेकिन करीब एक दशक से दहलन और तिलहन का उत्पादन पर भारी नकारात्मक असर पड़ा है।
दशक भर पहले देश में दलहन और तिलहन उत्पादन को लेकर हम दंभ भरते थे। इसे पीली क्रांति की संज्ञा दिया था। लेकिन कब इस क्रांति पर ग्रहण लग गया किसी ने सुध ही नहीं ली। हालात तो यह हैं कि देश में दलहन और तिलहन का आयात बढ़ता जा रहा है। कृषि उत्पादों के आयात शुल्क में कमी देश के किसानों के साथ के साथ मजाक से कम नहीं है। पटरी से उतरी दलहन तिलहन के उत्पादन में वृद्धि के लिए सुझाए गए उपायों पर अमल तो दूर उन्हें फाइलों के झुरमुटों में ही अटका दिया गया है। लिहाजा, हकीकत के उपाय खेतों तक पहुंच नहीं पा रहे हैं। संसद के शीत सत्र में ही एक संसदीय समिति ने इसको लेकर सरकार की आलोचना की है। समिति ने अपनी 46 की रिपोर्ट में दलहन तिलहन के उत्पादन में वृद्धि के लिए दिए सुझाव पर पहल करने की सिफारिश भी की है। कृषि विभाग ने तिलहन और पाम तेल पर राष्ट्रीय मिशन एनएमओ ओपी के संबंध में भी निर्णय नहीं लिया है, जो चिंता का विषय है। सोयाबीन, मुंगफली, मुंग, उड़द और अरहर की खेती के बढ़ावा देकर दलहन और तिलहन के को आकर्षित करने समर्थन मूल्य में वृद्धि कर उन्नत बीज के साथ आधुनिक कृषि तकनीक उपलब्ध करने की जरूरत है। किंतु अफसोस समिति की सिफारिशों पर गौर नहीं किया जा रहा है। दलहन और तिलहन पर यदि समय रहते कारगर कदम नहीं उठाए गए तो आयात में और वृद्धि स्वाभाविक है।
देश में हर साल 30 हजार करोड़ के खाद्य तेल का आयात किया जा रहा है। 90 के दशक में तिलहन के मामले में देश आत्म निर्भरता के करीब था। देश में घरेलू जरूरत का 97 प्रतिशत तक उत्पादन हो रहा था। 2007-2008 से लेकर अब तक कृषि कैलेंडर का अवलोकन करे तो स्वष्ट होता है कि जहां धान, गेहूं, कपास सहित अन्य खाद्यान्नों के उत्पादन का ग्राफ बढ़ा है, वही दलहन तिलहन का उत्पादन घटा है।
फिलहाल देश में हर साल 30 हजार करोड़ के खाद्य तेल का आयात किया जा रहा है। 90 के दशक में तिलहन के मामले में देश आत्म निर्भरता के करीब था। देश में घरेलू जरूरत का 97 प्रतिशत तक उत्पादन हो रहा था। किसानों को तकनीक और बीज के मामले में प्रोत्साहन नहीं मिलने से उत्पादन में गिरावट चली आई। दूसरी और आयात शुल्क में 75 प्रतिशत तक छूट दी जाने लगी, जिससे किसान पिछड़े उत्पादन गिरा और हमारी आत्म निर्भरता धराशाई हो गई है। इसके बाद भी दलहन और तिलहन के मामले अनुदार रवैया अपनाया जा रहा है। यह खतरे की घंटी है। आयात शुल्क घटाने से विदेशी विनिमय का लाभ इंडोनेशिया, मलेशिया, अमरीका और ब्राजील के किसानों को मिल रहा है। यदि दलहन-तिलहन के समर्थन मूल्य पर इजाफा किया जाता है तो आयात घटेगा और देश के किसान लाभान्वित होंगे।
राजीव गांधी के शासन काल 1985 में कमोबेश यही स्थिति बनी थी। तब संसद में बहस हुई। बहस का सार था हम पेट्रोल डीजल क्यों खरीदते हैं? तर्क आया दोनों वस्तुओं का उत्पादन देश में नहीं होता है। पर दहलन तिलहन हमारे श्रम का नतीजा है। फौरन कृषि नीति पर बदलाव किया गया। यात्र एक दो वर्ष के अंतराल में हमारी आयात निर्भरता घटने लगी। किंतु डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में इस अनिवार्य मामले में उपेक्षा मिली। 2007-2008 से लेकर अब तक कृषि कैलेंडर का अवलोकन करे तो स्वष्ट होता है धान, गेहूं, कपास सहित अन्य खाद्यान्नों के इस उत्पादन में उतरोत्तर तरक्की कर रहे हैं। बस दलहल तिलहन पिछड़ रहा है। इस सूरत में दलहन और तिलहन के उत्पादन में वृद्धि करने के लिए ठोस पहल किया जाना चाहिए।
आयल सीड्स टेक्नालाजी मिशन को हासिल करना आज के दौर में बेहद सरल कार्य है। इस मामले में एक और विसंगति सामने आई है। सोयाबीन के उत्पादन के लिए जेनेटिकल मोडिफाइड कृत्रिम रूप से संवर्धित यानी जीएम सोसाबीन के उत्पादन बढ़ावा दिया जा रहा है। इस प्रजाति के बीज का उत्पादन सामान्य सोयाबीन से 4 से 20 प्रतिशत कम होता है। इस बीज को बढ़ावा देने देश को क्या लाभ होगा इसका खुलासा नहीं किया गया है। आश्चर्य की बा है कि कृत्रिम रूप से संवर्धित बीजों के अन्य उत्पादों का कम विरोध कर चुके है। उसके बाद सोयाबीन को बढ़ावा देना जांच का विषय हो सकता है।
सिफारिशी रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि दलहन तिलहन के उत्पादन में आवश्यकता अनुसार उत्पादन के लिए देश में 30 प्रतिशत कृषि रकबे की आवश्यकता पड़ेगी। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र और आंध्र की परंपरागत खेती के साथ अलसी, सोयाबीन, सरसो और तिल की फसल आसानी से उगाई जा सकता है। दलहन और तिलहन के उत्पादन रकबे में वृद्धि से धान और गेहूं की उत्पादन क्षमता प्रभावित होगी। किंतु इससे हमारी आर्थिक व्यवस्था पर बल आने की संभावना नहीं के बराबर होगी। पाम यानी ताड़ बुनियादी तौर से मुरस्थली उपज है। इसके लिए भारत की भूमि को ज्यादा उपयुक्त नहीं माना जाता है। पाम से 10 प्रतिशत अतिरिक्त कार्बन डिस्चार्ज होता है। जो बेहद हानिकारक है। इसलिए खाद तेल के विकल्प के रूप में पाम की जगह सोयाबीन आदि को बढ़ावा देना चाहिए। रिक्त भूमि का उपयोग दलहन और लिए परंपरागत रूप में किया जाता रहा है। इस प्रचलन में लाने के लिए कठिन प्रयास के आवश्यकता ही नहीं है