4 सितम्बर को मोदी सरकार के सौ दिन पूरे हो गये। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह-नीत सरकार के तीसरे कार्यकाल के सौ दिनों में लगभग वही हुआ है, जिसकी अपेक्षा और आशंका हमने जून 2024 के ‘मज़दूर बिगुल’ के सम्पादकीय में व्यक्त की थी: आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों को फ़ासीवादी रवैये के साथ लागू करने में कोई कमी नहीं आयेगी; मज़दूरों और मेहनतकशों के हक़ों पर हमले में कोई कमी नहीं आयेगी; नीतीश-नायडू की बैसाखी को क़ायम रखने के लिए बिहार और आन्ध्रप्रदेश को विशेष पैकेज दिया जायेगा, सड़कों पर आम मुसलमान आबादी पर फ़ासीवादी गिरोहों के हमले जारी रहेंगे लेकिन मुसलमान आबादी के फ़ासीवादी दमन-उत्पीड़न को सीएए-एनआरसी, समान (पढ़ें साम्प्रदायिक फ़ासीवादी) नागरिक संहिता, आदि जैसे क़दमों के ज़रिये कानूनी जामा पहनाने का काम बाधित होगा; गठबन्धन राजनीति की मजबूरियों के कारण नागरिक-जनवादी अधिकारों को कानूनी तौर पर रद्द करने की फ़ासीवादी प्रक्रिया की दर में कुछ कमी आयेगी, हालाँकि यह प्रक्रिया रुकेगी नहीं, जैसा कि नयी अपराध व दण्ड संहिताओं को लागू करने से सिद्ध हुआ है; बुलडोज़र राज, मॉब लिंचिंग, आदि जैसी घटनाओं की रफ़्तार में कोई कमी नहीं आयेगी; मोदी की ‘सुप्रीम लीडर’ की छवि को नतीजों से तात्कालिक तौर पर नुक़सान पहुँचेगा और साम्प्रदायिक फ़ासीवादी संघी एजेण्डा के कोर प्रतीकात्मक मसलों पर समझौते से भी इसकी चमक धूमिल होगी; लेकिन फ़ासीवादी शक्तियाँ देश में ज़मीनी स्तर पर नये सिरे से साम्प्रदायिक उन्माद को फैलाकर टुटपुँजिया वर्गों की प्रतिक्रिया को फ़ासीवादी स्वरूप देने में तत्काल ही संलग्न हो जायेंगी।
हमने जो आशंकाएँ 18वीं लोकसभा के चुनावों के नतीजों के आने के ठीक बाद व्यक्त की थीं, वे लगभग शब्दश: सही साबित हुई हैं। अगर हम आर्थिक और राजनीतिक पैमानों पर पिछले 100 दिनों का लेखा-जोखा पेश करें, तो यह बात साफ़ हो जाती है।
आर्थिक तौर पर, पिछले 100 दिनों में जो बुनियादी चीज़ देखने में आती है, वह है विशाल पैमाने पर बेरोज़गारी का न सिर्फ़ जारी रहना, बल्कि उसका बढ़ना। मोदी सरकार ने अपने बजट में बेरोज़गारी के सवाल पर “कुछ करने” की नौटंकी करने के वास्ते रोज़गार हेतु “प्रोत्साहन” की नीतियाँ लागू करने का शोशा उछाला था। इसमें इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा गया था कि सरकार राजकीय क्षेत्र में ख़ाली पड़े लाखों पदों को कब भर रही है, वह नयी सरकारी नौकरियों के सृजन के लिए क्या करने वाली है, वह रोज़गारी गारण्टी के लिए कोई प्रभावी कानून लाने वाली है या नहीं। इसमें पूँजीपतियों को अपनी कम्पनियों में बेरोज़गारों को अस्थायी तौर पर काम पर रखने के लिए प्रोत्साहित करने की बात थी और उसकी कीमत भी इन पूँजीपतियों को नहीं चुकानी थी, बल्कि सरकार को ही चुकानी थी। यानी, घुमा-फिराकर इसकी कीमत भी देश की जनता से ही वसूली जानी थी। बहरहाल, उस दिशा में भी अभी कुछ भी नहीं हुआ है। नतीजतन, पिछले आठ माह में बेरोज़गारी की दर अपने चरम पर है।
अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रपट के अनुसार, साल 2024 में भारत में रोज़गार सृजन की दर रही है 0.01, यानी लगभग शून्य। यदि प्रति वर्ष काम करने योग्य आबादी में जुड़ने वाले 70 से 80 लाख नये लोगों को देखा जाय, तो कुल मिलाकर रोज़गार सृजन की दर नकारात्मक में आयेगी। यानी बेरोज़गारों की रिज़र्व आर्मी, या श्रम की आरक्षित सेना में बढ़ोत्तरी हो रही है, हालाँकि रोज़गार प्राप्त आबादी में, यानी श्रम की सक्रिय सेना में भी मामूली-सी बढ़ोत्तरी हुई है। लेकिन सवाल यह है कि जो नौकरियाँ मिल रही हैं, उन्हें क्या सही मायने में पक्का रोज़गार कहा जा सकता है? नहीं। जो भी थोड़े-बहुत रोज़गार पैदा हुए हैं, वे अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्र में पैदा हुए हैं, जिसमें मेहनतकश लोगों को न तो न्यूनतम मज़दूरी मिलती है, न आठ घण्टे के कार्यदिवस का अधिकार मिलता है और न ही इस बात की गारण्टी होती है कि उनकी नौकरी कल उनके हाथों में होगी या उन्हें धक्का देकर बेरोज़गारों की क़तारों में खड़ा कर दिया जायेगा। जहाँ तक औपचारिक व संगठित क्षेत्र में नौकरियों के हिस्से का सवाल है, तो वह इसी दौर में 10.5 प्रतिशत से घटकर 9.7 प्रतिशत रह गया। यानी पक्की नौकरियों की संख्या में सापेक्षिक कमी तो आयी ही है, बल्कि निरपेक्ष कमी आयी है। क्योंकि यदि कुल रोज़गार सृजन की दर लगभग शून्य थी और पक्की नौकरियों की कुल नौकरियों में हिस्से में कमी आयी है, तो इसका अर्थ यह है कि निरपेक्ष तौर पर भी पक्की नौकरियों की संख्या में भारी कमी आयी है। यह इससे भी पता चलता है कि भारत में कुल काम-धन्धा करने वाली आबादी में कोविड के पहले 24 प्रतिशत लोग वैतनिक नौकरियाँ करते थे (पक्की और कच्ची, दोनों प्रकार की) जबकि आज यह तादाद घटकर 21 प्रतिशत रह गयी है। यानी, 3 प्रतिशत लोग तथाकथित “स्वरोज़गार” में चले गये, जिसका अर्थ कम-से-कम मेहनतकश आबादी के लिए अर्द्ध-बेरोज़गारी व पूर्ण बेरोज़गारी ही होता है। “स्वरोज़गार” की श्रेणी, यानी मोदी के पकौड़ा-विक्रेता वाली श्रेणी, तो बनायी ही बेरोज़गारी को छिपाने और पूँजीवादी सरकार को अपनी अकर्मण्यता और नाकामी को छिपाने के लिए गयी थी। 2022 में ही शहरी युवाओं में 17.2 प्रतिशत बेरोज़गार थे, जबकि ग्रामीण युवाओं में 10.06 प्रतिशत बेरोज़गार थे। लेकिन वास्तव में ग्रामीण युवाओं का आँकड़ा भी सच्चाई को छिपाता है। वजह यह कि गाँव में लोगों की एक अच्छी-ख़ासी तादाद बेरोज़गारी की स्थिति में परिवार की छोटे पैमाने की खेती में ही कुछ मदद करते हैं। कहने को यह आबादी खेती में रोज़गारशुदा होती है, लेकिन वास्तव में उसकी वहाँ ज़रूरत नहीं होती है और वह खेती के लिए फ़ाज़िल ही होती है। लेकिन यह चीज़ बेरोज़गारी के स्तर को छिपा देती है।
