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विपक्ष सरकार की घेरेबंदी कर रहा होता तो चार लोगों को संसद में घुसने की क्या जरूरत पड़ती?

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बुधवार को संसद पर आतंकी हमले की 22 वीं बरसी पर चार युवकों के सदन के भीतर प्रवेश करने का मामला बेहद गंभीर है। सुरक्षा के लिहाज से यह घटना इस सरकार की नाकामी का पर्दाफाश कर देती है। और यह बताती है कि आतंकी हमले की घटना के बाद भी सरकार ने कोई सबक नहीं सीखा। और इससे भी ज्यादा बड़ा सवाल यह उठता है कि आखिर इस तरह की घटनाएं बीजेपी सरकारों के रेजीम में ही क्यों होती हैं?
संसद पर आतंकी हमला अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के काल में हुआ था। विमान अपहरण का कंधार कांड भी उसी दौरान हुआ था। कारगिल युद्ध भी बीजेपी सत्ता की देन था। और अब जबकि केंद्र में उस शख्स की सत्ता है जिसकी दुनिया में कथित तौर पर तूती बोल रही है। और देश के गृहमंत्री अमित शाह को अपने भीतर सरदार पटेल से भी ज्यादा लोहा दिखता है। लेकिन कल लोकसभा के भीतर वह गैस बन कर उड़ रहा था। यही है इनकी सच्चाई।
और युवकों के घुसने के बाद और उड़ते धुएं को देखकर सदन छोड़ने वालों में इनकी ही पार्टी के लोग ज्यादा थे। जबकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी अपनी जगह पर खड़े होकर पूरे धैर्य के साथ मामले को निपटाने में लगे थे। और पंजाब से उनके एक सांसद ने बगैर डरे पूरी बहादुरी और साहस के साथ युवक से कैनिस्टर छीना और उसे बाहर फेंक दिया। जब इन सारी कार्यवाहियों के बाद युवक पकड़ लिए गए तब बीजेपी के सांसदों को अपनी ‘बहादुरी’ दिखाने का मौका मिला। और उन्होंने वह आचरण किया जो सार्वजनिक जीवन में जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले इस स्तर के लोगों को शोभा नहीं देता है। यह लोकसभा सांसदों के आचरण और उनके स्तर में गिरावट का नया पैमाना था।
बहरहाल यह घटना जितनी सुरक्षा चूक को लेकर बहस के लिहाज से प्रासंगिक है। उससे ज्यादा युवकों की इस पूरी पहल के पीछे की मंशा और उसके मुद्दे को लेकर मौजूं हो जाती है। इस पूरी घटना में शामिल सारे युवक बेरोजगार हैं। और उन्होंने अच्छी-खासी पढ़ाई कर रखी है। लेकिन अपनी पढ़ाई के अनुरूप उन्हें रोजगार नहीं मिला। और जीवन यापन के लिए समझौता करते हुए उससे भी निचले दर्जे के रोजगार से उन्हें समझौता करना पड़ा। उनका यह आक्रोश इस रूप में देश की सबसे बड़ी पंचायत के सामने दर्ज हुआ है।

अभी तक सामने आए तथ्यों के हिसाब से ये युवक न तो किसी राजनीतिक पार्टी के सदस्य थे। और न ही किसी संगठन के सदस्य। हां अपने-अपने स्तर पर भगत सिंह को ज़रूर आदर्श के तौर पर देखते थे। जो इनके बारे में बाद में आए विवरणों से दिखता है। इस पूरी कार्यवाही में भी वह भगत सिंह को ही आदर्शों को जमीन पर उतारते दिखे। अपनी इस कार्यवाही के जरिये उनका किसी को किसी भी तरह की क्षति पहुंचाने का इरादा नहीं था। वह गैस कैनिस्तर लेकर केवल लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाहते थे और इसके जरिये अपने मुद्दों को देश के सामने रखना चाहते थे। जैसा कि उन्होंने अपने नारों में भी जाहिर किया। इस रूप में वह भगत सिंह के बम के दर्शन से ज़रूर प्रेरित थे। जिसमें भगत सिंह ने कहा था कि बहरों तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए कभी-कभी बम धमाके करने पड़ते हैं। और आजाद भारत के आजाद नागरिकों को भी अब अपनी आवाज अगर सत्ता में बैठे हुक्मरानों तक पहुंचाने के लिए भगत सिंह के रास्ते का इस्तेमाल करना पड़ रहा है तो यह समझा जा सकता है कि आजाद भारत में हालात कहां तक पहुंच चुके हैं।
दरअसल हर तरफ से लोगों की आवाजों को बंद किया जा रहा है। वह जंतर-मंतर हो कि जेएनयू। वह सड़क हो या कि सोशल मीडिया। हर जगह सरकार और उसकी संस्थाएं सत्ता का जोर दिखा रही हैं। शिक्षण संस्थाओं में अध्यापकों की नियुक्ति और बर्खास्तगी तक का फैसला इसी आधार पर हो रहा है। जबकि शैक्षणिक परिसर आम तौर पर हर तरह की पाबंदियों से मुक्त होते हैं। एक खुली हवा में ही कोई आजाद सोच विकसित हो सकती है। इसका बिल्कुल निषेध किया जा रहा है। ऐसे में समाज को चारों तरफ से बंद करने की कोशिश में इस तरह के विस्फोटों की गुंजाइश बढ़ जाती है। अभी तो यह एक सुसभ्य और जिम्मेदार रूप लिए हुए है और आने वाले दिनों में यह हिंसक, अराजक और यहां तक कि आतंकी रूप ले ले तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए।

