नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने जमानत के संबंध में सोमवार को अहम टिप्पणी की। जस्टिस एसके कौल और जस्टिस एमएम सुंदरेश की पीठ ने जमानत से जुड़े कानूनों में सुधार की सख्त जरूरत बताई है। पीठ ने ब्रिटेन की तर्ज पर सरकार से इसे लेकर अलग कानून बनाने पर विचार करने को कहा है। 1977 में देश की सबसे बड़ी अदालत ने बेल को लेकर अहम व्यवस्था दी थी। इसका जिक्र अक्सर किया जाता है। उसने कहा था कि जमानत नियम और जेल अपवाद होनी चाहिए। हालांकि, निचली अदालतों का रुख इसके ठीक उलट रहा है। जमानत देने में निचली अदालतों की अनिच्छा जांच एजेंसियों के काम आई है। ये लोगों को ज्यादा से ज्यादा समय तक जेल में रखने के लिए दबाव डालती हैं। सोमवार को जस्टिस कौल और सुंदरेश की बेंच ने इस बात को स्वीकार किया। पीठ ने माना कि अदालतों के बेल देने से इनकार करने के रवैये ने जांच एजेंसियों का मनोबल बढ़ाया है। एजेंसियों ने इसे दंड देने का हथियार बना लिया है। गिरफ्तार करने की ताकत और आजादी के अधिकार के बीच रस्साकशी पुरानी है।
बेल को लेकर क्या है कानून?
कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर (CrPC) को 1882 में ड्राफ्ट किया गया था। समय-समय पर बदलावों के साथ इसका इस्तेमाल किया जाता रहा। सीआरपीसी में बेल यानी जमानत को परिभाषित नहीं किया गया है। इसमें भारतीय दंड संहिता (IPC) के तहत सिर्फ कैटेगरी हैं। इनमें ‘बेलेबल’ (जमानती) और ‘नॉन बेलेबल’ (गैर-जमानती) शामिल हैं। CrPC मजिस्ट्रेटों को जमानती मामलों में बेल देने का अधिकार देती है। इसमें सिक्योरिटी या सिक्योरिटी के बिना बेल बॉन्ड पर रिहाई मिल जाती है। गैर-जमानती अपराध संज्ञेय होते हैं। ये वॉरेंट के बगैर पुलिस को गिरफ्तारी का अधिकार देते हैं। ऐसे मामलों में मजिस्ट्रेट तय करते हैं कि आरोपी को बेल दी जाए या नहीं।
गिरफ्तार करने की ताकत और इसकी जरूरत
सुप्रीम कोर्ट गिरफ्तार करने की ताकत और ऐसा करने की जरूरत को अलग-अलग रखने पर लगातार जोर देता रहा है। कोर्ट ने साफ तौर पर कहा है कि जांच एजेंसियों को गिरफ्तारी करने का अधिकार है। लेकिन, वो इसे बिना ठोस आधार के रूटीन नहीं बना सकती हैं। इस तरह की गिरफ्तारी व्यक्ति की आजादी को छीनती है। जोगिंदर कुमार बनाम राज्य (1994) में शीर्ष अदालत ने पुलिस की गिरफ्तार करने की ताकत के दुरुपयोग का जिक्र किया था। कोर्ट ने उस वक्त कहा था कि तब तक कोई गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए जब तक यह संतोष न कर लिया जाए कि आरोपी के खिलाफ साक्ष्य प्रमाणित हैं। फिर डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल (1996) मामले में भी शीर्ष न्यायालय का यही रुख देखने को मिला था। कोर्ट ने कहा था कि गिरफ्तार और पूछताछ की शक्ति का इस्तेमाल नागरिक स्वतंत्रता के प्रावधानों का ख्याल रखकर किया जाना चाहिए।
बेल नियम, जेल अपवाद
जस्टिस कृष्ण अय्यर ने 1977 में राजस्थान बनाम बालचंद मामले में अहम रूलिंग दी थी। दो पन्नों के जजमेंट में कोर्ट ने एक सुर में कहा था कि सभी मामलों में बेल दी जानी चाहिए। इससे तभी इनकार किया जाना चाहिए जब आरोपी के भाग जानने, दोबारा अपराध दोहराने या गवाहों को प्रभावित करने का जोखिम हो। अय्यर ने गुदीकांती नरसिंमहुलु बनाम राज्य (1978) में भी दोबारा इस बात पर जोर दिया था। कोर्ट ने कहा था कि आजादी आरोपी का बुनियादी अधिकार है। चूंकि वह आरोप सिद्ध होने के साये में है, इसलिए उससे यह अधिकार नहीं छीना जा सकता है।
गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य (1980) केस में जमानत देने की मंशा को सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से समझाया था। तब यह कहा गया था कि दंडात्मक उपाय के रूप में जमानत को खारिज नहीं किया जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा था कि जमानत का उद्देश्य मुकदमे में अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करना है। जमानत को सजा के रूप में नहीं रोका जाना चाहिए।
