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*मनुष्य, लोकसत्ता और मनुष्यता*

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           ~ पुष्पा गुप्ता

ज्ञानविज्ञान की असंख्य शाखाएं हैं और अनन्त विस्तार है। सभी शाखाएं अनन्त-प्रकृति के अनुसंधान में संलग्न हैं या फिर मनुष्य और उसके जीवन के रहस्यों को पहचानने में लगी हैं। मनुष्य और प्रकृति का सहस्रोन्मुखी- संबंध बहुत गहन है!

   समस्त ज्ञानविज्ञान मनुष्य के द्वारा और मनुष्य के लिए हैं।  मानविकी के सभी अनुशासन जैसे समाजशास्त्र ,इतिहास , दर्शन , मनोविज्ञान , मानवविज्ञान, भाषाविज्ञान,  साहित्य , कला , धर्मशास्त्र , नीतिशास्त्र , राजनीतिशास्त्र , प्रशासन , अन्तत: मनुष्य का ही अध्ययन  कर रहे हैं।

      यह ठीक है कि प्रकृति के संबंध में मनुष्य की जानकारी दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है ,नए- नए अनुसंधान हो रहे हैं लेकिन मनुष्य के संबंध में अनुसंधान  की  गति  उतनी नहीं है ,जितनी की गति प्रकृति को जानने में है ,क्योंकि लोगों के मन में इस प्रकार की भावना है कि मनुष्य तो हम हैं ही अपनी प्रकृति के संबंध में हम से अधिक और कौन जानेगा? परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है.  मनुष्य स्वयं अपने लिये भी एक रहस्य  है.

    जब राम गुरुवसिष्ठ के पास गये , द्वार खटखटाया , अन्दर से आवाज आयी -कौन है? राम ने कहा – बस , यही जानने के लिए आया हूँ कि मैं कौन हूँ ? मैं को जानना इतना कठिन है?  मनुष्य को जानना सचमुच उतना ही कठिन है।

समस्त ज्ञान -विज्ञान ,संस्कृति-दर्शन आदि के केन्द्र में मनुष्य है,साहित्य के केन्द्र में भी मनुष्य ही तो है।  सभी अनुशासन मनुष्य की ही परिक्रमा कर रहे हैं।हम भाषाशास्त्र और समाजशास्त्र पढें या राजनीतिशास्त्र! हम इतिहास पढें या साहित्य या मनोविज्ञान या सौन्दर्यशास्त्र  अथवा अध्यात्म!

     हम मार्क्स पढ़ें , फ़्रायड पढ़ें अथवा कपिल और कणाद को पढ़ें , हम जो भी पढ़ें ,वास्तव में तो हम मनुष्य का ही अध्ययन कर रहे होते हैं। समाजशास्त्र कहता है – मनुष्य सामाजिकप्राणी है ।  अर्थशास्त्र कहता है – मनुष्य आर्थिकप्राणी है।

     राजनीतिशास्त्र कहता है -मनुष्य राजनीतिकप्राणी है। दर्शनशास्त्र – मनुष्य और मनुष्य तथा मनुष्य और प्रकृति के संबंध की व्याख्या है। परन्तु मनुष्य इतना ही नहीं है,वह असीम संभावनाओं को जीवन में उतार सकता है।मनुष्य की शक्ति कल्पनातीत है और उसके जीवन की संभावनाओं की कोई सीमा नहीं बनी है।  मनुष्य और उसका जीवन तथा उसका परिवेश साधारण विषय नहीं है।

     नेचुरल-साइंस की फ़ेकल्टी को देखें तो भौतिकी या गणित किसने विकसित किये? सूचना-प्रौद्योगिकी अथवा कृत्रिम-बुद्धि किसने बनायी ?अन्तरिक्ष-विज्ञान और मेडिकल-साइंस किसकी देन है?  वह मनुष्य ही है न !ज्ञान ,विज्ञान और टेक्नोलोजी अचरज की बात नहीं है,  अचरज की बात तो यह मनुष्य ही है, जो इन सबका जन्म-दाता है।

