*सुसंस्कृति परिहार
ये हैं बाबा नागार्जुन ।ऐसे कवि जो सच कहने में हकलाते नहीं वे कहते हैं –जब जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं।वस्तुत:ये स्वीकारते हुए कि मैं जनकवि हूं।यही जनकवियों की पहचान है जो चुप हैं,खौफ़ के साए में हैं वे जनकवि हो ही नहीं सकते। नागार्जुन ने तो देश के लोकप्रिय प्रधान-मंत्री जवाहर लाल नेहरू को भी नहीं छोड़ा उन्हें सावधान करना अपना कर्तव्य समझा। पंडित जी को सावधान करते हुए कहते हैं कि-
‘सावधान ओ पंडित नेहरू !
पैर तुम्हारे धंसे जा रहे डालर की दलदल में प्रतिपल।’
अपने देश में इंगलैण्ड की महारानी के आने पर स्वागत की धूमधाम देखकर नागार्जुन ने लिखा –
‘आओ रानी हम ढोएंगे पालकी,
यही हुई है राय जवाहर लाल की’।
उधर देखें जब कवि प्रदीप ‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’- जैसी कविता लिख रहे थे तो नागार्जुन की मर्म भेदी दृष्टि ‘गांधी की चेलों की लीला’ को देख रही थी-
सीटों का हित साध रहे है तीनों बंदर बापू के
युग पर प्रवचन लाद रहे हैं तीनों बंदर बापू के
नागार्जुन की पहचान उस काल के उन बिरले कवियों में है,जो उन व्यवस्थाओं को भांप लेते हैं जो जन जन की पीड़ा का सबब बन जाती हैं । आज हम जिस तरह पूंजीपतियों की चाटुकारी सरकार देख रहे हैं वह बाबा ने बहुत पहले ही अपनी दूरदृष्टि से देख लिया था। देश पर लंबे समय राज करने वाले नेहरू-गांधी परिवार के तीसरे प्रधानमंत्री राजीव गांधी को अस्सी के दशक में जाकर यह रहस्य पता चला पाया कि केंद्र से अगर एक रूपया भेजा जाता है तो आम आदमी तक उसमें से सिर्फ पन्द्रह पैसे ही पहुंचते हैं। आजकल के नेता अगर 1958 ई. में लिखी गई बाबा की कविता को पढ़ लेते तो यह बात स्पष्ट हो जाता कि——
नया तरीका अपनाया है राधे ने इस साल
दो हजार मन गेहूं आया दस गांव के नाम
राधे चक्कर लगा काटने सुबह हो गई शाम
सौदा पटी बड़ी मुश्किल से पिघले नेता राम
पूजा पाकर साध गए चुप्पी हाकिम हुक्काम
भारत सेवक जी को था अपनी सेवा से काम
खुला चोर बाजार बढ़ा चुनी चोकर का दाम
नागार्जुन इन पक्तियों में कालाबाजारी की व्यवस्था की पूरी प्रक्रिया का खुलासा करते हैं और कालाबाजारी और राजनीति के गठजोड़ को बहुत सहजता से जनसामान्य को भी समझाने की कोशिश की है यहां तक नागार्जुन ने माना है देश की नायक जनता तो निरंतर शोषित है, इसलिए उनकी बहुसंख्यक कविताओं में दरअसल इसी जनता के सुख-दुख और संघर्ष को ग़म और आक्रोश मिश्रित लेखन में बाबा ने उजागर किया है । कहीं कहीं तो वे व्यंग्य के साथ हास्य की बौछार करते हैं कि बड़े बड़े नेता सिर्फ मुस्कराकर इस गहरी चोट को भुलाने की भरसक चेष्टा करते हैं लेकिन बाबा हैं कि कहीं कोई अवसर चूकते नहीं। ध्यान से देखें तो नागार्जुन का व्यंग्य इतना सपाट नहीं है, वह गहराई में उतरकर अर्थछवियों की पड़ताल करते हैं। नेताओं के टिकट पाने का दृश्य तो प्रसिद्ध मुहावरे को नया संदर्भ देता प्रतीत होता है-
‘श्वेत-स्याम-रतनार अंखिया निहार के
सिंडकेटी प्रभूओं की पग-धूर झार के
लौटे हैं दिल्ली से कल टिकट मार के
खिले हैं दांत ज्यों दाने अनार के
आये दिन बहार के’
नागार्जुन की पहचान उस काल के उन बिरले कवियों में है, जिन्होंने कांग्रेस और इंदिरा गाँधी दोनों को सदैव अपने व्यंय बाणों का निशाना बनाए रखा-
‘जाने, तुम कैसी डायन हो!…
जय हो जय हो, हिटलर की नानी की जय हो!..
