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मध्यावधि चुनाव हुए तो राज्यों के बदल जाएंगे समीकरण

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मोदी सरकार ने अपने तीसरे कार्यकाल में एक देश एक चुनाव की ओर कदम बढ़ा दिया है। इससे जुड़ी कोविंद कमेटी की रिपोर्ट पर मंत्रिमंडल के मुहर के बाद सवाल उठ रहा है कि इसे कब कानूनी जामा पहनाया जाएगा? हालांकि, अगर एक साथ चुनाव कराने से जुड़े प्रस्ताव ने कानूनी जामा पहना तो नतीजे आने के बाद मध्यावधि चुनाव लगभग बेमानी साबित होंगे। ऐसा इसलिए कि नतीजे के बाद सरकार गिरने की स्थिति में नई सरकार को पांच साल का पूर्ण कार्यकाल नहीं मिलेगा।सरकार की योजना 2029 में साथ चुनाव कराने की है तो इसके लिए उसे अभी से प्रक्रिया शुरू करनी होगी। दरअसल, लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने के लिए सरकार को अनुच्छेद 83 और 172 में संशोधन करना होगा।

दरअसल, कोविंद कमेटी के सुझावों में कहा गया है कि एकसाथ चुनाव कराने के लिए लोकसभा, विधानसभा, स्थानीय निकाय के कार्यकाल में किसी भी सूरत में परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में अगर केंद्र, राज्य और स्थानीय निकाय में निर्वाचित सरकार अल्पमत में आने के कारण गिरने के कारण मध्यावधि चुनाव की नौबत आती है तो इसके बाद होने वाले चुनाव में जनादेश हासिल करने वाले दल को लोकसभा, विधानसभा, स्थानीय निकाय के पूर्व निर्धारित कार्यकाल तक ही बने रहने का अधिकार होगा।

राज्यों के बदलेंगे समीकरण
मंत्रिमंडल के फैसले के बाद सवाल उठ रहे हैं कि एक साथ चुनाव कराने की तिथि क्या होगी? क्या सरकार अगले लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभा चुनाव भी कराएगी? अगर ऐसा हुआ तो कई राज्यों में शासन करने वाले दलों को समय से पहले चुनाव का सामना करना पड़ेगा। मसलन अगर 2029 में एक साथ चुनाव कराने का कानून बना तो दस राज्यों में बनी सरकारों को एक साल के अंदर फिर से चुनाव का सामना करना पड़ेगा। उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुजरात की सरकार को दो साल बाद, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, असम और केरल की सत्ता में काबिज सरकार को तीन साल बाद चुनाव का सामना करना पड़ेगा।

किस तरह का बदलाव?
मान लीजिए केंद्र या राज्य की कोई सरकार तीन या चार साल की अवधि पूरा करने के बाद अल्पमत में आने के बाद गिर गई। ऐसी स्थिति में मध्यावधि चुनाव होंगे। हालांकि मध्यावधि चुनाव में जनादेश हासिल करने वाले दल को संबंधित लोकसभा, विधानसभा या स्थानीय निकाय की उसी अवधि तक शासन करने का अधिकार मिलेगा। इनका कार्यकाल पूरा होते ही नए सिरे से चुनाव कराने होंगे। विशेषज्ञों का मानना है कि इस प्रावधान के कारण ऐसी सरकारें सुरक्षित रहेंगी, जिसने तीन साल का कार्यकाल पूरा कर लिया हो। वह इसलिए कि कोई भी दल अल्प समय के लिए मध्यावधि चुनाव का विकल्प हासिल करना नहीं चाहेगा।

अपनानी होगी लंबी प्रक्रिया
अगर सरकार की योजना 2029 में साथ चुनाव कराने की है तो इसके लिए उसे अभी से प्रक्रिया शुरू करनी होगी। दरअसल, लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने के लिए सरकार को अनुच्छेद 83 और 172 में संशोधन करना होगा। स्थानीय निकाय चुनाव में संविधान संशोधन करने के बाद इसे देश के आधे राज्यों के विधानसभा चुनावों से सहमति हासिल करनी होगी।

हर स्थिति में जारी रहेगा पुराना कार्यकाल
कोविंद कमेटी की सिफारिशों के मुताबिक कार्यकाल के बीच सरकार गिरने, सरकार के अल्पमत में आ जाने या त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में भी विधानसभा या लोकसभा के कार्यकाल में परिवर्तन नहीं किया जा सकता। ऐसी स्थिति में कमेटी ने राज्यपाल या राष्ट्रपति से साझा न्यूनतम कार्यक्रम के तहत राजनीतिक दलों को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कराने की संभावना तलाशने पर जोर दिया है।

क्या कहते हैं विशेषज्ञ? 
विशेषज्ञों का कहना है कि अगर 2029 में साथ चुनाव कराने पर सहमति बनी तो संविधान संशोधन के जरिए इन राज्यों का कार्यकाल एक साल बढ़ाने या कोई अन्य विकल्प तलाशने पर विचार हो सकता है। अगर इन राज्यों का कार्यकाल बढ़ा 2024 में चुनाव वाले नौ राज्यों और 2025 में विधानसभा चुनाव वाले दो राज्यों की सेहत   पर कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ेगा।

17 राज्यों में 3 साल से कम होंगी विधानसभाएं
अगर एक देश एक चुनाव व्यवस्था 2029 से लागू होती है तो 17 राज्यों में विधानसभाओं का कार्यकाल तीन साल से भी कम होगा। इनमें से 10 राज्यों में तो एक साल या उससे भी कम समय के लिए विधानसभाएं होंगी। उत्तर प्रदेश, पंजाब और गुजरात में अगला विधानसभा चुनाव 2027 में होना है। ऐसे में अगर 2029 में लोकसभा चुनाव के साथ इन राज्यों में भी चुनाव होता है तो विधानसभाओं का कार्यकाल दो साल या उससे भी कम होगा। इसी तरह पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, असम और केरल में अगला विधानसभा चुनाव 2026 में होना है। इन राज्यों में विधानसभाएं तीन साल या उससे कम की होंगी। वहीं, हिमाचल प्रदेश, मेघायल, नगालैंड, त्रिपुरा कर्नाटक, तेलंगाना, मिजोरम, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में 2028 में विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में अगर 2029 में एक साथ चुनाव हुए तो इन राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल एक साल या उससे भी कम का होगा।

देश में 1952 से 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते रहे हैं। इसके बाद कई राज्यों में मध्यावधि चुनाव और केंद्र में सरकारों के कार्यकाल पूरा न कर पाने के कारण स्थितियां बदल गईं। इस पर 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में पांच साल के अंदर सभी चुनाव साथ कराने की सिफारिश की थी।

साल 2015 में संसदीय समिति ने अपनी 79वीं रिपोर्ट में सरकार से दो चरणों में एक साथ चुनाव कराने के तरीके सुझाने के लिए कहा था। इसके बाद मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के अंत में सुझाव देने के लिए पूर्व राष्ट्रपति कोविंद की अध्यक्षता में उच्चाधिकार प्राप्त कमेटी का गठन किया गया था।

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