    लोक मनुष्य की सत्ता का ही रूप है , मनुष्य स्वयं अध्ययन-अनुसंधान का बहुत व्यापक और गंभीर विषय है।

      मनुष्य को प्रकृति ने पांच अद्भुत उपहार दिये हैं , जो अन्य किसी प्राणी को नहीं मिल सके हैं ,मनुष्य सीधे तन कर खडा हो सकता है। जमीन पर सीधा लेट सकता है।मनुष्य के हाथों में पकडने , स्वतन्त्रता से घुमाने की क्षमता है।

     मनुष्य के पास तीक्ष्ण और केन्द्रित की जाने वाली नजर है।मनुष्य के पास तर्क करने या कारण-कार्य संबंध को खोजने वाला मस्तिष्क है। मनुष्य के पास वाणी : अभिव्यक्ति और चिन्तन के विंबों की योग्यता है। मनुष्य जब सीधा लेटता है ,  तब आसमान उसकी नजर में होता है।

    अनन्त -आकाश !  अनन्त की कल्पना उसका सहज स्वभाव है।कल्पना , चिंता, भावना ,संवेदना और विश्वास मनुष्य के चित्त  की विभूतियां हैं, साधन हैं- आयुध। इनसे मनुष्य अपने परिवेश का मुकाबला करता है जहां आवश्यकता होती है ,वह कल्पना का सहारा लेता है, जहां आवश्यकता होती है वह भावना और विश्वास का सहारा लेता है और स्मृतियां भी उसकी शक्ति है ,वह विचार कर सकता है ,वह विश्वास करता है ,विश्वास उसके जीवन की शक्ति  है, आशा उसकी ऊर्जा  है।

ईश्वर क्या  है? मनुष्य की अपरिमेयता का भाव है,अनन्तता या पूर्णता का भाव है। यह भाव की सत्ता है,मनुष्य के ही भाव की अनुपमेय शक्ति!

    मनुष्य के संबंध में वेदव्यास ने कहा था -गुह्यं ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि , न हि मानुषात्‌ श्रेष्ठतरं हि किंचिद्‌ !मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी तो नहीं है। तुलसीदास ने कहा – बड़े भाग मानुष तन पावा अथवा -प्रभु तुम बहुत अनुग्रह कीनों।साधनधाम विबुध- दुरलभ तन मोहि कृपा कर दीन्हों।

कन्नड़ कवि सर्वज्ञ ने अपनी एक कविता में कहा था :

   मानिस नीश नेन वेड लोकक्के

नीनीश नीश नेन वेड लोकक्के

मानिस नीश सर्वज्ञ।

बिना मनुष्य बने तू ईश्वर कैसे हो गया ?अपने को ईश्वर क्यों कहता है?इस संसार में तो मनुष्य ही ईश्वर है.

      चंडीदास कहते हैं कि, सबार ऊपरे मानुष सत्य ताहार ऊपरे नाहीं। मनुष्य से बडा सत्य कुछ भी नहीं है। चंडीदास  ने कहा था कि  -मनुष्य की चर्चा तो सभी करते हैं किन्तु कितने हैं, जो मनुष्य के सत्य-स्वरूप से परिचित हैं?  मनुष्य इस सृष्टि का प्राण है ,जीवनधन है , मनुष्य को केवल ऊपर से या देह से ही देखने वाले भ्रम में ही पडे हुए हैं क्योकि वे उसके भीतरी स्वरूप से परिचित नहीं हैं।

      मनुष्य प्रेम-रस से ही गढा हुआ है ,वह प्रेम, जो दिव्यलोक की विभूति है। जो प्रेम को नहीं जानता ,वह मनुष्य को भी नहीं जानता।  प्रेम नहीं है तो वह सच्चा मनुष्य ही कहां है.

