अग्नि आलोक
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खुले झूठ को,जहन की लूट को, मैं नहीं मानता 

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,,मुनेश त्यागी

आदमी मुंह हाथों पैरों से पैदा हुआ था तुम कहो
सीता धरती में गड़े घड़े से निकली थी तुम कहो
आदमी सूरज को निगल गया था तुम कहो
आदमी कान से पैदा हो सकता है तुम कहो
मनुष्य मछली से जन्मा था तुम कहो
इस खुले झूठ को, जहन की लूट को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।

रावण के पास हवाई जहाज था तुम कहो
हनुमान पहाड़ उठा लाया था तुम कहो
बच्चे के सिर हाथी का सिर रखा था तुम कहो
अहिल्या पत्थर की हो गई थी तुम कहो
पत्थर पानी पर तैर सकते हैं तुम कहो
इस खुले झूठ को, दिमाग की लूट को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।

यहां कहीं क्षीर सागर था तुम कहो
शेषनाग रही की रस्सी था तुम कहो
दुनिया में राहु और केतु हैं तुम कहो
सूरज पृथ्वी के चक्कर काटता है तुम कहो
पहाड़ उंगली पर उठाया जा सकता है तुम कहो
कुतर्क की बात को, गपोड़ की बात को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।

सांप्रदायिक ताकतें देशभक्त थीं तुम कहो
माफी मांगूं वीर था तुम कहो तुम कहो
गांधी के हत्यारे को देशभक्त तुम कहो
शोषकों को भारत के उद्धारक तुम कहो
लुटेरे शासकों को जनता के रक्षक तुम कहो
इस गलत बात को, कोरे झूठ की बात को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।

यहां समता है, समानता है तुम कहो
यहां सामाजिक न्याय है तुम कहो
यहां आपसी भाईचारा है तुम कहो
यहां सामाजिक सौहार्द है तुम कहो
यहां न्याय का शासन है तुम कहो
इस सरासर झूठ को, झूठ की बात को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।

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