अग्नि आलोक
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 एक शाम फुरसत की पाऊँ तो गीत गढ़ूँ

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                            रामकिशोर मेहता 

हाथों का मुख से
दो जून जुड़ा संबंध रहे,
खटने से
एक शाम फुरसत की पाऊँ
तो गीत गढ़ूँ।

मन के
इस नैसर्गिक ऊबड़ खाबड़ पर
आवेगों के अनियंत्रित घोड़ों को
पकडूँ, पालूँ
फिर जीन लगाम धरूँ।

उठ रहे उद्दाम शिखर तक
स्वर क्रदन के।
कर सकूँ अनसुने
बेसुरे वाद्य यंत्र अभिनन्दन के।
अपने ही भीतर खोजूँ एक गुफा
निर्जन, निःशब्द
फिर साधना स्वर की शुरू करूँ।

तूफानी गति क्षीण हुए
इस घटाटोप दिन के
ये शायद अंतिम पल
कहीं कैद न रह जाएं मन में ही
घनीभूत आशा के बीज अचल
परती संभावनाएं जोत जोत
खूड़ों में बीज भरूँ।

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