मानुष मानुष सबाइ कहये ,मानुष केमन जन?

मानुष रतन मानुष जीवन मानुष प्राण-धन।

भरमे भुलये अनेक जन मरम नाहिक जाने॥

मानुषेर प्रेम नाहि जीवलोके मानुष से प्रेम जाने।

मानुष यारा जीवन्ते मरा ,सेई से मानुष सार।

मानुष लक्षण महाभाव गण मानुष भावेर पार।

मानुष नाम विरल धाम विरलताहार रीत॥

मनुष्य अनंत ब्रह्माण्ड को देखता है और अपनी विवशता को भी देखता है। मनुष्य सचमुच बहुत व्यापक, बहुत विराट किन्तु बहुत जटिल विषय है। मनुष्य ने विराट प्रकृति को जितना आज जाना है , उतना पहले कभी नहीं जाना  था लेकिन  वह सब जान कर के भी वह  जीवन को निरापद नहीं बना सका ! मन की एक ऐसी स्थिति होती है, जिसमें मनुष्य समझता है कि -“इस समस्त सृष्टि का केंद्र मैं ही हूं और यह जो सारी सृष्टि चल रही है ,यह मेरे लिए ही चल रही है”।

     कुदरत ने मनुष्य की चेतना के साथ स्व को जोड़ दिया -मैं और मेरा  अर्थात्‌  व्यक्तिचेतना ! स्व प्राकृतिक है तो स्वार्थ भी प्राकृतिक है !  सबका स्वार्थ प्राकृतिक है तो स्वार्थों का संघर्ष भी प्राकृतिक है !  यह स्वार्थ-संघर्ष पशुओं में भी है और अन्य प्राणियों में भी है , मनुष्य में भी है.

     मनुष्य भी प्राणी है ! यही स्वार्थ -संघर्ष  जंगलन्याय का रूप धारण कर लेता है , अधर्म और  अन्याय का रूप धारण कर लेता है ! आज की भाषा में यही शोषण और विषमता है ! यह व्यक्ति-चेतना ही है , जो मनुष्य की उस अक्षय ऊर्जा के अजस्र स्रोत को बाँध लेती है.

     समष्टि की शक्ति को बिखेर देती है और उसे असहाय तथा निरुपाय बना देती है !यह मनुष्य का एक भ्रम या अज्ञान है और इसका कारण मनुष्य के स्वयं का अहंकार है , जो उसकी संकीर्णता का कारण है । जीवन की पहेली बडी जटिल है क्योंकि मनुष्य का मन बडा जटिल है। 

मनुष्य का मन विकट जंगल है।यह मन ऋषि का तपोवन भी  है किंतु आदिम-वासना का हिंसक-पशु भी वहीं रहता है। इसीलिये कौटिल्य ने कहा था कि  मनुष्य: कुरुते तत्तु यन्न शक्यं सुरासुरै:[ मुद्रा राक्षस]।

     मनुष्य वह कर सकता है , जो न देवता कर सकता है और न दैत्य। इसका अर्थ यही है न , कि मनुष्य में जहाँ दैवी-प्रवृत्ति है , वहीं आसुरी प्रवृत्ति भी मनुष्य में ही हैं ।देव भी वही और दानव भी वही।देवता भी उसी में है तो दानव भी उसी में है। मनुष्य जो कर सकता है , वह न देवता के वश की बात है और न असुर ही वह कर सकता है।

    कंस ,शिशुपाल, रावण, हिरण्यकशिपु, चंगेज,अब्दाली, हिटलर भी वही और बुद्ध , महावीर , नानक , ईसा और गांधी भी वही ! नर से नारायणत्व की यात्रा  मनुष्य के ही जीवन की यात्रा है। व्यष्टिस्वार्थ और समष्टिहित के बीच  चलने वाली  निरन्तर प्रक्रिया ही देवासुर-संग्राम है।

