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छत्तीसगढ़ में जंगल बचाने का अहम सवाल

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पलाश सुरजन

हरियाणा-जम्मू-कश्मीर में नयी सरकारों के गठन और महाराष्ट्र-झारखंड में जोर पकड़ रही चुनावी तैयारियों के बीच छत्तीसगढ़ से आई एक ज़रूरी ख़बर पर चर्चा की दरकार है। ख़बर ये है कि सरगुजा जिले के फतेहपुर और साली गांवों के पास करीब 5 हज़ार पेड़ों की कटाई के मामले को लेकर स्थानीय निवासियों और पुलिस प्रशासन के बीच झड़प हो गई, जिसमें दोनों ही पक्षों को चोटें आई हैं। सरकारी ड्यूटी पर तैनात जिन लोगों को शारीरिक चोट पहुंची है, उनका इलाज और मुआवजा दोनों सरकार के जिम्मे पूरा हो जाएगा, लेकिन प्रदर्शनकारियों का भविष्य क्या होगा, ये कोई नहीं जानता। दरअसल ये सारा प्रदर्शन और सरकार के ख़िलाफ़ सीधा मोर्चा खोलने का फ़ैसला भविष्य के सवाल से ही जुड़ा है। इंसानों के साथ-साथ जल, जंगल, जमीन और समूची प्रकृति के भविष्य का यह सवाल है।

गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य में पेड़ों को बचाने की लड़ाई लंबे वक़्त से चल रही है। डेढ़ हज़ार किलोमीटर क्षेत्र में फैला यह घना जंगल  आदिवासी समुदायों का निवास स्थान है। इस घने जंगल के नीचे लगभग पांच अरब टन कोयला दबा है। इस वजह से पूंजीपतियों और पूंजीवादी सरकारों की गिद्ध दृष्टि यहां टिकी हुई है। इस इलाके में खनन बहुत बड़ा व्यवसाय बन गया है, लेकिन स्थानीय लोग इस खनन का लगातार विरोध कर रहे हैं। क्योंकि इसके लिए बड़ी बेदर्दी से जंगल को काटा जा रहा है और यहां की जैव विविधता के लिए बड़ा ख़तरा बन चुका है।

इस समय यहां पर पेड़ों की कटाई राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (आरआरवीयूएनएल) को दिए गए परसा कोल ब्लॉक खनन परियोजना के तहत की जा रही है। बीते गुरुवार को भी पेड़ों की कटाई होनी थी, लेकिन बुधवार से ही लोग यहां जमा हो गए। ताकि अधिकारियों को कार्रवाई करने से रोका जा सके। सरकार की तरफ से भी पर करीब 4 सौ पुलिस और वन विभाग के कर्मियों को तैनात किया गया था। पुलिस का कहना है कि स्थानीय लोग लकड़ी के डंडे, तीर और कुल्हाड़ी से लैस थे। प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि पुलिस के लाठी चार्ज के बाद उन्होंने जवाबी हमला किया। जबकि इन आरोपों से इंकार करते हुए सरगुजा के पुलिस अधीक्षक योगेश पटेल का कहना है ‘ग्रामीण हिंसक हो गये और उन्होंने हम पर हमला कर दिया। उन्हें रोकने और तितर-बितर करने के लिए हमने उचित जवाब दिया।’

छत्तीसगढ़ में भाजपा के सत्ता में आते ही पिछले साल दिसंबर में हसदेव अरण्य क्षेत्र में परसा पूर्व और केते बासन (पीईकेबी) के दूसरे चरण विस्तार के तहत कोयला खदान के लिए पेड़ काटने की कवायद बड़े पैमाने पर हुई थी। तब भी यह काम पुलिस के सुरक्षा घेरे में किया गया था। इससे पहले वन विभाग ने मई 2022 में पीईकेबी चरण-2 कोयला खदान की शुरुआत करने के लिए पेड़ काटने की कवायद शुरू की थी,  तब भी स्थानीय ग्रामीणों ने कड़ा विरोध किया था। बाद में इस कार्रवाई को रोक दिया गया था। अब स्थानीय प्रशासन ने दावा किया है कि उसके पास पेड़ काटने के लिए सभी आवश्यक अनुमतियां हैं, जो पीईकेबी-2 खदान का विस्तार है।