जहाँ तक सकल घरेलू उत्पाद, यानी, जीडीपी, यानी देश में वस्तुओं व सेवाओं के कुल उत्पादन के मूल्य, में वृद्धि का प्रश्न है, तो वास्तविक जीडीपी दर खुद भाजपा नेता सुब्रमन्यम स्वामी द्वारा पेश आँकड़ों के अनुसार 2014 से 5 प्रतिशत से ज़्यादा कभी नहीं हुई है और 2016 से यह औसतन 3.7 प्रतिशत के करीब रही है। स्वयं मोदी सरकार के आँकड़ों के अनुसार, ये जारी तिमाही में 7.3 प्रतिशत से घटकर 6.7 प्रतिशत रह गयी है। लेकिन ये आँकड़े ही फ्रॉड हैं। स्वयं एशियन पेण्ट्स जैसी एक बड़ी पूँजीवादी कम्पनी के सीईओ ने बयान दिया कि उनकी समझ में नहीं आता कि मोदी सरकार के जीडीपी वृद्धि के आँकड़े कहाँ से आ रहे हैं, क्योंकि जो अर्थव्यवस्था के उत्पादक सेक्टर हैं, उनमें तो हालत दयनीय है। वजह स्पष्ट है। आँकड़ों की हेराफेरी के अलावा, जीडीपी के बढ़े हुए आँकड़े जीडीपी के आकलन में ग़ैर उत्पादन क्षेत्र को जोड़ने के परिणाम हैं। इसे हम इस बात से समझ सकते हैं कि देश में सभी वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन से होने वाली कुल आय और देश में होने वाले कुल ख़र्च के बीच आँकड़ों में तालमेल होना चाहिए। मतलब, कोई बेच रहा है तो इसीलिए बेच रहा है कि कोई ख़रीद रहा है। बिकवाली से आमदनी और कुल ख़र्च के बीच बहुत अन्तर नहीं हो सकता है। हर देश के राष्ट्रीय एकाउण्ट में दोनों एकदम बराबर नहीं निकलते, क्योंकि आँकड़े हमेशा अपूर्ण होते हैं। लेकिन दोनों के बीच एक तालमेल होता है। लेकिन क्या भारत के जीडीपी के आँकड़ों के साथ ऐसा है। इण्डियन नेशनल स्टैटिस्टिक्स ऑफिस के आँकड़ों के अनुसार, समस्त वस्तुओं व सेवाओं से होने वाली आय में वृद्धि की दर है 7.8 प्रतिशत (अप्रैल-जून, 24 के बीच) और इसी दौर में कुल ख़र्च में वृद्धि की दर है 1.4 प्रतिशत! अब देखते हैं उन अनुत्पादक क्षेत्रों में मुनाफ़ाखोरी के आँकड़े जो वास्तव में समाज में कुल समृद्धि के उत्पादन में कोई इज़ाफ़ा नहीं करते हैं, बस एक वर्ग से दूसरे वर्ग के बीच मूल्य के स्थानान्तरण का काम करते हैं, यानी पैदा हो चुके और विनियोजित हो चुके बेशी मूल्य का पूँजीपति वर्ग के विभिन्न हिस्सों में बँटवारा और साथ ही जनता की आमदनी से कटौती कर पूँजीपतियों को मूल्य स्थानान्तरण। ये सेक्टर हैं वित्त का सेक्टर, बैंकिंग सेवाओं व रियल स्टेट का सेक्टर, आदि, जो ब्याज, कमीशनखोरी, लगानखोरी पर आधारित है। ये समाज की कुल पैदावार में कुछ भी नया नहीं जोड़ते हैं, बस ‘बैठे परचूनिये के समान इधर का माल उधर और उधर का माल इधर करते हैं’। इन सेक्टरों में वृद्धि दर क्या थी? 12.1 प्रतिशत! यानी, जीडीपी के आँकड़ों को गुब्बारे की तरह फुलाने में इसकी भी एक भूमिका है।