      सबका हित अर्थात परमार्थ , दूसरे का हित परार्थ और अपना ही अपना हित अर्थात स्वार्थ।परमार्थ: देवता ,परार्थ के साथ स्वार्थ का समन्वय: मनुष्य,और परार्थ की कीमत पर स्वार्थ- साधन: राक्षस। समष्टिहित और व्यक्तिस्वार्थ के बीच देवासुर-संग्राम  आज भी चल रहा है , कल भी चलेगा।

     भले ही उसका नाम आप कुछ भी रख लीजियेगा। संघर्ष का मूल कारण धर्म और जाति  नहीं हैं ,ये आवरण मात्र हैं , मूलकारण तो  मनुष्य की मूलप्रवृत्ति ही हैं। जिनके कारण एक की इच्छा दूसरे की इच्छा को प्रभावित करती है ,एक का सुख दूसरे के सुख को बढ़ाता है और नियंत्रित भी करता है। मूलप्रवृतियाँ  मनुष्य का अनिवार्य लक्षण है। मूलप्रवृतियाँ  अमीर- गरीब ,धनी -निर्धन, मूर्ख -विद्वान सभी में होती हैं ,महापुरुषों  में भी।

     यह प्रवृत्तियां परस्पर पूरक होती हैं और परस्पर विरोधी भी होती हैं जहां एक का  सुख  दूसरे के सुख को बढ़ाता है ,वहां मित्र- संबंध पैदा होता है तथा जहां प्रवृत्तियां परस्पर विरोधी हैं वहां संघर्ष होता है जहां  कहीं मूल प्रवृत्तियों के सहज प्रवाह में बाधा उत्पन्न होती है, वहीं द्वंद प्रारंभ हो जाता है और इसके साथ ही परिवर्तन की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है।

     इन प्रवृत्तियों को ही त्रिगुणात्मक प्रकृति कहा गया है, ,जो वंशानुक्रम  से प्राप्त होती है , जैसे जिज्ञासा प्रवृत्ति है ।परिवार में सास बहू ननंद भावज का संघर्ष प्रभुता का ही तो संघर्ष है।दफ्तर में यूनियन और अफसर का संघर्ष वास्तव में मूलप्रवृत्तियों  का ही तो संघर्ष है ।बड़ी-बड़ी क्रांतियों और युद्धों के मूल में यह मूल प्रवृत्तियां ही होती हैं। 

एक की  संग्रह-प्रवृत्ति दूसरे को आवश्यक वस्तुओं से भी वंचित कर देती है और अमीरी गरीबी का भेद बढाती है। प्रवृत्ति के कारण ही एक श्रम करता है और दूसरा उसके उत्पादन का आराम से उपभोग करता है। एक ही प्रभुत्वकामना दूसरे पर अपनी इच्छाएं लाद देती है। जटिलता यह है कि मनुष्य सृजन भी करता है किन्तु विनाश भी वही करता है। मनुष्य ही मनुष्य का शत्रु बन गया , इससे बड़ी मनुष्य की  सीमा  और संकीर्णता क्या होगी ? दायरे मनुष्य ने बनाये हैं, उसी प्रकार जैसे मकडी जाला बुनती है , वे जानते हैं कि जाला मकडी नहीं होता । विगत शताब्दी में ही  दो महायुद्ध हो चुके हैं , आज भी यूक्रेन का युद्ध चल रहा है , अणु-परमाणु बमों के उद्योग उसी ने खड़े किये हैं परन्तु यह भी बात  है कि संयुक्त-राष्ट्र में बैठ कर विश्वशान्ति का प्रस्ताव भी उसी ने पास किये हैं। 

