मनीष सिंह
पुरानी कथा है, एक बार दो मित्र, ज्योतिषी के पास गए. ज्योतिषी ने कुंडली देखी, हाथ और ललाट का अध्ययन किया और फिर बांचना शुरू किया –
- पहले को बताया – तुम्हारा शानदार वक्त आ रहा है. तगड़ा राजयोग है, छह माह में राजा बन जाओगे… जातक की आंखों में चमक आई, दक्षिणा दी, और चलता बना.
- दूसरे को बताया- जीवन कम बचा है. छह माह में मृत्यु हो जाएगी. ईश्वर का नाम लो, और परलोक सुधारो..उदास होकर दूसरा जातक घर को चला.
भविष्यवाणी ने दोनों का जीवन बदल दिया था. सुबह उठना, प्रार्थना, पूजन, लोगों की सेवा करना, मेहनत से जीवन जीना, मीठा बोलना, प्रेम और आश्वस्ति देना… एक ने बचे जीवन को ईमान से जीने का यत्न किया.
दूसरा तो राजा ही बनने वाला था. जब पूरा राज्य, धन, ऐश्वर्य मिलना बदा हो, तो पूर्व की थोड़ी बहुत धन सम्पत्ति क्या ही बचाना. सुबह से मदिरा पान में लग जाता. लोगों से लड़ता, शेखी बघारता, गालियां देता, कष्ट देता. किसी को कुछ न समझता. ठगी, झूठ, प्रपंच और दुष्टता में प्रवीण होता गया.
साल भर हो गया. दोनों जिंदा थे, और जीवन की वही चाल थी. जिसे मरना था, वह हृष्ट पुष्ट, जिंदा था, हंस खेल रहा था. एक बार पैर में चोट जरूर लगी, पर मरहम पट्टी से ठीक हो गयी. जिसे राजा बनना था, वह और भी फकीर हो गया था। लोग उसे दूर से देखकर भगा देते. सदा नशे में रहता.
एक बार गांव के बाहर, एक पेड़ के नीचे बेसुध पड़ा था कि वहां दबी एक सन्दूकची दिखी. उसमें सोने की मुहरें थी. वह भी मदिरापान में खर्च हो गयी.
भविष्यवाणी फलीभूत न हुई तो दोनों पहुंचे ज्योतिषी के पास. ज्योतिषी प्रकांड ज्ञानी था, उसका कहा कभी टलता न था तो भौचक रह गया- अपनी अपनी कथा सुनाने को कहा. दोनो ने विस्तार से बताया. ज्ञानी ने आंखें बंद की, और फिर उच्छवास छोड़कर बोले – ‘कर्मों से प्रारब्ध बदला जा सकता है.’
तुम्हारे कर्म अच्छे थे, मौत टलकर मामूली चोट में बदल गई. जिसे जब राजपाट मिलना था, उस मुहूर्त में महज कुछ सोने के सिक्कों तक ही रह गया. मायावती को देखता हूं, तो यह किस्सा याद आता है. उन्हें प्रधानमंत्री बनना था और सब कुछ सेट था.
उत्तर भारत में कांशीराम की बनाई जमीन थी, डेडिकेटेड वोट बैंक था. फिर दूसरे समाज और जाति का वोट बैंक भी बहनजी से जुड़ने में गुरेज नहीं कर रहा था.
वे सबसे बड़े प्रदेश में, केंद्रीय राजनीतिक भूमिका थी. पार्टी में सुप्रीम थी. बताने को एक नोबल मिशन था, इसलिए उनकी भावी सत्ता का एक नैतिक आभामंडल भी था. हाथ में उम्र थी तो प्रधानमंत्री बनना, बस वक्त की बात थी लेकिन वे महज एक बार की मुख्यमंत्री बनकर रह गयी.
छै माह वाले कार्यकाल मैं नहीं गिनता. दरअसल मायावती को जितनी राजनीतिक पूंजी मिली, उन्होंने सब गंवा दी. किन कर्मों से उनका प्रारब्ध बदला, क्यों राजगद्दी की जगह मुहरों की सन्दूकची भर मिली, इसका राज तो भाजपा जाने..और मायावती जाने लेकिन उनका राजनीतिक अवसान, महज निजी पराभव नहीं है. इसकी गूंज, इसका क्रंदन, इसका शोक उनके स्वयं के आकार से बहुत बड़ा है.
मायावती, सिर्फ एक प्रधानमंत्री नहीं होती. वे सदियों के शोषण की व्यवस्था पलट जाने का प्रमाण होती. ये हिंदुस्तान में एक नए युग का सूत्रपात होता. प्रशासनिक दक्षता की उनमें कमी नहीं तो उस पद पर वे समदर्शिता बरतती, तो बनने वाले अलग किस्म के हिंदुस्तान की देवी होतीं.
तो मायावती ने अपना कॅरियर ही सत्यानाश नहीं किया, एक वैकल्पिक सामाजिक व्यवस्था के सपने की भी बोली लगा दी. अंतिम छोर पर टिमटिमाती आंखों से उन्हें ताकते बैठे लोग, जो राजनीति की निटी-ग्रिटी नहीं समझते, उन्हें आज भी माया में मसीहा दिखता है.
जो हाथी पर आंख मूंदकर बटन दबाते है..वो समाज का सबसे ज्यादा दबा कुचला हिस्सा है. बड़े भोले, आशाओं से भरे लोग हैं. उन्हें देखता हूं, तो कभी मायावती पर क्रोध आता है, कभी इन लोगों के भोलेपन पर तरस आता है. उस सपने को फिर जोड़ने के लिए, अब किसी कांशीराम को फिर से जमीन पर उतरना होगा. फिर से 40 साल लगेंगे.
ये लोग 40 साल पीछे धकेले जा चुके. और मायावती.. वे मुहरों की सन्दूकची छाती से लगाये, राजसिंहासन के सामने झुकी हुई हैं, जिन्हें स्टेपिंग स्टोन बनाकर, छोटे कद के बौने राजगद्दी पर चढ़ जाते हैं.