जमशेदपुर
झारखंड-ओडिशा सीमा के बीच फैले सारंडा जंगल में हो रहे अंधाधुंध खनन का साइड इफेक्ट झारखंड के कोल्हान प्रमंडल के अंतर्गत आने वाले जिलों के अलग-अलग इलाकों में देखा जा सकता है। प्रमंडल के पूर्वी सिंहभूम जिले में जंगलों-पहाड़ों के बीच बसे जादूगोड़ा में यूरेनियम की खदानें हैं। यहां वर्ष 1967 से खनन चल रहा है। विशेषज्ञ दावा कर रहे हैं कि इस कारण खदानों के 10 किलोमीटर की परिधि में आने वाले गांवों के ग्रामीणों पर रेडिएशन का असर साफ दिख रहा है।
झारखंड ऑर्गेनाइजेशन अंगेस्ट रेडिएशन के अध्यक्ष घनश्याम बिरूली ने पत्रकारो की टीम को बताया कि रेडिएशन के कारण इस इलाके में 15 वर्षों में लगभग 200 बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से अपंग पैदा हुए हैं। इलाके में काम काम करने वाली सहिया और आंगनबाड़ी सेविकाओं ने बताया कि इस क्षेत्र में 100 महिलाओं में से 30 महिलाओं का गर्भपात हो जा रहा है। इसकी सच्चाई जानने के लिए पत्रकारो की टीम ने खदानों के आसपास के सभी गांवों का दौरा किया। सच्चाई हैरान करने वाली मिली। टीम में भास्कर के रिपोर्टर के साथ आंगनबाड़ी सेविका और सहिया शामिल रहीं। इसमें कुछ ऐसी जानकारियां सामने आईं।
जन्मजात अपंग पैदा हुई बच्ची।
चिंताजनक: 20 प्रतिशत का एक न एक बार, 10 प्रतिशत में 4-5 बार गर्भपात वाली महिलाएं भी
1. जादूगोड़ा में 100 में 30 से ज्यादा महिलाओं का हो जाता है गर्भपात : हमारी टीम ने इचडा, दुड़को, मेचुआ, भाटिन, बांगो, माटीगोडा, डुंगरीडीह, चाटीकोचा, तिलाईटांड, झरिया में सर्वे किया। एक महिला ने बताया कि पांच बार मरे हुए बच्चे पैदा हुए। एक महिला ने अपने चार मरे हुए बच्चे पैदा होने की कहानी बताई। दुड़को में महिलाओं ने बताया दो से तीन माह के गर्भ के बाद अचानक गर्भपात हो जा रहा है। 100 में 20 महिलाओं ने बताया कि उनका एक बार गर्भपात हो चुका है। 10 का एक बार से ज्यादा। इनमें चार-पांच बार गर्भपात वाली महिलाएं भी हैं। स्वास्थ्य विभाग के आंकड़े के अनुसार पू. सिंहभूम में गर्भपात दर 6.17% है, जबकि जादूगोड़ा में 30.15% है।
सहिया और स्थानीय डॉक्टरों ने भी की पुष्टि
2. सहिया लतिका सिंह ने बताया कि 4 महीने में उनके आंगनबाड़ी क्षेत्र में 5 महिलाओं का गर्भपात हुआ है। गर्भ नहीं ठहरने के भी मामले भी काफी हैं। वहीं, पोटका पीएचसी के प्रभारी चिकित्सा अधिकारी डॉ रंजीत महाकुंड ने कहा कि रेडिएशन से गर्भपात-अपंगता का खतरा बढ़ जाता है।
रेडिएशन स्पेशलिस्ट बोले- क्रोमोजोम को पहुंचता है नुकसान
3. स्त्री रोग विशेषज्ञ और रेडिएशन व कैंसर विशेषज्ञ डॉ. सुशील कुमार शर्मा ने कहा कि रेडिएशन के कारण ऐसा हो रहा है। दरअसल, भ्रूण 46 क्रोमोजोम से मिलकर बनता हे। रेडिएशन से क्रोमोजोम को नुकसान पहुंचता है। ऐसे में या तो बच्चा अपंग पैदा होता है या फिर महिला का गर्भपात हो जाता है।
गर्भपात: पूर्वी सिंहभूम बनाम जादूगोड़ा
- 3900 बच्चे औसतन हर माह जन्म लेते हैं पूर्वी सिंहभूम में
- 241 महिलाओं का औसतन हर माह गर्भपात
- 252 बच्चों का हर माह औसतन जन्म पोटका प्रखंड में
- 76 महिलाओं का औसतन गर्भपात हर माह होता है पोटका के जादूगोड़ा में
