अग्नि आलोक
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नासमझ नहीं हो तो ध्यान सिर्फ़ गोरखधंधा है 

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     ~ सोनी कुमारी, वाराणसी 

जब तक दुविधा हो तब तक गोरख धंधे में रहना पड़ेगा। दुविधा को मिटाने का ही उपाय है ध्यान। दुविधा का अर्थ है:  मन दो हिस्सों में बंटा है। मन के दो हिस्सों को करीब लाने की विधि है ध्यान। जहां मन एक हुआ, वहीं मन समाप्त हुआ। मन नहीं यानी अमन. मन नहीं यानी नमन.

       दुनिया में दो ही तरह के आध्यात्मिक मार्ग हैं—एक विधि का और एक बिना विधि का।

 अष्टावक्र शून्य मार्ग के प्रस्तोता हैं। उनको समझते वक्त खयाल रखना कि उनकी बात तो केवल उन्हीं के लिए है जो दुविधा—शून्य हो कर समझ सकेंगे, जिनकी समझ ही इतनी गहरी हो जाए कि फिर किसी ध्यान की कोई जरूरत न रहे; जिनकी समझ ही समाधि बन जाए।

      अष्टावक्र का आग्रह मात्र जागरण, साक्षी— भाव पर है, लेकिन अगर यह न हो सके तो अष्टावक्र को पकड़ कर मत बैठ जाना। न हो सके तो पतंजलि उपाय हैं। न हो सके तो बुद्ध, महावीर उपाय हैं।

       कृष्णमूर्ति यही कह रहे हैं वर्षों से, जो अष्टावक्र ने कहा है। चालीस वर्षों से निरंतर जो लोग उन्हें सुन रहे हैं वे इसी दुविधा में पड़ गए हैं। 

      समझ में आया भी नहीं, समझ तो जगी नही—और ध्यान भी छोड़ दिया। तो धोबी के गधे हो गए, न घर के न घाट के। अटक गए बीच में। त्रिशंकु हो गए। मझधार में पड़ गए, न इस किनारे के न उस किनारे के। मेरे पास आते हैं, कहते हैं: ’मन में शांति नहीं है।’ अगर मैं उनको कहता हूं ध्यान करो, वे कहते हैं:’ ध्यान से क्या होगा? कृष्णमूर्ति तो कहते हैं, ध्यान से कुछ न होगा।’ अगर कृष्णमूर्ति समझ में आ गए तो मन में अशांति कैसे बची? आए हो पूछने कि मन में अशांति है, क्या करें? अगर कृष्णमूर्ति समझ में आ गए तो अशांति बचनी नहीं चाहिए। क्योंकि कृष्णमूर्ति के पास तो समझ के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है; या तो समझ गये या नहीं समझे।

       समझ गए तो शांत हो गए; नहीं समझे तो बकवास में मत पड़ो। फिर कुछ और करो जो नासमझों के लिए है; फिर ध्यान करो।

       अहंकार बड़ा अदभुत है! अहंकार यह भी मानने को तैयार नहीं कि मैं नासमझ! ध्यान तो नासमझों के लिए है। मैं कोई नासमझ तो हूं नहीं जो ध्यान करूं। और इतने समझदार भी तुम नहीं हो कि बिना ध्यान किए पहुंच जाओ। तब तुम अड़चन में पड़ोगे। तब तुम्हारी बेचैनी बड़ी गहरी हो जाएगी। तुम टूटोगे। तुम खंड—खंड हो जाओगे।

        अष्टावक्र कहते हैं : सब ध्यान, सब विधियां व्यर्थ हैं, क्योंकि कर्म —मात्र वहा नहीं पहुंचा सकता; वहा तो केवल होश पहुंचाता है। ध्यान भी करोगे तो कृत्य होगा।

