डॉ. विकास मानव
एक महान आत्मा ने लिखा है : ध्यान विधि काम क्यों नहीं करती ? साधना पूरी क्यों नहीं होती? क्या जीवन भर साधते ही रहना है?
बहुत समय से ध्यान जारी है। कोई संतोषजनक परिणाम नहीं मिल रहे हैं? क्या कारण हो सकता है? क्या करना होगा कि ध्यान लगाने में सफलता प्राप्त हो जाए?
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ध्यान विधियां जीवंत है। विधियां सिद्ध बनाते हैं, बुद्ध बनाते हैं। उन्होंने प्रयोग करके ही विधियां बनाई हैं। उन्होंने जिस विधि से यात्रा की है, पहुँचे हैं, अभीप्सुओं को मंज़िल दिए हैं उसी विधि की वे चर्चा किये हैं।
फिर भी क्यों हमेशा प्रश्न उठता है कि विधियां काम क्यों नहीं करतीं. सारा जीवन विधि प्रयोग में ही निकल जाता है ! लोगों को हमने सारा जीवन साधना करते हुए देखा है, ध्यान करते हुए देखा है, और वे वहीं के वहीं हैं, कहीं नहीं पहुँचे है, उल्टे और कलह से भर गए हैं।
दरअसल उनमें पाखंड पैदा हो गया है, उन्हें क्रोध भी आता है और बाद में वे बहुत पश्चाताप में जलते भी हैं कि मैं साधक-साधिका होते हुए भी बंधन से मुक्त नहीं हो पा रहा हूँ !
विधि काम न करने के पीछे बहुत से कारण संभव है। पहला और सबसे बड़ा कारण है अपने साधक होने का अहंकार, कि मैं साधक!मैं ध्यानी!
इसमें दूसरे के प्रति, जो साधक नहीं है, धार्मिक नहीं हैं, उनके प्रति निंदा का भाव भी आ जाता है कि कुछ नहीं कर रहे हैं, नर्क में जाएंगे सब के सब।
हम दिन रात अध्यात्म और ज्ञान की चर्चा करते रहते हैं। अपनी साधना की चर्चा करते रहते हैं, यानी बीज को बोकर रोज – रोज खोदकर देखते हैं कि उगा या कि नहीं उगा ! और ध्यान का बीज जीवन भर नहीं उग पाता है।
अपनी प्रेमिका के विषय में हम किसी को बताते नहीं हैं और भगवान् से प्रेम है यह बात हम ढोल पीटकर कहना चाहते हैं। ओशो कहते हैं कि दांया हाथ जो काम करे, वह बांए हाथ को भी पता नहीं चलना चाहिए। साधना की चर्चा करने से जिन अनुभवों से हम गुजरते हैं वे अनुभव दोबारा घटित नहीं होते, उन्हें कहना नहीं है, सिर्फ स्मरण में रखना है, ताकि वे गहरे जा सके। इसलिए सधना में गोपनीयता बहुत आवश्यक है।
दूसरा कारण है झूंठ जीवन जीना। हम सुबह से शाम तक सिर्फ झूंठ बोलते हैं। दूसरों से भी और अपनों से भी। एक झूंठ को छुपाने के लिए दूसरा झूंठ और तीसरा झूंठ, इस तरह हम अपने ही बनाए झूंठ के जाल में उलझ कर मुसीबत में पड़ते हुए तनाव से भर जाते हैं।
तनाव के कारण हम विधि प्रयोग में असमर्थ हो जाते हैं।
तीसरा कारण है संकल्प की कमी। हममें संकल्प बिल्कुल भी नहीं है। हमारी छोटी-छोटी आदतें ही हम नहीं बदल पाते! हर गलती को बार – बार दोहराते रहते हैं।
आज जिस बुरी आदत को छोड़ने का संकल्प लेते हैं, कल तक उस पर टिकना मुश्किल हो जाता है, कल और अगले कल पर टाल देते हैं कि अभी कहां जीवन निकला जा रहा, कल देख लेंगे !
चौथा है धैर्य की कमी। हममें धैर्य तो है ही नहीं! हमारा जीवन इतना तेजी से भागा जा रहा है कि हमें आज और अभी ही परिणाम चाहिए ! यदि हमारा शरीर अस्वस्थ हो, हमें बुखार हो, तो हमें पूरी तरह से स्वास्थ्य होने में एक से दो सप्ताह लगते हैं जबकि ध्यान तो शरीर के साथ ही चेतना का भी स्वास्थ्य होना है !
शरीर तो अभी बिमार हुआ है, चेतना तो जन्मों से बिमार है ! उसके लिए तो हमें प्रतिक्षा करनी पड़ेगी और धैर्य होगा तो ही हम प्रतिक्षा कर पाएंगे।
यह प्रतिक्षा पूरी हो इसके लिए हमें धैर्य रखना होगा। कहने सुनने में यह बात बहुत अच्छी लगती है कि “धैर्य रखना चाहिए…” लेकिन हम धैर्य रख नहीं पाते हैं! कैसे रखें धैर्य?
