शशिकांत गुप्ते
आज मुझे 9 सितंबर 2019 को मेरी स्वरचित कविता का स्मरण हुआ। प्रदूषित हो रहे पर्यावरण को लेकर लिखी यह कविता है।
बाढ़ में बह गया,
भूकंप में तबाही,
तूफान ने उजाड़ा,
शीत लहर का कहर,
तपती लू से ज्वर,
कहीं पानी को तरस,
कहीं अति वृष्टि कहीं अल्प,
ये प्राकृतिक आपदाएं,
कौन दोषी?
एक दूसरे पर,
आरोप,प्रत्यारोप,
अपराधी की पहचान,
स्वयं के
जेहन में झांक,
मिलेगा मय सबूत
स्वार्थ अपना,
प्रकृति से खिलवाड़,
पड़ता है महंगा।
नहीं चलेगा,
झटकने से हाथ,
अपना,
कर गुनाह कबूल,
स्वार्थ पूरा करने में तू दक्ष,
खूब काटे और काटता रहता है छायादार वृक्ष,
बहती सरिताओं के निर्मल,
जल में,
मिलाया और मिला रहा है,
जहरीला रसायन,
अधजले शव,
हे मानव,
कब आएगी तझे शर्म,
चुल्लू भर पानी मे डूब मर,
अभी भी है वक्त,
जब जागे तब सवेरा,
मानव को पश्चाताप करने से बचना होतो उसे अपने अंदर के इंसान को जगाना होगा।
इंसान को जगाने का तरीका शायर उमैर नजमी के इस शेर में मौजूद है।
निकाल लाया हूँ एक पिंजरे से एक परिंदा
अब इस परिंदे के दिल से पिंजरा निकालना है
इनदिनों पर्यावरण ही प्रदूषित नहीं हो रहा है। सियसी माहौल में भी प्रदूषण हो रहा है। पर्यावरण को प्रदूषित करने कौन जिम्मेदार है,यह कविता में स्पष्ट दर्शाया है।
सियासी माहौल को धनबल से प्रदूषित करने का प्रयास किया जा रहा है, ऐसा विरोधियों का आरोप है।
एक ओर देश की आर्थिक स्थिति दिन-ब-दिन चिंतनीय होती जा रही है, दूसरी ओर खरीद-फरोख्त का आरोप लगना ही निंदनीय है।
काश ये आरोप झूठा साबित हो।
सम्भवतः आरोप झूठा ही साबित होगा कारण निहायत ही ईमानदार, प्रामाणिक और संस्कारवान लोगों के हाथों देश की बागडौर है।
फिर भी पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या से तो इनकार नहीं किया का सकता है।
हर तरह के प्रदूषण से निज़ात पाने के लिए आमजन को अवलंबन की बैसाखियों को छोड़ कर स्वयं के अंदर के इंसान का जगाना पड़ेगा।
सामूहिक प्रयास करना पड़ेंगे।
ये रूह बरसों से दफ़्न है तुम मदद करोगे
बदन के मलबे से इसको ज़िंदा निकालना
यह शेर भी शायर उमैर नजमीजी का ही है।
शशिकांत गुप्ते इंदौर