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यही हाल रहा तो कैसे भिड़ेगा विपक्ष

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नरेंद्र नाथ

शरद पवार के नेतृत्व में पिछले कुछ दिनों से जारी विपक्षी एकता की कोशिश से दिल्ली में सियासत गर्म हो गई है। मंगलवार को उनके घर पर एक मंच के बैनर तले समान विचार वाले दलों की मीटिंग हुई। हालांकि इसे बस वैचारिक स्तर पर विचार के लिए हुई मीटिंग बताया गया, लेकिन इसके संदेश व्यापक थे। अधिकतर विपक्षी दलों के बीच अब यह सियासी समझ आ चुकी है कि अगला लोकसभा चुनाव तमाम विरोधी क्षेत्रीय दलों के लिए भी मेक या ब्रेक मोमेंट होगा। विपक्ष को पता है कि जिस तरह नरेंद्र मोदी की अगुआई में बीजेपी चुनावी समर में लगातार बीस पड़ती रही है, अगर 2024 में भी उसका आभामंडल बना रहा, तो विपक्ष के लिए यहां से हालात और खराब हो सकते हैं, और बात उनके अस्तित्व तक जा सकती है। उनका यह भी मानना है कि 2024 में उनकी सूरत क्या होगी, इसका अहसास उन्हें इसी साल हो जाएगा। तो जो पहल पिछले कई मौकों पर महज मंथन तक ही सीमित रही, क्या इस बार आगे बढ़ पाएगी? क्या कांग्रेस जिद से आगे बढ़कर क्षेत्रीय दलों को कुछ स्पेस देने को तैयार होगी? यह बात अगले कुछ दिनों में साफ हो जाएगी।

क्यों अधीर हैं क्षेत्रीय दल
आम चुनाव में जब तीन साल से अधिक का वक्त बचा है तो क्षेत्रीय दल अभी से क्यों इतने अधीर हो रहे हैं? अधिकतर क्षेत्रीय दल मानते हैं कि अगर नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली बीजेपी के सामने राष्ट्रीय विकल्प बनना है, तो उन्हें ऐसे संगठित रूप में सामने आना होगा, जिसका कोई राष्ट्रीय संदेश हो। वे यह भी मानते हैं कि भले कोई स्पष्ट नेतृत्व न हो, लेकिन स्पष्ट नीति हो, जिससे लोगों के बीच विकल्प को लेकर उलझन न रहे। ऐसा मॉडल पहले भी सफल हो चुका है, लेकिन इसकी राह में बड़ी दिक्कत है। दरअसल, हर राज्य का अपना अलग समीकरण है और अधिकतर क्षेत्रीय दल अपने सियासी समीकरण के लिए कांग्रेस और बीजेपी दोनों से दूरी बनाए रखना चाहते हैं। पश्चिम बंगाल में लगातार तीसरी जीत मिलने के बाद ममता बनर्जी की अगुआई में टीएमसी भी खुद को विकल्प के रूप में पेश कर रही है। वह 2024 आम चुनाव को ध्यान में रखते हुए पार्टी का राष्ट्रीय विस्तार करने पर ध्यान दे रही है। बंगाल के अलावा ममता बनर्जी की नॉर्थ ईस्ट में भी मजबूती के साथ विस्तार की योजना है। उन्हें अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी का सपोर्ट है, जो दिल्ली, पंजाब के अलावा गुजरात, उत्तराखंड में आक्रामक विस्तार की योजना बना रही है। अखिलेश यादव भी विपक्षी एकता के पैरोकार हैं, लेकिन इनमें अधिकतर नेता कांग्रेस से दूरी बनाए रखना चाहते हैं।