        ध्यान भी करोगे तो कर्ता बन जाओगे। तो भोजन पकाओ कि बुहारी लगाओ कि दूकान चलाओ कि ध्यान करो, फर्क नहीं पड़ता—कुछ करते हो। अष्टावक्र यह कह रहे हैं कि तुम्हारा जो स्वभाव है, वहां कर्म नहीं पहुंचता; वहा तो सत्ता मात्र है। वह जो बुहारी लगाना हो रहा है, उसमें तुम नहीं हो; वह जो बुहारी लगाने को देख रहा है, वही तुम हो।

        भोजन पकाते हो, भोजन पकाने में तुम नहीं हो; वह जो भोजन को पकते देख रहा है और देख रहा है कि तुम भोजन पका रहे हो, वही तुम हो। यही बात ध्यान में है। ध्यान में तुम नहीं हो; वह जो देख रहा है कि ध्यान कर रहे हो, वह जो देख रहा है कि ध्यान से शांति आ रही, वह जो साक्षी है—वही तुम हो।

‘गोरखधंधा’ गोरखनाथ से जुड़ा है। जब भी कोई आदमी ज्यादा विधि—विधान में पड़ जाता है तो हम कहते हैं, गोरखधंधे में मत पड़ो। गोरख ने सबसे ज्यादा विधियां खोजी ध्यान की। पतंजलि के बाद गोरख का नाम अविस्मरणीय है। उन्होंने ध्यान के बड़े प्रयोग खोजे। निश्चित ही ध्यान के प्रयोग से लोग पहुंचे हैं; लेकिन ध्यान का प्रयोग उनके लिए है, जिनके पास समझ अकेली पर्याप्त नहीं है, परिपूरक है, जो कमी समझ में रह गयी है, वह ध्यान पूरी कर देता है।

       ध्यान से कोई आत्मा को नहीं जानता; लेकिन ध्यान से तुम इतने शांत हो जाते हो कि उस शांति में साक्षी बनना सुगम हो जाएगा। जानोगे तो अष्टावक्र के मार्ग से ही।

       जैसे समझो कि कोई आदमी बुखार से ग्रस्त है, बीमार पड़ा है, सन्निपात चढ़ा है और वह कहता है, ’मैं समाधि को कैसे उपलब्ध होऊं? तो हम क्या करेंगे उसे समाधि की कोई विधि—विधान बताएंगे? 

       हम कहेंगे, पहले बुखार ठीक हो जाने दो। वह पूछे कि क्या बुखार ठीक हो जाने से मुझे समाधि लग जाएगी? तो हम उसे समझाने को कहेंगे कि ही, बुखार ठीक हो जाने से समाधि लगने में सहायता मिलेगी। क्योंकि सन्निपात में कभी किसी की समाधि लगी हो, ऐसा सुना नहीं; यद्यपि सन्निपात में जो नहीं हैं, उनको समाधि लग गयी हो, ऐसा भी नहीं है। क्योंकि इतने लोग हैं जो सन्निपात में नहीं हैं; इनकी कोई समाधि नहीं लग गयी है। लेकिन एक बात पक्की है कि सन्निपात वाले को तो कभी नहीं लगी है।

        जिसको भी लगी है, एक बात निश्चित है कि वह सन्निपात में नहीं था।

      तो औषधि दे कर हम बुखार से भरे आदमी का सन्निपात नीचे उतारते हैं। जब सन्निपात नीचे उतर जाता है, तब उसे ध्यान की विधि देंगे। जब ध्यान की विधि उसके चित्त को शांत कर देगी, तो साक्षी सुगम हो जाएगा। अंतिम घटना तो साक्षी की ही है। अंतिम समय में तो अष्टावक्र ही सही हैं। लेकिन तुम एकदम उस अंतिम घड़ी को पहुंच पाओगे? पहुंच जाओ तो शुभ; न पहुंच पाओ तो ध्यान करना ही होगा।

      जब तक दुविधा रहे तब तक ध्यान उचित है। जब दुविधा मिट जाए और समझ, प्रज्ञा का प्रकाश फैले और एक क्षण में घटना घट जाए, फिर तुम पूछोगे ही नहीं। फिर बात ही नहीं उठती पूछने की। घटना ही घट गयी, तुम समाधि को उपलब्ध ही हो गए, तो फिर तुम पूछने थोड़े ही आओगे कि अब ध्यान करूं कि न करूं? जब तक पूछने आते हो तब तक तो ध्यान करना।

