कभी कभी।
मैं खुद से पूछता हूँ
एक सवाल बार बार
की मेरी जिंदगी का मकसद है क्या ?
मैं चाहता हूँ क्या ?
मैं जानता हूँ क्या ?
मेरे पास
मेरे इस सवाल का
बस एक ही जवाब होता है
कि
मैं कुछ नहीं जानता
मैं कुछ नहीं जानता
मेरी जानकारियाँ सीमित हैं
लेकिन
मेरी चाहते और मेरी हसरतें सीमित नहीं हैं
भविष्य को लेकर देखे गए मेरे ख्वाब भी
असीमित हैं
मैं चाहता हूँ कि समय का पहिया
उल्टा घूम जाए
और हम उस काल में पहुंच जाए
जब यह सम्पूर्ण मानव जाति
इथोपिया में बसने वाली
एक मामूली आदिम जनजाति भर थी
मैं चाहता हूँ फिर से शुरू हो
सभ्य होने की इंसानी होड़
मनुष्य के विकासवाद की दौड़
और फिर से वह दौर आये
जब हमने सबसे पहले
समाजों के महत्व को समझा था
एक दूसरे को करीब से परखा था
मैं चाहता हूँ
फिर से वह हिमयुग आये
जिसने हमारी
शिथिल प्रवित्ति को तोड़ा था और
अफ्रीका से बाहर की ओर
हमारे कदमों को मोड़ा था
और हमें दुनिया के बाकी इलाकों से जोड़ा था
यहीं से
हमारी समझ हमारा ज्ञान
विकसित हुआ
यहीं से
हमारी खोजों का सिलसिला
परिष्कृत हुआ
विकासवाद के इसी दौर में
जब हम
जोड़ तोड़ और होड़ की दौड़ का हिस्सा बने
तब हमने आग की खोज की
पहिये पर सवार हुए
लिखना सीखा बोलना सीखा
चलना सीखा हंसना सीखा
धातु से हथियार बनाये
खेती के औजार बनाये
मिट्टी से घर घरों से गांव गांव से कस्बे
और कस्बों में बाजार सजाये
अब तक की हमारी इस विकासयात्रा के दौरान
हमें कहीं कोई पालनहार न मिला
हम भटकते फिरे लेकिन हमें
कहीं कोई मददगार न मिला
इसी बीच
न जाने कब
पालनहारों के अनगिनत गिरोह
हमारी संस्कृतियों के खोल में घुस कर
हमारी सभ्यतायों का किस्सा बन गये
और इसी बीच
न जाने कब
मददगारों के अलग अलग बेहिसाब चेहरे
हमारे अवचेतन में घुसकर
हमारी चेतना का हिस्सा बन गए
खानाबदोश से जब हम समझदार हुए
संस्कृति और सभ्यता के पहरेदार हुए
तब फुरसत के क्षणों में
खयालों के हवाई घोड़े दौड़ाते हुए
हमनें कुछ और विचित्र खोजें की
इसी दौर में
हमने जाना
की कोई तो है
जिसने हमें पैदा किया
कोई तो है जिसने हमारे लिए
आकाश को छत बनाया
कोई तो है जिसने हमारे लिए
नदी पहाड़ और झरने बनाये
तब हमनें यह भी जाना कि
किसी के इशारों पर ही
हमारी सांसे चलतीं हैं
मरने के बाद हमारे जिस्म से
हमारी रूह निकलती है
भूत, प्रेत, आत्मा, और मजहब
जादू, टोना, बलि और धर्म
यह सब भी हमारी नायाब खोजें ही तो थीं..!
शैतान ,जिन्न, आदम और हौवा
अल्लाह, गॉड, भगवान ,यहोवा
यह सब भी
हमारे नवीन आविष्कार ही तो थे..!
अपने इन्हीं महान खोजों को आगे बढ़ाते हुए हमने
व्रत त्योहार और रिवाजों का आगाज किया
रोजा हज और नमाजों का ईजाद किया
खेती की शुरुआत के बाद ही
जमीन से बुतों की फसलें उग आईं….!
और आसमान से नबियों की नस्लें उग आईं..!
फिर हम
इन्हीं आसमानी नस्लों और जमीनी फसलों से
डरने लगे
और इन्ही नबियों और बुतों की खातिर एक दूजे से
लड़ने लगे…!