शारीरिक के साथ-साथ मानसिक विकलांग पैदा हो रहे बच्चे
गांव के एक व्यक्ति ने बताया कि 10 वर्ष पहले माइनिंग एरिया में में विकलांग बच्चे पैदा होते थे। इसकी एक सूची भी बनी थी। इसमें 100 से अधिक बच्चों के नाम थे। उन्होंने बताया कि पहले शारीरिक विकलांगता सामने आ रही थी। अब शारीरिक विकलांगता के साथ-साथ मानसिक विकलांगता वाले बच्चे पैदा हो रहे हैं।
झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम में 800 वर्ग किलोमीटर में फैला साल के पेड़ों का जंगल सारंडा खोखला होता जा रहा है। एशिया में साल के पेड़ों के इस सबसे बड़े जंगल की तबाही की वजह है खनन और पेड़ों की अवैध कटाई। इस दंश से न केवल जंगल खत्म हो रहा है, बल्कि जिंदगी भी तबाह होती जा रही है।
जंगल के इलाके में सबसे ज्यादा आबादी संथाल आदिवासियों की है, जिनकी भाषा “हो” है। इस भाषा में सारंडा का अर्थ है 700 पहाड़ियों से घिरी जमीन। जमीन के बाद सबसे ज्यादा संकट में यही आदिवासी हैं। इनकी आने वाली पीढ़ियां जेनेटिक बीमारियों के साथ जन्म ले रही हैं। करीब 90% आबादी गंभीर बीमारियों का शिकार है। प्रकृति पर निर्भर इन आदिवासियों के सामने पीने के साफ पानी और जलावन की लकड़ी का भी संकट है।
भास्कर रिपोर्टर ललित दुबे और फोटो जर्नलिस्ट सुदर्शन शर्मा जंगल और आदिवासियों की जिंदगी पर माइनिंग के दंश का असर जानने पहुंचे। जो कुछ सामने आया, वो बेहद परेशान करने वाला और भयावह है। पढ़िए ग्राउंड रिपोर्ट…
अब तक कितना और कैसे तबाह हुआ सारंडा?
सारंडा पहुंचने पर आदिवासियों से बातचीत और पड़ताल में जो पता चला उसके मुताबिक इस इलाके की सबसे बड़ी समस्या साल के पेड़ों की अवैध कटाई है। इसकी वजह से जंगल बंजर होता जा रहा है, पर्यावरण पर असर पड़ रहा है और इसका दुष्प्रभाव यहां के आदिवासियों की जिंदगी खत्म कर रहा है। अब तक 128 वर्ग किमी. खनन क्षेत्र में जंगल तबाह हो चुका है।
सारंडा के मनोहरपुर, किरीबुरू, मेघाहातुबुरू से साला 18.8 मिलियन टन लौह अयस्क निकलता है। गुवा से सालाना 20820 टन मैगनीज सालभर निकलता है। इसकी आड़ में अवैध खनन माफिया भी एक्टिव रहते हैं और उनके साथ पेड़ों की अवैध कटाई। अवैध खनन और अवैध कटाई के चलते चिरिया, दूबिल, अंकुआ, बिनुआ, लोढ़ो, हंसागड़ा नाका इलाके में गाद बहती है और इससे खेती वाली जमीन बंजर हो रही है।
सारंडा की यह तस्वीर साफ बयां करती है कि खनन और पेड़ों की कटाई ने इस जमीन को कैसे जख्म दिए हैं।
इस इलाके में आगे बढ़ने पर जगह-जगह कटे पेड़ देखने को मिले। लकड़ी माफिया, स्थानीय रंगदार, वन विभाग के कर्मचारियों की मिलीभगत से इन पेड़ों को सुखाकर तस्करी की जा रही है। सारंडा से राऊरकेला और रांची में यह लकड़ी भेजी जाती है। बिसरा वन माफिया का बड़ा केंद्र है। राजमहल-साहिबगंज में पत्थर माफिया वनों की कटाई करा रहे हैं। वन अफसरों, रंगदारों की मदद से लकड़ी पाकुड़ होते हुए पश्चिम बंगाल भेजी जा रही है। बंगाल में लकड़ी का ओपन मार्केट होने से ज्यादा समस्या नहीं होती। गोड्डा से लकड़ियां बांका-भागलपुर भेजी जाती हैं।
आदिवासियों और जंगल पर क्या असर?
