शशिकांत गुप्ते
चुनाव की घोषणा के साथ ही,जनता की सेवा करने के लिए आतुर,सेवाभावी अपने दल से टिकिट प्राप्त करने के लिए अथक प्रयास में लग जातें हैं।
टिकिट प्राप्त करने के प्रयास में चार तरह की “अ” नीतियों में एक “दाम” नामक नीति का बहुत गोपनीय तरीके से उपयोग किया जाता है। इस गोपनीय तरीके का क्रियान्वयन *खग ही जाने खग की भाषा* में होता है?
दलों के हाई कमान के पास अदृश्य Parachute (पैराशूट) हवाई छतरी होती है।
हवाई छतरी में बैठ कर धरा पर उतरने में निपुण व्यक्ति टिकिट प्राप्त करने में सफल हो जाता है।
दल के लिए प्रतिबद्ध रहने वाले कार्यकर्ताओं को हवाई छतरी से उतरने वाले के लिए समर्पित होकर प्रचार करने के लिए बाध्य होना पड़ता है।
चुनाव की घोषणा,से लेकर चुनाव संपन्न होने तक, प्रत्येक दल अपना बहुमत प्राप्त करने का दावा करता है। लेकिन मतों की गणना के बाद किसी भी दल को बहुमत प्राप्त हो जाए या आपस में दूसरे दलों के साथ गठ जोड़ कर बहुमत साबित भी किया जाए,सरकार में विराजित होने के लिए शपथ विधि,समारोह भी संपन्न हो जाए लेकिन सरकार के टिके रहने की गारंटी किसी के पास नहीं है?
“राज” नीति में जैसे अदृश्य पैराशूट होता हैं,वैसे ही बहुमत प्राप्त दल के कुछ लोगों को लिफ्ट करने की भी अदृश्य कला राजनीति में विद्यमान है।
इस अदृश्य लिफ्ट की क्षमता बहुत लाजवाब होती है। लिफ्ट किए निर्वाचित सदस्यों को पर्यटन स्थलों पर विलासिता पूर्ण सुविधाएं मुहैया करवाई जाती है।
इनमें से कुछ लोगों के कुछ नायब कारनामें सीडी (Compact Disc) में रिकॉर्ड होते हैं।
लेकिन पेटियों को छोड़ खोकों में सारा खेल हो जाता है,ऐसा आरोप मात्र है,यह आरोप,सिद्ध होना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। कारण पिछले दशक में एक बहुत आश्चर्यजनक किंतु सत्य, अदृश्य वाशिंग मशीन का भी अविष्कार हुआ है।
पिछले दशक से राजनीति में जादुई करिश्में ही तो हो रहे हैं।
जादूई कला में महारथ प्राप्त जादूगर भी ऐसे हैरतअंगेज कारनामे देख अचंभित हैं।
ऐसे जादूई करिश्में दिखाए जा रहें हैं,जो *न भूतो न भविष्यति* इस सूक्ति को चरितार्थ करते हैं।
इस संदर्भ में शायर *मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता* रचित
*हम तालिब-ए-शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम*
*बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा*
इस शेर का अर्थ मेरे मित्र ने मुझे यूं समझाया, शोहरत चाहने वालें जो होते हैं,उन्हे नग्नता से कोई सरोकार नहीं होता है।
ऐसे लोगों का कहना है कि,भले ही हम बदनाम होंगे,लेकिन नाम तो होगा ही।
शशिकांत गुप्ते इंदौर