डरने और लड़ने के इसी दौर में हमने
पीर दरगाह और मुर्शीदों की अनगिनत क़िस्में रच डाली…!
पन्थ, जाति और अक़ीदों की बेतहाशा रस्में रच डालीं
…!
कल्पनाओं की इस महान खोज में …!
हम आगे बढ़े और
बेजुबान पत्थरों में अनगिनत खुदाओं को तलाश लिया…!
फिर उन पत्थरों से हमने मनपसंद बुतों को तराश लिया….!
और इन बुतों के अंदर
रूह फूंकने की कला में माहिर हो गये…!
और फिर हमने
उन्ही बुतों के आगे
गिड़गिड़ाने के नए नए तिलस्म भी खोज लिए.!
आराम के पलों में हमने
ढूंढ लिए मनोरंजन के नए नए बहाने
और रच डाले तरह तरह के अफ़साने
धरती से बड़ी खोजें तो हमने आसमानों में की
हमने खोज निकाले…!
ईश्वर ,अल्लाह और भगवान..!
देवता फरिश्ते और शैतान..!
आसमानों से हमने कुछ और भी हासिल किया.!
श्राप, मन्त्र और वरदान..!
वेद, बाइबल और कुरान..!
आसमान से मिले इसी ज्ञान से
हमे मालूम हुआ कि
ब्रह्म ही सत्य है और मनुष्य कपटी है..!
हम जिसपर रहते हैं वो धरती चपटी है…!
हमारा पालनहार चारों ओर है
उसी के हाथों में हम सबकी डोर है..!
वही खिलाता है वही जिलाता है..!
पत्तों को भी वही हिलाता है..
भूखे को अन्न
और प्यासे को पानी वही पिलाता है..!
वही है जो
किसी को विपन्न और किसी को सम्पन्न बनाता है..!
वही है जो
किसी को भटकाता है
और किसी को सीधी राह दिखाता है…!
यहीं से मनुष्य के विकासवाद का पहिया
उल्टा घूमना शुरू हुआ और
पीछे मुड़कर
अंंधविश्वास की गहरी खाई में धँसता चला गया.!
परिणामस्वरूप
ख़ानाबदोश कबीलों से
समाज बन चुकी सभ्यताएं
प्रगति के मार्ग के विपरीत
अवनति की ओर जाने को तैयार हो गईं..!
और अपनी जहालत को साथ लिए
पाखण्डों की बैलगाड़ी में सवार हो गईं..!
जो लोग
जहालत की इस अवनति से निकल भागे
उन्होंने नया इतिहास रचा..!
मानवता की जमीन पर पहला पांव रखा
प्रगति के पथ पर धीमे चलते हुए
विकासवाद का नया अध्याय लिखा..!
मैं चाहता हूँ कि यह दुनिया
फिर से गोल हो जाये…!
और
धर्म की युगों पुरानी बैलगाड़ी को
खींच रहे लोग
दुनिया का चक्कर लगाकर
कोलम्बस की तरह
वापस मानवता की जमीन पर लौट आएं..!
मैं चाहता हूँ की यह दुनिया
प्रेम के भाव को समझने लगे..!
करुणा की काया में ढलने लगे
परिवर्तन के पहिये पर चढ़कर
सत्य की राह पर चलने लगे…!
मैं चाहता हूँ
शोषण की युगों पुरानी विकृति का अंत हो..!
और
सहयोग की नई संस्कृति की शुरुआत हो..!
मैं चाहता हूँ
आशाओं की नई सुबह का उदय हो..!
और
अंधकार की युगों पुरानी दुविधाएं समाप्त हो जाएं..!
मैं मानवता के उस युग का ख्वाब देखता हूँ
जहां गरीबी बेबसी और तिरस्कार न हो..!
कोई आदमी बेकार न हो लाचार न हो..!
जवां हाथों में काम हो..!
बुढ़ापे को आराम हो..!
हर आंखों में सपने हों..!
हर चेहरे पर मुस्कान हो..!
जहां सुख का सूरज न ढले..!
जहां खुशियों की शाम न हो.!
जहाँ असमतें बेची न जाएं…!
मुस्कुराहटों का कोई दाम न हो..!
कोई बेबसी में न तड़पे..!
कोई बोझिल और परेशान न हो..!