अगर जीडीपी की वृद्धि दर भारत में वाकई असल उत्पादक अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को दिखलाता तो इसकी झलकी हमें रोज़गार की दर में भी दिखलायी पड़ती। यह वृद्धि हूबहू जीडीपी वृद्धि दर से कम होती, क्योंकि पूँजीपति आपसी प्रतिस्पर्द्धा और मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के कारण लगातार मशीनों व नयी तकनोलॉजी पर निवेश बढ़ाते हैं और इसलिए हर नया निवेश पहले की ही दर से नौकरियाँ नहीं पैदा करता है। लेकिन इसके बावजूद अगर कुल पूँजी निवेश में विस्तार मशीनों पर निवेश बढ़ने से तेज़ दर से हो रहा है, तो यह रोज़गार सृजन की सकारात्मक दर में दिखायी देगा। क्या ऐसा है? नहीं! रोज़गार सृजन दर है 0! और जीडीपी वृद्धि दर है 7.3 या 6.7 प्रतिशत! इसका अर्थ है कि जीडीपी की यह दर वास्तव में आँकड़ों में हेर-फेर करके और अनुत्पादक क्षेत्रों को जीडीपी की वृद्धि दर में शामिल करके हवा में बनायी गयी है, ताकि देश की जनता को मूर्ख बनाया जा सके। जनता तो जनता ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप का नेतृत्व तक ऐसे आँकड़ों को इस बात का सबूत मानता है कि आज भारत में कोई पूँजीवादी आर्थिक संकट नहीं है! लेकिन ताज्जुब की कोई बात नहीं है क्योंकि आम तौर पर जनता में भी पढ़े-लिखे लोग जितनी समझदारी रखते हैं, ‘प्रतिबद्ध-ललकार’ ग्रुप का नेतृत्व उतनी समझदारी भी नहीं रखता है। यह पहले भी कई बार साबित हो चुका है और इसके नेता सुखविन्दर बार-बार आये-दिन इसे साबित करते रहते हैं। बहरहाल, सच्चाई यह है कि आँकड़ों का आकलन सही वैज्ञानिक पद्धति से किया जाय, तो भारत में वास्तविक उत्पादन अर्थव्यवस्था के आधार पर, जीडीपी वृद्धि दर 3 प्रतिशत के आस-पास ठहरती है। अगर मुद्रास्फीति से इसे सही ढंग से प्रतिसन्तुलित जाय तो यह इससे भी कम निकलेगी। यानी, वास्तव में देखें, तो भारत की अर्थव्यवस्था दीर्घकालिक मन्दी से ही गुज़र रही है।
अब अगर राजनीतिक तौर पर करें, तो पिछले 100 दिनों में मोदी सरकार के बर्ताव के कुछ प्रमुख तत्वों की बात की जा सकती है। पहला तत्व तो यह है कि मुसलमान आबादी के साम्प्रदायिक फ़ासीवादी दमन को कानूनी और विधिक रूप देने के प्रस्तावों से मोदी सरकार बार-बार पीछे हटती रही है। चाहे वह सीएए-एनआरसी का ज़िक्र करना बन्द करना हो, चाहे वह “समान” नागरिक संहिता को देश के पैमाने पर लागू करने के साम्प्रदायिक फ़ासीवादी फैसले को ठण्डे बस्ते में डालना हो, वक़्फ़ बोर्ड सम्बन्धी संशोधनों को संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजने का सवाल हो। हमने पहले भी कहा था कि साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति के इन कोर प्रतीकात्मक प्रश्नों पर मोदी सरकार कदम पीछे ले सकती है क्योंकि नीतीश-नायडू की बैसाखी के साथ इन क़दमों पर अमल टेढ़ी खीर है। इससे मोदी की फ़ासीवादी सु्प्रीम लीडर यानी ‘फ्यूहरर’ की छवि में भी गिरावट आ सकती है और आयी भी है। यह गिरावट तो चुनावी नतीजों के सामने आने के साथ ही शुरू हो गयी थी। हालाँकि इसे फ़ासीवाद के कमज़ोर होने की निशानी के तौर पर कोई मूर्ख या अज्ञानी व्यक्ति ही देखेगा। क्योंकि