जानकारों के अनुसार विपक्षी मोर्चे की पहल तब गंभीर शक्ल ले सकती है, जब इससे नवीन पटनायक, जगन रेड्डी, चंद्रबाबू नायडू जैसे नेता जुड़ें। वैसे तीसरा मोर्चा बनाने की दिशा में यह कोई पहली गंभीर पहल नहीं है। 2019 आम चुनाव से पहले चंद्रबाबू नायडू इसकी कोशिश कर चुके हैं। उन्होंने इस फ्रंट में खुद के लिए डिप्टी पीएम के पद का फार्मूला भी तय कर लिया था और आम चुनाव से पहले फेडरल फ्रंट बनाने की दिशा में अलग-अलग राज्यों का दौरा भी किया था। लेकिन तब यह बात मुलाकात से आगे नहीं बढ़ पाई थी। इसके अलावा क्षेत्रीय दल इसलिए भी अधीर हैं कि अगर उनकी कोशिश सफल नहीं होती है तो वक्त रहते वे अपने राज्यों तक ही अपनी सियासत को केंद्रित करेंगे। एक क्षेत्रीय दल के सीनियर नेता के अनुसार, क्षेत्रीय दल कितने भी एकजुट हो जाएं, अगर कांग्रेस ने अपनी स्थिति नहीं सुधारी तो इस लड़ाई का कोई खास मतलब नहीं। इसके पीछे वह तर्क देते हैं कि 2019 आम चुनाव में लगभग 225 लोकसभा सीटों पर कांग्रेस-बीजेपी का सीधा मुकाबला हुआ, जिनमें 200 से अधिक सीटें बीजेपी ने जीतीं। इनका तर्क है कि ऐसी परिस्थिति बनी रही तो उनके एक होने का भी अधिक लाभ नहीं होगा और वे बीजेपी को नहीं रोक पाएंगे।

कांग्रेस शुरू से तीसरे मोर्चे की संभावना को खारिज करती रही है। विपक्षी एकता की संभावना जब भी बनती है, तो पार्टी का रुख यही रहा है कि यह तीसरा मोर्चा नहीं बल्कि कांग्रेस की अगुआई में दूसरा मोर्चा ही होगा। मतलब कांग्रेस विपक्षी एकता में भी नेतृत्व की चाबी अपने हाथ में रखना चाहती है। इसीलिए तीसरे मोर्चे की किसी गंभीर पहल से वह खुद को अलग रखती है। यही वजह है कि मंगलवार को जब टीएमसी नेता यशवंत सिन्हा ने छोटे स्तर पर ही सही, विपक्षी दलों की मीटिंग बुलाई तो न्यौता मिलने के बावजूद कांग्रेस के कुछ सीनियर नेताओं ने इससे दूरी बना ली।

क्या है कांग्रेस की चिंता
कांग्रेस को लगता है कि तीसरा मोर्चा जितना प्रभावी होगा, उसकी प्रासंगिकता उतनी ही कम होगी। कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों ने पहले ही कांग्रेस को किनारे खड़ा कर दिया है, इसीलिए विपक्षी स्पेस को पार्टी अब और साझा करने को तैयार नहीं है। हालांकि 2004 में कांग्रेस ने सोनिया गांधी के नेतृत्व में ही पहल करके 27 दलों का गठबंधन बनाया था, जिसके बाद पार्टी अप्रत्याशित रूप से दोबारा सत्ता में आई। हालांकि तब से लेकर अब तक बड़ा फर्क यह आया कि कई बड़े राज्यों में कांग्रेस बहुत सिकुड़ गई है और पार्टी को लगता है कि अगर फिर उतना ही स्पेस दिया, तो उसके लिए आगे की राह और भी कठिन हो जाएगी।

हालांकि प्रशांत किशोर ने कांग्रेस के दूसरे मोर्चे के दावे को सही माना है। उन्होंने अधिकतर क्षेत्रीय दलों से कहा है कि बिना कांग्रेस को विश्वास में लिए विपक्षी एकता संभव नहीं है। सूत्रों के अनुसार, शरद पवार क्षेत्रीय दल और कांग्रेस के बीच पुल का काम कर सकते हैं। पिछले दिनों उन्हें यूपीए अध्यक्ष बनाए जाने का भी प्रस्ताव दिया गया था, लेकिन कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया। वहीं क्षेत्रीय दलों की मूल शिकायत कांग्रेस की निष्क्रियता से है। इन दलों का कहना है कि कांग्रेस बीजेपी के खिलाफ सियासी लड़ाई में ‘न खेलेंगे-न खेलने देंगे’ वाली हालत कर रही है। अब कांग्रेस के अंदर भी इस आरोप को समर्थन मिलने लगा है। पार्टी में एक बड़ा वर्ग है, जो मानता है कि कांग्रेस की सुस्ती और निर्णय नहीं लेने के रुख से हालात और बिगड़ रहे हैं। कुल मिलाकर कांग्रेस पर दबाव है कि भले वह तीसरे मोर्चे के विकल्प को खारिज करे, लेकिन इसके बाद अपने स्तर पर सक्रिय पहल करके नया विकल्प तो दे।

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