कोई भूखा न तरसे..!
..और किसी की थाली में 56 पकवान न हो..!
मै मानवता के उस युग की कल्पना करता हूँ..!
जो
करुणा मैत्री न्याय पर केंद्रित हो…!
मैं कामना करता हूँ उस युग की जहाँ..!
सद्भाभाव और सामाजिक सुरक्षा स्थापित हो.!
मैं चाहता हूँ
एक ऐसी सभ्यता
जो मानवीय संवेदनाओं पर कायम हो…!
मैं चाहता हूँ
एक ऐसी व्यवस्था
जो परस्पर सहयोग पर आधारित हो…!
मैं चाहता हूँ पूरी दुनिया से
हमेशा के लिए
मिट जाए
गरीबी भूख उदासी और कुपोषण…!
मैं चाहता हूँ पूरी दुनिया से
हमेशा के लिए लुप्त हो जाये
दुख, भय, आंसू और शोषण..!
लेकिन
यह सब होगा कैसे ?
धर्म की खूनी जंग में शामिल भीड़ को
यह कौन समझायेगा की
मानवता क्या है ?
मजहब के कंटीले बाड़ों में कैद भेड़ों को
यह कौन सिखाएगा की
जिंदगी क्या है ?
ईश्वर ,अल्लाह के नाम पर
तबाह होती पीढ़ियों को
यह कौन बतायेगा की
भविष्य क्या है ?
यह सोचकर मैं डर जाता हूँ
और खुद से पूछता हूँ
वही सवाल बार बार
की मेरी जिंदगी का मकसद है क्या ?
मैं चाहता हूं क्या ?
मैं जानता हूँ क्या ?
मेरे पास
मेरे इस सवाल का
बस एक ही जवाब होता है
कि
मैं कुछ नहीं जानता..!
मैं कुछ नहीं जानता.!
लेकिन
जब मैं देखता हूँ अपने चारों ओर
तो इस निराशा में भी
कुछ चमकती हुई उम्मीदें नजर आती हैं..!
और उन रोशन उम्मीदों की चमक में
मुझे चन्द चमकदार चेहरे दिखाई देते हैं..!
जो मेरी तरह ही ख्वाब देखते हैं
जिनकी आंखों में भविष्य के हसीन सपने हैं..!
जिनके हाथों में
फौलादी इरादे हैं..!
जिनकी सोच में
मजबूत आकांक्षाओं के साथ
कुछ ठोस योजनाएं भी हैं…!
और इन चमकते चेहरों में
उत्साह है संवेदनाएं हैं और
दुनिया बदलने की
महत्वाकांशाएँ भी हैं..!
इसलिए
ये मुट्ठीभर लोग मुझे
भेड़ों की भीड़ से अलग लगते हैं..!
यही मुट्ठीभर लोग
मुर्दों के बीच जिंदा नजर आते हैं..!
और यही वो लोग हैं जो
मुझे हमेशा ऊर्जावान बनाये रखते हैं..!
इन्हीं चमकदार चेहरों की बदौलत
सत्य की मशाल जल रही है..!
प्रेम की ऊर्जावान हवाएं चल रही हैं..!
और
परिवर्तन का चक्र धीमा ही सही मगर
घूम रहा है….!
मैं अब इतना जान चुका हूँ कि
यही वो लोग हैं
जो सत्य की
नई संस्कृति कायम कर देंगे…!
यही वो लोग हैं जो
प्रेम की नई दुनिया बसा देंगे
और यही वो लोग हैं जो
परिवर्तन की नई परम्परा विकसित कर देंगे..!
यह सोचकर मैं आश्वत हूँ
फिर भी खुद से पूछता हूँ
वही सवाल बार बार
की मेरी जिंदगी का मकसद है क्या ?
मैं चाहता हूं क्या ?
मैं जानता हूँ क्या ?
मेरे पास
मेरे इस सवाल का
अब एक ही जवाब है कि
मानवता का युग आएगा
“मानवता का युग जरूर आएगा .”
रचयिता अज्ञात
प्रस्तुकर्ता – श्री राजेंद्र तिवारी ‘भारतीय ‘, इंदौर,मध्यप्रदेश, संपर्क – 6261185 828
संकलन –निर्मल कुमार शर्मा, गाजियाबाद,