इसी तरह बड़े दुलार से वे प्रधानमंत्री इंदिरा जी को फटकार मंच पर आमने-सामने बैठकर लगा देते हैं ऐसे ही एक कवि सम्मेलन में सामने बैठी इंदिरा जी को कहते हैं—
क्या हुआ आपको?
क्या हुआ आपको?
सत्ता की मस्ती में
भूल गई बाप को?
इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको?
शासन की ताकत से वे बिल्कुल भी नहीं डरते और ललकारते रहे हैं-
जनकवि हूँ,क्यों चाटूँगा मैं थूक तुम्हारी
श्रमिकों पर क्यों चलने दूँ, बंदूक तुम्हारी
उनकी एक कविता है शासन की बंदूक। जिसमें वे 1966में वर्तमान शासन की व्यवस्थाओं से घुटन महसूस करते हुए बड़े ही मार्मिक अंदाज में यह बताने की चेष्टा करते हैं कि आम जनता की स्थिति कंकालों की हूक जैसी है और जिस पर आसमान सी विकट शासन की बंदूक का भय है वे हिटलरी गुमान पर जनता के थूकने का जिक्र भी करते हैं और चुप्पी साधने वालों पर करारी चोट करते हैं।वे आगे कहते हैं
सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक
जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक
उन्हें जनता की ताकत पर भरोसा है इसलिए जनवाणी को अपनी वाणी के ज़रिए शासन तक उनकी आवाज पहुंचाने में कोताही नहीं बरतते।आज के हालात पर यह कविता बहुत प्रासंगिक है।सतत परेशानियों में आकंठ डूबी जनता के सिर पर यह बंदूक तनी हुई है। पुलिस अंग्रेजी शासनकाल की तरह व्यवहार कर रही है।जिनके बूटों से कीलित है भारत मां की छाती कविता के कुछ अंशों में आज का यथार्थ ,आप नज़र आता है-
जिनको है मालूम ख़ूब, शासक जमात की पोल
मंत्री भी पीटा करते जिनकी ख़ूबी के ढोल
युग को समझ न पाते जिनके भूसा भरे दिमाग़
लगा रही जिनकी नादानी पानी में भी आग
पुलिस महकमे के वे हाक़िम, सुन लें मेरी बात
जनता ने हिटलर, मुसोलिनी तक को मारी लात
अजी, आपकी क्या बिसात है, क्या बूता है कहिए
सभ्य राष्ट्र की शिष्ट पुलिस है, तो विनम्र रहिए
नागार्जुन की दृष्टि में कोई दुविधा नहीं है,यही कारण है कि खतरनाक सच और साफ-साफ बोलने का वे खतरा उठाते है।’ अपनी एक कविता “प्रतिबद्ध हूँ” में उन्होंने दो टूक लहजे में अपनी दृष्टि को यूं स्पष्ट कर दिया है-
‘प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, प्रतिबद्ध हूँ-
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ!’
उनकी कविताओं पर अपनी टिप्पणी में डाॅ अनिल कुमार सिंह लिखते हैं उनमें प्रतिगामी मूल्यों के प्रति तिरस्कार भाव है। उनमें स्वभावतः शोषण के विरुद्ध आक्रोश, घृणा, मोहभंग तो है ही, साथ ही जीवट और जुझारूपन से उपजा आशावादी स्वर भी है, जिसके कारण वे दीन-हीन जनता से सहानुभूति रखते हैं और उनका सत्ताधारियों एवं शोषकों के विरुद्ध प्रतिरोध के लिए आह्वान करते हैं। शोषक चाहे जिस वर्ग का हो, वे उसे नहीं माफ नहीं करते। इस प्रकार कबीर की तरह वे किसी प्रकार के भी अत्याचार पर करारी चोट करते हैं-‘तुमसे क्या झगड़ा है/ हमने तो रगड़ा है,इनको भी,उनको भी !’
कुल मिलाकर बाबा नागार्जुन का जनधर्मी लेखन उन्हें पूरी तरह एक महान जनवादी कवि के रुप में पेश करता है उन्होंने विशाल साहित्य सृजन किया जिसमें उनके गहन अध्ययन की विरल छाप मिलती है घुमक्कड़ी और फक्कड़ जीवन ने ना केवल उन्हें जन जन से जोड़ा बल्कि सहज सरल रुप से नाचते गीत गाते वे जनबल से जुड़े ।आज उनकी ये रचनाएं जुझारू साथियों का ,कवि , लेखकों,संस्कृति कर्मियों का मनोबल बढ़ाती हैं। प्रतिबद्ध हूं ।हां मैं प्रतिबद्ध हूं।जनकवि हूं साफ कहूंगा क्यों हकलाऊं? ऐसे बाबा नागार्जुन को उनके जन्मदिवस 30जून पर क्रांतिकारी सलाम।