धैर्य हमारे जीवन में उतर सके इसके लिए हमें स्वीकार भाव बढ़ाना होगा। छोटी-छोटी बातें हम स्वीकार नहीं कर पाते हैं, जो हमें तनाव देकर हमारे स्वभाव में चिड़चिड़ापन घोलती है।
जिस चीज की हमें जरूरत थी ही नहीं, वह चीज हम मंहगे दामों में बाजार से खरीद लाते हैं, लेकिन दो से पाँच रूपयों के लिए सब्जी वाले से, फेरी वाले से या फिर अन्य सामान बेचने वाले से झिक – झिक करते हैं।
घर में भी जिस बात के लिए मना करने की जरूरत नहीं होती है, उस बात के लिए भी हम मना कर देते हैं और बिना कारण ही तनाव ले लेते हैं।
यदि हमें धैर्य को अपने जीवन में प्रवेश देना है तो स्वीकार भाव बढ़ाना होगा। जितना स्वीकार भाव बढ़ेगा उतना ही हममें धैर्य का अवतरण होना शुरू हो जाएगा। स्वीकार भाव होगा तो मन में नये तनाव, नयी ग्रंथियां इकठ्ठा नहीं होगी और पुरानी ग्रंथियों को हम रेचन करके बाहर निकाल देंगे।
अतः जैसे – जैसे निर्ग्रंथ होते जाएंगे, वैसे – वैसे धैर्य के साथ हमारा ध्यान का प्रवेश होता चला जाएगा।
पांचवां है विधि में सातत्यता का अभाव। कोई भी विधि निरंतरता की मांग करती है। ताकि आगे की विधि में पहुंचा जा सके। कोई भी विधि तीन से छः महीने प्रयोग करते हैं तब जाकर हमरा शरीर तैयार होता है।
बीच में यदि हम विधि से हटते हैं तो निश्चय ही गत्यात्मकता का बना रहना मुश्किल है, हम फिर – फिर पीछे लौट आते हैं यानी चार कदम बढ़ते हैं और फिर चार कदम फिर पीछे हट जाते हैं। इस तरह हम जहां से चलते हैं वापस वहीं लौट आते हैं।
छठा है विधि के चरणों को पूरा नहीं करना यानी अपने को पूरा नहीं देना, कुछ बचा लेना । हम विधि प्रयोग करते हैं लेकिन सारे चरणों को पूरी शक्ति और संकल्प से पूरा नहीं करते हैं।
जब तक हम अपना पूरा सौ प्रतिशत नहीं देंगे तब तक विधि काम नहीं करेगी। हममें इतनी त्वरा, इतना संकल्प हो कि हम स्वयं को विधि के हवाले कर सकें, पूरी ताकत, पूरी शक्ति लगा सकें जैसे कोई छुरा लेकर पीछे दौड़ रहा है और हम अपने को बचाने के लिए पूरी शक्ति लगाकर भाग रहे हैं।
सातवां कारण है अपनी विधि न चुन पाना। यदि हम मोटे तौर पर विधियों को बांटें तो दो तरह की ध्यान विधियां हैं, पहली है सक्रिय विधि और दूसरी है निष्क्रिय विधि।
सक्रिय विधि वह है जिसमें हमें कुछ करना होता है मसलन श्रम, व्यायाम, प्राणायाम और निष्क्रिय विधि वह है जिसमें कुछ भी नहीं करना है, शरीर को पूरी तरह से विश्राम में ले जाना है। जैसे श्वास पर ध्यान करना या चक्रों पर ध्यान करना इत्यादि। सक्रिय विधि प्राथमिक है, पहले करनी होती है और निष्क्रिय विधि बाद में यानी सक्रिय विधि से गुजरकर ही निष्क्रिय विधि में प्रवेश किया जा सकता है।
शरीर जब तक श्रम नहीं करेगा, पसीना नहीं निकालेगा, अपने को थकाएगा नहीं तब तक विश्राम को उपलब्ध नहीं हो सकेगा। क्योंकि निष्क्रिय विधि के लिए शरीर का विश्राम में जाना बहुत जरूरी है। शरीर पूरी तरह से विश्राम में होगा यानी कोई हलचल नहीं, पूरी शांति।
शरीर के तल पर कोई तनाव नहीं और मन के तल पर भी कोई तनाव नहीं। तभी शरीर विश्राम में जाएगा और निष्क्रिय विधि में प्रवेश कर पाएगा।
परेशानी यहीं से शुरू होती है। सक्रिय विधि हम करते नहीं हैं और सीधे निष्क्रिय विधि प्रयोग करना शुरू कर देते हैं। जब तक हम सक्रिय विधि में श्रम नहीं करेंगे तब तक हम निष्क्रिय विधि में विश्राम को उपलब्ध नहीं हो सकते।
हम सीधे निष्क्रिय विधि प्रयोग करते हैं और उसमें सफल हो नहीं पाते, हम शरीर और मन दोनों तलों पर अशांत होते हैं । शरीर विरोध करता है, कहीं खुजली चलती है, कहीं चींटी काटती है, भाव उठते हैं, विचार घेरे रहते हैं। जबकि निष्क्रिय विधि में पैंतालिस मिनट से एक घंटे तक हमें शांत रहना है, कोई भाव नहीं, कोई विचार नहीं, तभी ध्यान में प्रवेश होगा।
अतः निष्क्रिय विधि से पहले हमें सक्रिय विधि से गुजरना होगा, क्योंकि सक्रिय विधि ध्यान का पहला चरण है यानी सक्रिय विधि हमें निष्क्रिय विधि में प्रवेश करने के लिए तैयार करती है। अर्थात पहला चरण पूरा किये बगैर हम दूसरे चरण में प्रवेश नहीं कर सकते।
इन्हीं कारणों से धीरे-धीरे विधियों से हमारा भरोसा ही उठने लगता है, हमारी संकल्प शक्ति और भी क्षीण होने लगती है और ध्यान साधना, कुंडलिनी, तीसरी आँख , अचेतन में जाना यह सब बातें कपोल कल्पना लगने लगती है। इसलिए यह ढर्रा छोडें, नहीं तो जन्मों तक नहीं मिलेगी सिद्धि.