1994 में विचाराधीन कैदियों का प्रतिनिधित्व करने वाली सुप्रीम कोर्ट कानूनी सहायता समिति बनाम भारत सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायायलय ने दोबारा जमानत के महत्व पर जोर दिया था। उसने कहा था कि अगर लंबित मुकदमे की अवधि अनावश्यक रूप से लंबी हो जाती है तो अनुच्छेद 21 में सुनिश्चित निष्पक्षता को झटका लगेगा। अदालत ने इस फैसले के जरिये गाइडलाइन जारी की थी। यह उन मामलों के संदर्भ में थी जिनमें अधिकतम 10 साल तक की सजा है। इसमें अधिकतम सजा की आधी अवधि काटने के बाद जमानत पर रिहा करने पर दिशानिर्देश जारी किए गए थे। 2012 में संजय चंद्रा बनाम सीबीआई मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी को भी सिर्फ इस आशंका से सलाखों के पीछे रखना ठीक नहीं है क्योंकि वह गवाहों को प्रभावित कर सकता है। इस फैसले में भी कोर्ट ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर काफी जोर दिया था। उसने कहा था कि आरोपी को सबक सिखाने के मकसद से बेल देने से इनकार करना सही नहीं है।
सिद्धांतों के उलट चली हैं निचली अदालतें
निचली अदालतों की बात करें तो वो सिद्धांतों के उलट चली हैं। इसके कई उदाहरण हैं। इनमें मोहम्मद जुबैर, स्टैन स्वामी, असीम त्रिवेदी के मामले शामिल हैं। ऑल्ट न्यूज के सह-संस्थापक जुबैर को तीन अलग-अलग मामलों में गिरफ्तार किया गया। बेशक, ये अलग-अलग थे, लेकिन सभी पुराने ट्वीट से जुड़े हैं। इनमें साम्प्रदायिक हिंसा फैलाने का आरोप है। दिल्ली की अदालत ने 2 जुलाई को जुबैर की याचिका खारिज कर उन्हें जुडिशियल कस्टडी में भेज दिया था। जिस मामले में जुबैर आरोपी हैं, उसमें अधिकतम सजा 7 साल से कम है। उत्तर प्रदेश पुलिस ने भी जुबैर को जिन दो आरोपों में गिरफ्तार किया है, उनमें भी सजा सात साल से कम ही है।
84 साल के स्टैन स्वामी के मामले में भी यही देखने को मिला। भीमा-कोरेगांव मामले में उन्हें गिरफ्तार किया गया था। न्यायायिक हिरासत में ही उनकी मौत हो गई थी। जबकि 21 अप्रैल से उनकी जमानत याचिका हाई कोर्ट में लंबित थी। कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को 2012 में गिरफ्तार किया गया था। अपने कार्टूनों में राष्ट्रीय प्रतीक और संसद को गलत रोशनी में पेश करने के लिए उन्हें अरेस्ट किया गया था। उन्हें चार दिन जेल में रखा गया था। बाद में बॉम्बे हाई कोर्ट ने असीम को राहत दी थी।
फेसबक पर पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी की मॉर्फ्ड पिक्चर पोस्ट करने के लिए बीजेपी यूथ विंग एक्टिविस्ट प्रियंका शर्मा को 2019 में गिरफ्तार किया गया था। जुडिशयल कस्टडी में चार दिन बिताने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें बेल दी थी। स्टैंडअप कोमेडियन मुनव्वर फारूकी को जनवरी 2021 में गिरफ्तारी किया गया था। उन पर धार्मिक भावनाएं आहत करने का आरोप लगा था। 35 दिन मुनव्वर को सलाखों के पीछे रहना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद उनकी रिहाई का रास्ता साफ हुआ।
क्या कहता है ब्रितानी कानून?
ब्रिटेन का 1976 में बना कानून बेल देने की प्रक्रिया को लेकर है। इसकी एक सबसे बड़ी खूबी है। इसका मकसद जेलों में कैदियों की संख्या घटाना है। कानून में ऐसे कई प्रावधान हैं जो कैदियों को बेल पाने में सहायता प्रदान करते हैं। भारत के संदर्भ में यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि देश की जेलों में बंद दो तिहाई से ज्यादा कैदी अंडर ट्रायल हैं। कौल और सुंदरेश की पीठ ने सोमवार को कहा है कि लोकतंत्र में इस तरह की छवि नहीं बननी चाहिए कि यह पुलिस तंत्र है। दोनों आपस में उलटे हैं।