वास्तव में सड़कों पर, ज़मीनी स्तर पर ‘गोरक्षा’ नाम पर मॉब लिंचिंग, मुसलमानों के ख़िलाफ़ साम्प्रदायिक माहौल बनाने (जैसा कि शिमला में मस्जिद के मसले पर देखा जा सकता है), बुलडोज़र राज, और अलग-अलग मसलों को बहाना बनाकर मुसलमान जनता पर फ़ासीवादी गुण्डा गिरोहों के हमले में कोई कमी नहीं आयी है। उल्टे कुछ मायनों में उनमें बढ़ोत्तरी भी हुई है। राज्यसत्ता में फ़ासीवादी पकड़ को बनाये रखने और बढ़ाने के संघ परिवार के प्रयासों में भी कोई कमी नहीं है। मसलन, देश के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के घर मोदी का गणेश पूजा में जाना, विहिप के कार्यक्रमों जजों का शामिल होना, पुलिस, सशस्त्र बलों में और नौकरशाही में संघी तत्वों की पकड़ का स्पष्ट तौर पर सामने आना, अपने आप में इसी का लक्षण है। चुनाव आयोग से लेकर ईडी व सीबीआई तक अभी भी पहले के समान मोदी सरकार के इशारों पर ही काम कर रहे हैं। महाराष्ट्र में चुनावों की घोषणा न करना इसी का एक अंग था। ये सारे राज्यसत्ता के समूचे उपकरण में फ़ासीवादी शक्तियों की व्यवस्थित घुसपैठ को ही दिखलाता है, जो राज्यसत्ता के आन्तरिक ‘टेकओवर’ की प्रक्रिया का ही एक अंग है। निश्चित ही, चुनावी प्रदर्शन में गिरावट के कारण भाजपा को अपने खेमे में मची उथल-पुथल पर नियन्त्रण करने के लिए भी कुछ प्रयास करना पड़ रहा है।
लेकिन जहाँ तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भाजपा के रिश्तों में कमी आने के दावों का सवाल है, तो यह दावा वही लोग कर रहे हैं, जो भारत में फ़ासीवाद की पूरी कार्यप्रणाली में संघ, उसके चुनावी फ्रण्ट यानी भाजपा और उनके आपसी तालमेल की गतिकी के बारे में कोई जानकारी नहीं है। दबे स्वरों में संघ के नेताओं द्वारा मोदी सरकार की जो घुमाफिराकर आलोचना की गयी है, उसका कारण यह है कि संघ अपनी छवि को चुनावी उतार-चढ़ाव में घसीटे जाने का हमेशा से ही प्रतिरोध करता रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इतिहास और उसकी राजनीति पर काम करने वाले एक अध्येता धीरेन्द्र कुमार झा ने इस बात को सटीकता से पकड़ा है। झा कहते हैं के संघ द्वारा मोदी सरकार की बिना नाम लिये और घुमा-फिराकर की गयी आलोचना के पीछे संघी फ़ासीवाद का विशिष्ट चरित्र है, जिसे बहुत से मुँह वाले राक्षस के रूप में देखा जा सकता है, जिसका हर मुँह अलग-अलग बातें किया करता है। झा कहते हैं, “अब जबकि भाजपा बहुमत के आँकड़े तक नहीं पहुँच पायी, तो आरएसएस नेताओं द्वारा इसकी असफलताओं के बारे में बात की जा रही है। जब भागवत ने चुनाव अभियान में गरिमा की कमी की बात की थी, तो वास्तव में वह मुख्य चुनाव अधिकारी के रूप में बात कर रहे थे, और इस प्रकार अपने आपको एक नैतिक प्राधिकार की स्थिति में रख रहे थे। ऐसा इसलिए है कि जनता के बीच मौजूद भावना के साथ अपने आपको खड़ा दिखलाना आरएसएस के लिए प्रासंगिक बने रहने के लिए आवश्यक है।” वास्तव