अग्नि आलोक
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इंसानियत का मंजन

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*हैदर अली

जब बिजली इजाद नहीं हुई थी और सीलिंग फैन वगैरह की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, तब “अंग्रेज़ बहादुर” ख़ास टाइप का कपड़ा कमरे में लटका कर उसकी डोरी कमरे के बाहर ग़ुलामों के पैरों में बांध दिया करते थे और बारी-बारी दिन-रात अपने पैरों को हिलाते रहना ग़ुलामों का काम होता था… इस बात का ख़ास ख़्याल रखा जाता था कि ग़ुलाम कान से बहरे हों ताक़ि उनकी बातों को सुन ना सकें…अगर सुनने वाला ग़ुलाम होता था तो उसे ज़बरन बेहरा कर दिया जाता था…।
अंग्रेज़ों के ज़माने में ICS अधिकारी रहे ” क़दरतुल्लाह साहब” अपनी क़िताब “साहब नामा” में लिखते हैं कि जब उन ग़ुलामों को नींद लगती तो अंग्रेज़ कमरे से निकल कर ख़ास तरह के ज़ालिमों वाले जूते पहनकर पेट पर वहशियों की तरह वार करते थे, जिससे ग़ुलामों के पेट फटकर आंतड़ियाँ तक बाहर आ जाती थीं और वह मर जाते थे… इस ज़ुल्म के लिये जुर्माने के तौर पर उस अंग्रेज़ से ब्रिटिश अदालत मात्र 2 रूपये वसूल करती थी… ना जेल ना ही कोई और सज़ा…।
उन्हीं अंग्रेज़ों की औलादें आज हमें “इंसानियत का मंजन” बेचती हैं…।
यह उसी वक़्त की एक नायाब तस्वीर है, ये तारीख़ उन मुख़बिरों की औलादें अपने बाप-दादाओं की हरकतों को देखकर समझ लें कि वो जाहिल लोग तब किसके साथ थे, आज उन्हीं के नक्शेक़दम पे वो हैं…।
*हैदर अली*

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