मनुष्य की दस मूलप्रवृत्तियां  भूख ,  रति, होड़ या अनुकरण  या नकल, रक्षा  (भय ), आराम, सिसृक्षा या संतान कामना, संग्रह (तृष्णा या वित्तैषणा, लोभ  या लालच )  और जिज्ञासा  (जानने की इच्छा )।नैसर्गिक-वृत्तियों instincts के स्तर पर मनुष्य और पशु में बहुत-सी समानताएं हैं। यह सच है कि भूख और वासना जैसी बुनियादी -प्रवृत्ति जब रौद्र-रूप धारण कर लेती है ,तब मनुष्य पशु से भी अधिक भयंकर बन जाता है ! मनुष्य के अवचेतन में आदिमयुगों का पशु सोया हुआ है।

     संसार में मनुष्य जैसा विवेकवान्‌ प्राणी और कोई नहीं है।  किन्तु इसका दूसरा पक्ष यह है कि  मनुष्य जैसा अविवेक भी किसी अन्य प्राणी में नहीं है !यदि मनुष्य के अविवेक की गाथा लिखें तो वह उसके ज्ञान-विज्ञान की गाथा से  कम  विस्तृत  नहीं होगी !  ये पारस्परिक झगड़े क्या हैं?

    ये युद्ध क्या हैं ? ये दुनियाँ भर के नशे क्या हैं ? ये आपाधापी क्या है ? ये विषमता क्या है ? ये अरबों का संचय करके भी तृष्णा का बना रहना क्या है ? ये पद का मद क्या है ? ये अपना-पराया क्या है ?  अणुबम और परमाणुबम ही नहीं , यह पर्यावरण-प्रदूषण क्या है , यह  भी मनुष्य का अविवेक ही सिद्ध होगा ! विकास के नाम पर मनुष्य की तृष्णा धरती के पर्यावरण में जहर घोल रही है,मनुष्य का विवेक कहां है?

इलाचन्द्रजोशी ने मनुष्य के मन की व्याख्या करते हुए अज्ञात- चेतना के संबंध में कहा है कि मनुष्य की पाशविक-उच्छृंखल-बर्बर मनोवृत्ति अज्ञात- चेतना के अतल गह्वर में सो रही है ।अज्ञात चेतना को स्पष्ट करते हुए श्री इलाचन्द्रजोशी ने  फ्रायड का ही एक उदाहरण दिया , जो ग्रीक पुराणों में है.

      ग्रीक पुराणों में उल्लेख है कि जब देवताओं को टिटान नामक दैत्य-जाति ने बहुत सताया , तब उन  देवताओं ने उन दैत्यों को तातार की खाडी में फेंक दिया और ऊपर से पर्वत डाल दिये ताकि वे उठ न पायें !जोशीजी कहते हैं कि इसी प्रकार से मनुष्य अपनी वासनाओं को ज्ञात- चेतना के नीचे दबाता चला जाता है , उस अतल प्रदेश में अज्ञात- चेतना का राज्य है। मनुष्य की पाशविक-उच्छृंखल-बर्बर मनोवृत्ति अज्ञात- चेतना के अतल गह्वर में सो रही हैं। 

     दूसरी ओर  इससे भी बडा सच यह है कि मनुष्य अपनी कल्पना -भावना-संवेदना को वाणी में उतार सकता है ,चित्र में उतार सकता है ,नृत्य में उतार सकता है और सात स्वरों में साकार कर सकता है।

     अपनी नैसर्गिक-वृत्तियों को भाव में रूपान्तरित कर सकता है , सौन्दर्यचेतना के रूप में उदात्त बना सकता है। संस्कृति तो मनुष्य नामक ज्योति के प्रकाश का नाम है।  मनुष्य चलता है ,तो साथ में संस्कृति भी चलती है और दो मनुष्य मिलते हैं तो दो संस्कृतियां भी मिल जाती हैं।