में, पहले भी फ़ासीवादी सरकार से अलग-अलग समय पर दूरी दिखाने का काम आरएसएस करती रही है क्योंकि यह फ़ासीवाद के एक राजनीतिक व विचारधारात्मक शक्ति के रूप में वर्चस्व को बनाये रखने के लिए आवश्यक है। इसे जो लोग भाजपा और आरएसएस के झगड़े के तौर पर देखते हैं, वे मासूम हैं। साथ ही, यह भी नहीं भूलना चाहिए कि फ़ासीवादियों के भीतर भी फ़ासीवादी शक्ति और संगठन के भीतर अपने प्रभाव को बनाने के लिए प्रतिस्पर्द्धा होती है। इसलिए भागवत जो महाराष्ट्रियन ब्राह्मण संघी लॉबी को प्रधानता देते हैं, जबकि हालिया वर्षों में दत्तात्रेय होसबोले (एक कन्नडिगा ब्राह्मण) और बी. एल. सन्तोष के संघी सांगठनिक पदानुक्रम में सीढ़ियाँ चढ़ना, इस लॉबी को अखरता रहा है। लेकिन, जैसा कि झा ने दलील पेश की है, यह ‘परिवार के भीतर का झगड़ा’ है। इसे संघ व भाजपा के रिश्ते ख़राब होने और संघ के कमज़ोर होने के तौर पर नहीं देखा जा सकता है। सत्ता के लिए ऐसा संघर्ष संघ और भाजपा दोनों में ही पहले भी होता रहा है और फ़ासीवादियों के संगठन में हमेशा ही होता है। साथ ही, चुनावों में संघ के कार्यकर्ताओं ने प्रचार कम किया यह भी एक मिथक है, जिसे कई अतिआशावादी लिबरल फैलाते रहते हैं। झा बताते हैं कि तथ्यत: यह बात ग़लत है। ऐसा इसलिए भी है कि भाजपा के कार्यकर्ताओं का एक विचारणीय रूप से बड़ा हिस्सा सीधे आरएसएस का प्रचारक भी है।
कुल मिलाकार, राजनीतिक तौर पर, यह कहा जा सकता है कि भाजपा को स्पष्ट जनादेश न मिलने के कारण एक तात्कालिक झटका अवश्य लगा है, और जैसा कि ऐसे सभी तात्कालिक झटकों के मौकों पर होता है, इसके कारण फ़ासीवादी संगठन में आन्तरिक सत्ता प्रतिस्पर्द्धा भी बढ़ जाती है। लेकिन इसे फ़ासीवादी शक्तियों के विचारधारात्मक व राजनीतिक तौर पर कमज़ोर होने, राज्यसत्ता के ढाँचे और समाज के पोरों में उसकी पहुँच व पकड़ के कम होने के तौर पर देखना राजनीतिक नौसिखुआपन होगा और फ़ासीवाद-विरोधी शक्तियों की चौकसी को कम करने का काम करेगा।
आर्थिक और राजनीतिक, दोनों ही पैमानों पर, मोदी सरकार के 100 दिन जनता के लिए ‘फ़ासीवादी दण्ड’ के जारी रहने के 100 दिन ही साबित हुए हैं, चाहे उसके प्रतीतिगत रूपों में कुछ बदलाव क्यों न आये हों। यह ‘दण्ड’ जनता को तभी मिलता है, जब उसकी जनगोलबन्दी, उसके जन संगठन और उसका क्रान्तिकारी हिरावल तैयार नहीं हो पाता है और नतीजतन आर्थिक व राजनीतिक संकट क्रान्तिकारी मोड़ लेने के बजाय एक प्रतिक्रियावादी मोड़ लेता है। इससे देश के मेहनतकशों व मज़दूरों के लिए सबक वही है: एक देशव्यापी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण और गठन के कार्य को अधिकतम सम्भव तेज़ी से आगे बढ़ाना और जनता के विभिन्न हिस्सों और वर्गों के जुझारू क्रान्तिकारी जनान्दोलनों को जनता के ठोस मुद्दों ठोस नारों व ठोस कार्यक्रम के साथ खड़ा करना। ये ही आज के प्रमुख राजनीतिक कार्यभार हैं।
मज़दूर बिगुल से साभार