अब सवाल यह है कि पेड़ काटने की जिन आवश्यक अनुमतियों के दावे हो रहे हैं, उसके निहितार्थ क्या हैं। सत्ता और प्रशासन में बैठे लोगों और पूंजीपतियों, उद्योगपतियों के बीच सांठ-गांठ का खेल सदियों से चला आ रहा है। विकास के नाम पर प्रकृति का बेदर्दी से दोहन किया जाता है और आने वाली पीढ़ियां उसका भुगतान करती हैं। अभी पूरी दुनिया में जलवायु गर्म होने, ग्लेशियर के पिघलने, अकाल और बाढ़ जैसी स्थितियों के निर्मित होने पर चर्चाएं होती हैं, लेकिन इनका हल कुछ नहीं निकलता, क्योंकि अनाप-शनाप खर्चों पर हाथीदांत की जिन मीनारों पर चढ़कर ये विमर्श होते हैं, वहां से जमीनी सच्चाई नजर नहीं आती है। भारत भी इन चर्चाओं में अहम भागीदारी करता है और हमारे प्रधानमंत्री तो पर्यावरण बचाने के अचूक मंत्र वेद-पुराणों से निकालकर लाते हैं। लेकिन उनके अपने शासन के 11 सालों का हासिल ये है कि देश की राजधानी दिल्ली एक बार फिर वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण के नए झंडे गाड़ रही है।

इसलिए पेड़ काटने की सरकारी सहमति और असहमति के बीच जरूरी मुद्दा यह है कि हज़ारों सालों में जो जंगल तैयार हुआ है, उसे मिनटों में उजाड़कर इन नुकसान की भरपाई कैसे की जाएगी। गौरतलब है कि हसदेव अरण्य को 2010 में कोयला मंत्रालय एवं पर्यावरण एवं जल मंत्रालय के संयुक्त शोध के आधार पर पूरी तरह से ‘नो गो एरिया’ घोषित किया था, अर्थात वहां प्रवेश निषिद्ध था, लेकिन इस फ़ैसले को कुछ महीनों में ही रद्द कर दिया गया था और खनन के पहले चरण को मंजूरी दे दी गई थी। बाद में 2013 में खनन शुरू हो गया था। यह समझना कठिन नहीं है कि किन लोगों के दबाव में एक ज़रूरी फ़ैसले को कुछ महीनों में रद्द कर दिया गया।

एक रिपोर्ट के मुताबिक दावा है कि परसा खनन परियोजना के कारण 7सौ लोग विस्थापित होंगे और 840 हेक्टेयर घने जंगल नष्ट हो जाएंगे। वन विभाग की 2009 की जनगणना के अनुसार, लगभग 95 हज़ार पेड़ इस परियोजना के कारण काटे जाएंगे। लोगों को तो फिर भी किसी तरह दूसरी जगह बसाया जा सकता है, लेकिन एक बार जो पेड़ कट जाएंगे, क्या उसमें पलने वाले जीव-जंतुओं को संरक्षित किया जा सकेगा, क्या इतनी जल्दी इतना विशाल जंगल खड़ा किया जा सकेगा, इन सवालों के जवाब भी पेड़ काटने की अनुमति का कागज दिखाने वालों को देना चाहिए।

बहरहाल, गुरुवार को हुई झड़प की घटना पर लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने एक पोस्ट में कहा है कि , ‘हसदेव अरण्य में पुलिस बल के हिंसक प्रयोग के जरिये आदिवासियों के जंगल और जमीन को जबरन हड़पने का प्रयास आदिवासियों के मौलिक अधिकारों का हनन है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार के दौरान हसदेव जंगल को न काटने का प्रस्ताव विधानसभा में सर्वसम्मति से पारित किया गया था- ‘सर्वसम्मति’ का मतलब विपक्ष यानी भाजपा की संयुक्त सहमति है। लेकिन, सरकार में आते ही उन्हें न तो यह प्रस्ताव याद आया और न ही हसदेव के इन मूल निवासियों की दुर्दशा और अधिकार।’

राहुल गांधी ने एक वाजिब बिंदु की तरफ इशारा किया है कि जब पहले हसदेव के जंगल न काटने में भाजपा की भी सहमति थी, तो अब उसे यह सहमति याद क्यों नहीं है। यहां कांग्रेस या भाजपा या किसी अन्य दल से ऊपर उठकर केवल जंगल को बचाने के बारे में विचार हो, यही सबके लिए बेहतर होगा।

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