मननात्‌ मनुष्य: । मनुष्य मनन कर सकता है ,मनन करने के कारण ही वह मनुष्य है। विचार तो मनुष्य की शक्ति है ,ऊर्जा है ! विचार के बिना कैसा मनुष्य ?  विचार के बिना मनुष्य की कल्पना कैसे होगी  लेकिन राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक विचारधाराएँ देशकाल के अनुसार बदलती रही हैं और बदलती रहेंगी क्यॊकि  अंततः तो वे मनुष्य के लिए हैं, मनुष्य के जीवन के लिए हैं , वे मनुष्य के ही विचार हैं ।  विचार साध्य नहीं, साधन है ,इसलिए विचार के आधार पर मनुष्य का अध्ययन नहीं किया जा सकता , मनुष्य और मनुष्यता के आधार पर विचार का अध्ययन करना होगा।

     कहावत है- “आदमी आदमी में अंतर,  कोई हीरा कोई कंकर।” आदमी आदमी है, इसलिए सभी में सामान्य लक्षण अवश्य होंगे ही,  लेकिन इसका मतलब ये नहीं हो सकता कि सभी आदमी एक जैसे रूप, रंग, गुण, धर्म के ही होते हैं। समानता जितनी  नैसर्गिक है, तो उस समानता के  साथ विविधता  भी उतनी ही नैसर्गिक है.

     एक बाप के दो बेटे एक जैसे रूप गुण धर्म के नहीं होते।  लोकजीवन में असंख्य मनुष्य हैं और उनकी वृत्तियाँ भी असंख्य हैं, उनके स्वभाव असंख्य हैं ,यह प्रकृति है किन्तु इन असंख्य विविधताओं में समन्वय कर देना मनुष्य की संस्कृति है।

      मनुष्य और मनुष्य के बीच में संबंधों का निर्धारण होता है सामाजिक सांस्कृतिक  परिवेश  की रचना होती है और उस इन सभी के बीच  व्यष्टि और समष्टि की निरंतर प्रक्रिया चलती है। 

      जैसे समाज की सत्ता मनुष्य की सत्ता है , जैसे राष्ट्र की सत्ता मनुष्य की सत्ता है , वैसे ही  लोक की सत्ता मनुष्य-सत्ता का ही एक रूप है , विराट रूप। वह केवल वर्तमान ही नहीं है , युगयुगांतर की निरन्तरता है।

यद्यपि मानव-विज्ञान ने मनुष्य को जानने की दिशा में बहुत काम किया है, कल तक तो लोकविज्ञान मानवविज्ञान का ही अंग था किन्तु आज स्वायत्त-अनुशासन के रूप में उसका विकास हो रहा है. मानवविज्ञानी कहते हैं कि  मनुष्य इतना जटिल और विराट विषय है कि उसके संबंध में हमारी अब तक की जानकारी बहुत प्रारम्भिक-अवस्था में है. मनुष्य का जीवन  प्रकृति के विराट परिवेश से अभिन्न है।

     असंख्य प्राणियों के जीवन से लहरों की तरह जुडा है ,और विराट की अनन्त प्रक्रिया से अभिन्न है । यह समस्त परिवेश मनुष्य के मन में ओतप्रोत है। 

       मनुष्य शब्द का अर्थ व्यक्ति तक सीमित नहीं है। यह बात ठीक है कि व्यक्ति के रूप में मनुष्य मनुष्य ही है  , लेकिन ऐसे है , जैसे समुद्र में बूँद। धरती पर विभिन्न देशों में वर्तमान अरबों मनुष्यों में से एक। मैं अपनी बात जानती हूँ ,दूसरे के मन की बात तो नहीं जानती। तब मैं कैसे कहा जा सकती हूँ कि मैं मनुष्य को जानती हूँ ?

