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 *मोदी है तो मुमकिन कैसे है……? आपदा में ही अवसर नहीं, बल्कि आपदा पैदा करके अवसर गांठने की नीति*

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*रजनीश भारती*

पैर में हवाई चप्पल, या थर्ड क्लास जूते, कंधे पर साधारण बैग, हाथ में प्लास्टिक की बाल्टी या ड्रम, झोले, या बोरियां… अल्पपोषण से पिचके हुए गाल, असामान्य जीवन शैली और कुपोषण के कारण कुछेक लोगों के निकले हुए पेट, बुझे हुए चेहरे और परिवार, माता-पिता, पत्नी, बच्चों से मिलने के लिए आँखों में एक सपना… पहली बार ऐसे लोगों की पूरी भीड़ को 2 एसी या थर्ड एसी के भारतीय रेल के डिब्बों में घुसते हुए देखा। तब यकीन हुआ कि मोदी है तो मुमकिन है। 

23 अक्टूबर को हैदराबाद में काचेगुडा स्टेशन का यह दृश्य हमने तब देखा जब हमें भी 05304 गोरखपुर स्पेशल फेयर एसी फेस्टिवल से सफर करने का संयोग बना। हम अक्सर जनरल या स्लीपर में सफर करते रहे हैं। अचानक यह संयोग बना क्योंकि हमारे साथ हमारा नौजवान दोस्त राशिद भी था, उसके कान का आपरेशन चार दिन पहले हुआ था, इसलिए जनरल डिब्बे की भीड़ में उसे ले जाना नुकसानदेह था। स्लीपर टिकट से आना चाहते थे मगर उसमें लम्बी वेटिंग थी, मजबूरन एसी डिब्बे में 2160 रूपये देकर सफर करना पड़ा।

हैदराबाद से यूपी, विहार की तरफ जाने वाली जो भी रेलगाड़ियां हैं, उसमें टिकट की बहुत किल्लत होती है। महीनों पहले स्लीपर का टिकट खरीदिए तो भी अक्सर वेटिंग टिकट ही मिल पाता है। इसका कारण यह है कि आपदा में अवसर वाली नीति के तहत जिन गाड़ियों में भीड़ की संभावना होती है, उन रेलगाड़ियों के 80- 90% सीटों को तत्काल टिकट के नाम पर रिजर्व रख दिया जाता है। फिर इन्हें आखिरी वक्त पर लगभग डेवढ़े-सवाए दाम पर बेचा जाता है। जनता को लूटने के लिए यही हालत लगभग पूरे देश में रेलवे विभाग की बना दी गयी है।

पहले मजदूर जनरल डिब्बों में भूसे की तरह ठसाठस भरकर सफर कर लेता था। मगर सरकार ने आपदा में ही अवसर नहीं, बल्कि आपदा पैदा करके अवसर गांठने की नीति के तहत जनरल डिब्बों को घटाना शुरू किया। जब जनरल डिब्बों में घुसना मुश्किल होता गया तो मजदूर बेचारा मजबूरन स्लीपर का टिकट लेने लगा, अब स्लीपर डिब्बे भी घटाए जा रहे हैं, जिससे स्लीपर में भी जनरल डिब्बों जैसी भयानक भीड़ होती जा रही है। स्लीपर का डिब्बा लगातार घटाते जाने के कारण स्लीपर टिकट दुर्लभ होता जा रहा है। अब स्लीपर डिब्बे में घुस पाना मुश्किल होता जा रहा है। लोग स्लीपर डिब्बे में धक्का-धुक्की करते हुए जब घुस जाते हैं तो इस तरह इत्मीनान से हाँफते हैं, मानो कोई बड़ी उपलब्धि हासिल कर लिया हो। इन्हीं परिस्थितियों में हवाई चप्पल वाले गरीब मजदूर लोग मजबूरन एसी में सफर कर रहे हैं। यह मजबूरी थोड़ी सी और बढ़ा दी जाए तो हवाई चप्पल वाले लोगों को खामख्वाह हवाई जहाज से जाना ही पड़ेगा।

चुनावी भाषणों में मोदी ने यही कहा था ‘हवाई चप्पल से चलने वालों को हवाई जहाज का सफर कराएंगे।’ आज का दृश्य देखकर यकीन हो गया कि अगर रेल व्यवस्था को थोड़ा सा और चौपट कर दिया जाये तो हवाई चप्पल पर चलने वाले लोगों को निश्चित ही हवाई जहाज से जाना पड़ेगा, भले ही भले ही दो महीने की तनख्वाह हवाई जहाज के किराए में खर्च हो जाए। और इसकी शुरुआत हो चुकी है। कुछ हवाई चप्पल वाले हवाई जहाज से सफर शुरू कर दिये हैं। बन्दे भारत और तेजस जैसी रेलगाड़ियों का भारी-भरकम किराया हवाई जहाज के किराए से कम नहीं है। इसी तरह मोदी है तो मुमकिन हो जाता है।

मगर बीते 75 सालों के तजुर्बे के बाद भी बहुत लोग इस भुलावे में हैं कि सिर्फ मोदी के होने से ही यह परेशानी होना मुमकिन है। वे भाजपा के विकल्प के रूप में कांग्रेस को देख रहे हैं। मगर कांग्रेस कभी भी भाजपा की विकल्प नहीं रही है। बल्कि दोनों एक दूसरे की पूरक हैं। मौजूदा शोषणकारी व्यवस्था में कोई भी पार्टी या राजनेता राजसत्ता की कुर्सी पर बैठ जाए मजदूरों किसानों, बुनकरों… का खून चूस कर ही इस व्यवस्था को चला पायेगा।  खून चूसने के तरीके में थोड़ा सतही फर्क हो सकता है। अत: जनता के सामने मुख्य सवाल मौजूदा व्यवस्था को बदलने का है। मगर शोषकवर्गों की गोदी और पैदल मीडिया मिलकर कुछ और ही सवाल खड़ा कर रही है।

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