       अभी तुम जहां खड़े हो, वहां से छलांग तुम न लगा सकोगे। शायद ध्यान कर—करके मन थोड़ा शांत हो, सन्निपात थोड़ा कम हो, तो फिर छलांग लग सके। छलांग तो लगानी ही होगी कर्ता से साक्षी पर, इतना निश्चित है।

      आत्यंतिक अर्थों में अष्टावक्र का वक्तव्य पूर्ण सत्य है; लेकिन तुम जिस जगह खड़े हो, वहा सत्य है या नहीं, यह कहना कठिन है।

       छोटे बच्चे को स्कूल भेजते हैं तो सिखाते हैं ’ग’ गणेश का या ’ग’ गधे का। ’ग’ से न तो गधे का कोई संबंध है न गणेश का कोई संबंध है। और अगर बच्चा बहुत सीख ले कि ’ग’ गधे का,’ग’ गधे का—फिर जब भी ’ग’ को पढ़े, तब यह मन में उसको दोहराए कि ’ग’ गधे का, तो वह कभी पढ़ नहीं पाएगा। वह गधा बीच—बीच में आएगा। वह तो सिर्फ सहारा था, बच्चे को समझाने का उपाय था। बच्चा गधे को जानता है, ’ग’ को नहीं जानता। गधा देखा है।

       इसलिए बच्चों की किताब में बड़े—बड़े चित्र बनाने पड़ते हैं, क्योंकि चित्र बच्चा पहचान लेता है। बड़ा आम लटका है, वह पहचान लेता है। गधा खड़ा है, वह पहचान लेता है। गधे को पहचानने से ’ग’ को पहचानने में सुविधा बन जाती है। लेकिन एक दिन फिर भूल जाएगा ’ग’ गधे का। ’ग’ अपना;’ग’ क्यों गधे का हो, क्यों गणेश का हो!

        ध्यान तो उनके लिए है जिनके लिए अभी वह आत्यंतिक बात समझ में न आ सकेगी। यह प्राथमिक है। अभी तो ध्यान भी समझ में आ जाए तो बहुत। अभी तो बहुत ऐसे हैं जिन्हें ध्यान भी समझ में नहीं आ सकेगा। अभी उनको प्राइमरी स्कूल में भी भरती करना उचित नहीं है, अभी तो किंडरगार्डन में कहीं डालना पड़े। अभी तो ध्यान भी समझ में नहीं आएगा। जिसको ध्यान समझ में न आए उसे हम कहते हैं: पढ़ो, स्वाध्याय करो, मनन करो। 

       जिसको मनन होने लगे, स्वाध्याय होने लगे, उसे कहते हैं : ध्यान करो। जिसको ध्यान आ जाए, फिर उसको कहते हैं कि अब छलांग लगा लो; अब कर्ता से साक्षी पर कूद जाओ। तब हम उससे कहते हैं: करने से कुछ भी न होगा।

        तो जिसको अष्टावक्र समझ में आ जाएं, वह तो यह प्रश्न पूछेगा नहीं। जिसको अभी प्रश्न बाकी है, वह अष्टावक्र को भूल जाए; उनसे अभी तुम्हारी दोस्ती न बनेगी। अभी तुम्हें ध्यान करना ही होगा।

     पहाड़ नहीं कांपता, न पेडू, न तराई. कापती है ढाल पर के घर से

नीचे झील पर झरी दीये की लौ की नन्हीं परछाईं।

      तुम नहीं कंपते—तुम तो पहाड़ हो अचल। तुम्हारे केंद्र पर कोई कंपन नहीं है। कंपती है केवल परछाईं। मन कंपता है। यह समझ में आ जाए तो इसी क्षण क्रांति हो सकती है। यह समझ में न आए तो ध्यान की प्रक्रियाओं से गुजरो, ताकि ऐसा क्षण आ जाए, जिस क्षण तुम्हारी समझ में आ सके।

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