       मनुष्य केवल  शरीर ही नहीं है ,मन भी है और मन में समस्त परिवेश ओतप्रोत है।  मनुष्य का मन, कितना गहरा है ,जिसमें युग समाये हुए हैं। व्यष्टिमन , समष्टिमन, चेतन-मन और अवचेतनमन। फ़िर मनुष्य  वर्तमान तक ही तो सीमित नहीं है, जो अतीत में हो गये , वे सभी मनुष्य थे  और आगे भी मनुष्य होंगे।

       इस प्रकार से देखें तो मनुष्य शब्द  का अर्थ-विस्तार  व्यक्ति की इकाई से बहुत-बहुत  व्यापक है  और व्यापक ही नहीं है , बहुत जटिल भी है। 

इस प्रकार लोक के अध्ययन का विषय – मनुष्य और मनुष्यता है। मनुष्य की सामान्य ,सर्वात्मक और समष्टिगत सत्ता का नाम लोक है।लोक विराट है , सम्प्रभुता का स्रोत। महासागर की तरह ,बहुस्तरीय , विष को पचाने वाला , अमृत बाँटने वाला। किन्तु यह भी सच है कि लोक जगता भी है, जगाता भी है किन्तु हर समय जगा नहीं रहता। सो जाता है ,तब सो भी जाता है।

     इस समय लोक विच्छिन्न है ,सोया हुआ है।लोक एकीकरण में जगता है। एक भरोसे की टेर से जगता है। एक आदमी के लिए  दूसरा आदमी  जान से प्यारा है , लोक जग रहा है।सभी को अपनी अपनी पड़ी है ,कोई किसी का नहीं है।सब सयाने हो गये हैं मतलब -लोक सो गया है।

     समष्टि के रूप में मनुष्य विराट है और जो व्यष्टि होते हुए भी समष्टिचेतना-मय हो जाता है , वह  समष्टि रूप ही है। यह समष्टिचित्त ,समष्टिभाव , समष्टिमन , समष्टिबुद्धि ,समष्टिहित मनुष्य की लोक-सत्ता है और जिसे मनुष्यता कहा जाता है , वह इसी समष्टिभाव की सत्ता है।

     मनुष्य होने की कसौटी मनुष्यता है। समष्टीकरण की प्रक्रिया से लोकचेतना का जन्म होता है !  वह ऊर्जा , जो हवा, पानी और सूरज की किरणों में व्याप्त है लेकिन दिखलाई नहीं देती वैसे ही व्यष्टिचेतना में समष्टिचेतना व्याप्त है लेकिन दिखलाई नहीं देती !लोकचेतना जन-जन में व्याप्त है किन्तु वह दुर्लभ क्षणों में ही प्रकट होती है।मनुष्य-जीवन में  समष्टीकरण  की प्रक्रिया है. साधारणीकरण या सामान्यीकरण. जिस प्रक्रिया में एक का दुखदर्द सब का दुखदर्द बन जाता है और सब का दुखदर्द   एक का दुखदर्द बन जाता  है.  सामान्यीकरण अर्थात्‌ विशेष का द्रवीभूत हो जाना.

      महात्मा बुद्ध ने रोगी को देखा , वृद्ध को देखा और मृत्यु को देखा  तो राजकुमार का वह आवरण , जिसे हम   विशेष  कहते हैं , पिघल गया !  वे द्रवीभूत हो गये. समष्टि-मेधा  जग गयी ।संवेदना जगी और महात्मा बुद्ध के हृदय में करुणा का उद्रेक हुआ , यह लोकमंगल है. 

      जैसे युग क्षण में अभिव्यक्त होता है , वैसे ही लोक उस व्यक्ति के रूप में अभिव्यक्त होता है ,जो लोकभावित होता है।

     लोक की वेदना से अभिभूत हो जाता है ।वह बुद्ध हो, महावीर हो, कबीर हो या गांधी।मनुष्य मनुष्य के सघन सम्बन्ध और संवाद में लोक व्यक्त होता है।मोती भले ही हजार हों ,अंतर्वर्ती सूत्र नहीं हैं तो उसका नाम माला नहीं होगा ,अंतर्वर्ती सूत्र समन्वय है, समष्टि है।

   कामयानी ने मनुष्यता के साथ समन्वय को जोड़ा :

शक्ति के विद्युत्कण जो व्यस्त विकल बिखरे हैं, हो निरुपाय.

समन्वय उसका करे समस्त विजयिनी मानवता हो जाय।

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