इन सारी स्थितियों के लिए सत्ता ही नहीं बल्कि विपक्ष भी कहीं न कहीं जिम्मेदार है। विपक्ष को इस बारे में ज़रूर सोचना होगा कि आखिर देश के युवकों को यह कदम क्यों उठाना पड़ा? अगर विपक्ष उनके सवालों को एड्रेस कर रहा होता। या फिर उसको लेकर वह कोई आंदोलन कर रहा होता। या संसद से लेकर सड़क तक सरकार की घेरेबंदी कर रहा होता तो भला चार लोगों को संसद में घुसने की क्या जरूरत पड़ती? लेकिन उनको लगा कि उनकी कहीं सुनवाई ही नहीं हो रही है। उनके सवालों को कोई उठाने वाला ही नहीं है। लिहाजा उन्हें खुद ही इस दिशा में पहल करनी होगी।
अब कोई पूछ सकता है कि वह सड़क पर क्यों नहीं उतरे और शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन का रास्ता उनके लिए खुला हुआ था। लेकिन सड़क पर उतरने के लिए जितने भौतिक संसाधन चाहिए उसको जुटाने और लंबे समय तक किसी आंदोलन को चलाने का धैर्य बहुत कम लोगों में होता है। ऐसे में इस तरह के लोगों को गुस्सा कुछ इसी तरह से निकलता है।
दिलचस्प बात यह है कि इन सब सवालों पर सबसे ज्यादा मुखर रहने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां भी आजकल कोई कारगर पहल करती नहीं दिख रही हैं। उनकी पहलें औपचारिकताओं के दायरे से आगे बढ़ ही नहीं रही हैं। यहां तक कि माले जैसी पार्टियां भी सोच के स्तर पर सत्ता के दायरे से आगे नहीं बढ़ पा रही हैं। इसका सबसे सटीक उदाहरण बिहार की जाति जनगणना है। उस जनगणना में जो एक चीज सबसे प्रमुख तौर पर निकल कर सामने आयी है वह है गरीबी के नये समुद्र का निर्माण। और इसने समाज के सभी तबकों के बड़े हिस्से को अपनी चपेट में लिया है।

यहां तक कि समृद्ध जीवन जीने वाले सवर्णों के एक बड़े हिस्से को गरीबी के रास्ते पर धकेल दिया है। दलितों का तकरीबन आधा हिस्सा गरीबी की रेखा के नीचे है। पिछड़ों का भी एक तिहाई हिस्सा उस आंकड़े को छूता है। और इन सभी के मध्य वर्गीय तबके की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। और उसका भी एक बड़ा हिस्सा गरीबी की रेखा को छूने की तरफ अग्रसर है। उसकी दिशा भी आगे बढ़ने की जगह पीछे लौटने की है। ऐसे में समझा जा सकता है कि गरीबी और बेरोजगारी समेत आर्थिक सवाल कितने बड़े हो गए हैं। और अगर कोई पार्टी सचमुच में जनता का प्रतिनिधित्व करती है तो उसे इसको सबसे बड़ा मुद्दा बनाना चाहिए। लेकिन सीपीआई एमएल नेतृत्व के वक्तव्यों में भी कहीं इसकी झलक नहीं दिखी। ऐसे में बाकी दलों से क्या ही उम्मीद की जाए।

बहरहाल सुरक्षा का सवाल सत्ता में बैठे केवल एक हिस्से तक के लिए ही सीमित नहीं है। यह जनता की सुरक्षा और आज़ादी से भी जुड़ा हुआ है। और इस जिम्मेदार हिस्से को यह सोचना चाहिए कि अगर जनता की सुरक्षा और उसमें भी सामाजिक सुरक्षा की गारंटी नहीं की गयी तो क्या देश और समाज को हम एक नई अराजकता में जाने के लिए मजबूर नहीं कर रहे हैं? समाज के स्तर पर मिली सुरक्षाओं को छीनने वाली सरकारों के लिए यह किसी चेतावनी से कम नहीं है। इस तरह से हम समाज को एक ऐसे बारूद के ढेर पर ले जाकर खड़ा कर दे रहे हैं जिसमें एक छोटी भी चिंगारी उसको बड़ा विस्फोटक रूप दे सकती है।

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