पानी बना कैंसर, डायरिया और स्किन डिजीज की वजह: अवैध कटाई और अवैध खनन से 430 वर्ग किमी संरक्षित क्षेत्र कब्रगाह बन रहा है। अकूत प्राकृतिक संपदा से धनी सारंडा अब तेजी से मैग्नेटिक फील्ड बनता जा रहा है। पड़ताल में पता चला कि बड़े हिस्से में लौह अयस्क खनन से रेडिएशन फैल रहा है। ज्यादा खतरा अवैध खनन से है, क्योंकि उसे मॉनिटर नहीं किया जा रहा। वैज्ञानिक डॉ. मनीष कुमार झा ने बताया कि माइनिंग के बाद खनिज धोने पर निकलने वाले लाल पानी से कैंसर, डायरिया व त्वचा रोग हो रहा है।
जेनेटिक बीमारियां आम बात हो गईं: झा कहते हैं कि 50 साल से ज्यादा अरसे से हो रहे खनन के चलते इस इलाके में अपंगता, बौनापन जैसी जेनेटिक समस्याएं सामने आ रही हैं। ये बीमारियां बढ़ रही हैं, जरूरत पर डॉक्टर भी नहीं मिलते। झारखंड ऑर्गेनाइजेशन अगेंस्ट रेडिएशन के अध्यक्ष घनश्याम बिरोली ने बताया कि रेडिएशन से पिछले 10 साल में राज्य में 150 से ज्यादा बच्चे अपंग पैदा हुए हैं। जादूगोड़ा में यूरेनियम कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड के पास के गांवों में यह असर साफ दिखता है। पड़ताल में मेचुआ, टुआंगडुंगरी, चाटी कोचा, डुंगरीडीह, तिताईताड़ ज्यादा प्रभावित दिखे।
तस्वीर आदिवासी बच्चों की है, जो जेनेटिक बीमारियों के साथ जन्मे। वैज्ञानिक इसकी वजह दूषित पानी और रेडिएशन बता रहे हैं।
वातावरण में ऑक्सीजन घटनी शुरू: वनों की कटाई से जलवायु और जैव विविधता प्रभावित हो रही है। इससे जल और कार्बन चक्र भी बाधित हो रहा है। मीथेन जैसी जहरीली गैसों की मात्रा में वृद्धि हो रही है। जंगलों से मिलने वाली ऑक्सीजन की मात्रा कम होनी शुरू हो गई है। जंगल की मिट्टी का कटाव हो रहा है और इससे सिंचाई पर काफी असर पड़ रहा है।
एक स्टडी के मुताबिक, देश में साल 2001 से 2020 के बीच 20 लाख हेक्टेयर जमीन पर फैले पेड़ों की कटाई की गई है। 2000 के बाद से लगभग 5% पेड़-पौधे वाली जमीन में कमी आई है। 840 वर्ग किमी में फैले सारंडा में पेड़ों की कटाई से झारखंड के वायुमंडल को नुकसान हो रहा है।
35 हजार लोग दूषित पानी पीने को मजबूर, जलावन की लकड़ी भी नहीं
सारंडा जंगल के छोटा नागरा, तेतलीघाट, थोलकोबाद समेत 11 वनग्राम में लगभग 35 हजार आबादी रहती है। चिरिया गांव के प्रधान लक्ष्मण सामद कहते हैं, ‘माइंस से निकलने वाले पानी से अधिकतर ग्रामीण गंभीर बीमारियों से पीड़ित हैं। छोटा नागरा, तेतलीघाट, दूबिल, जामुंडिया, पोंगा, कुदलीबाद, थोलकोबाद, करमपदा, भनगांव, नवागांव, कुमडी, तिरिलपोसी, बिटकिलसोय, बलिबा व दीघा जैसे वनग्रामों की 35 हजार आबादी प्रदूषित पानी पीने को मजबूर है।’
यहां की नदियों और झरनों का पानी खनिजों की धुलाई से दूषित हो रहा है। एक्सपर्ट का कहना है कि बीमारियों की वजह यह भी है।
आदिवासियों के सामने दोहरी मार है। एक तरफ उनकी जमीन और जंगल तबाह हो रहे हैं तो दूसरी तरफ नक्सलियों का खतरा है। जीने के लिए जद्दोजहद हर दिन मुश्किल होती जा रही है और सुनने वाला कोई नहीं। यहां वनों में रहने वाले आदिवासी प्रकृति पर निर्भर हैं। उन्हें पीने का साफ पानी नहीं मिल रहा। साथ ही खाना बनाने के लिए जलावन की लकड़ी भी नहीं मिल रही है। सारंडा के ग्रामीणों का कहना है कि बच्चों में जन्मजात अपंगता बढ़ी है। कुछ बच्चे जैसे-जैसे बड़े हो रहे हैं, उनके पैर टेढ़े हो रहे हैं।
वन अधिकार कानून का भी लाभ नहीं मिल रहा
वन अधिकार कानून 2006 में लागू हुआ। झारखंड में अब तक 61,970 लोगों को ही वन पट्टा मिला। जबकि 1,10,756 व्यक्तिगत-सामुदायिक दावे किए गए हैं। 2,57,154 हेक्टेयर जमीन ही वनवासियों को दी गई है। हमारी पड़ताल में पता चला कि दावों का निपटारा करने वाले कल्याण और वन विभाग में कोऑर्डिनेशन नहीं है। अधिकारी वन भूमि देने में आनाकानी कर रहे हैं।