कीर्ति राणा
इंदौर। फिल्मी दुनिया में गीतकार साहिर लुधयानवी ने अपनी कलम से जो मुकाम पाया उन सदाबहार गीतों-नज्मों को सुनाने के साथ ही उन्हें याद करते हुए अनसुने कुछ किस्से भी सुनाए साहिर के दीवानों ने। मौका था उर्दू के उस करिश्माई सितारे की पुण्यतिथि का। कविता कोना का 42 वां पोस्टर (साहिर की नज्म वाला) प्रेस क्लब अध्यक्ष अरविंद तिवारी ने लोकार्पित किया और इस समारोह में शामिल लोगों ने प्रेस क्लब हॉल में उन्हें अपने अंदाज में याद भी किया।इसी समारोह में यह किस्सा भी सुनाया गया कि साहिर को जब सुधा मल्होत्रा ने अपनी मैरेज का कार्ड दिया तब उन्होंने गीत लिखा था चलो इक बार फिर से…।
साहिर के बंगले पर हर शाम महफिल जमती थी। चूंकि इस महफिल मे खाने-पीने का सारा खर्च साहिर वहन करते थे ऐसे में महफिल में यदि कोई बेअदबी करता तो साहिर बुरी तरह से बेईज्जत करते हुए उसे बाहर का रास्ता दिखा देते थे।इस महफिल का अनसुना किस्सा बताते हुए अरविंद जोशी ने सुनाया कि एक रात महफिल जमी हुई थी, एक लड़की दबे पांव आकर पीछे बैठ गई।महफिल खत्म हुई, सब लोग विदा लेकर रवाना होने लगे।यह लड़की साहिर के समीप पहुंची और एक कार्ड उनके हाथों में दिया। साहिर का सारा नशा काफूर हो गया। लड़की की नजरों में देखा और कानों में लड़की के शब्द गूंज रहे थे साहिर साहब मेरी मैरेज हो रही है, अब मैं किसी फिल्म में नहीं गाऊंगी।
साहिर मिन्नत करते रहे गाना मत थोड़ो लेकिन वह नहीं मानी पर इस बात पर राजी हो गई कि अभी जिस फिल्म में वो गीत लिख रहे हैं उसके गीत गाएंगी। गुमराह फिल्म में तभी साहिर ने गीत लिखा ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों…इस गीत की कुछ पंक्तियां इतनी भावुक थी जो सुधा मल्होत्रा के प्रति उनका अनुराग भी जाहिर करती थीं।
साहिर ने काजल फिल्म के दृश्य की सिचुएशन पर गीत लिखा ‘ये जुल्फ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा….’ इस गीत को तरन्नुम में सुनाने के साथ ही नवीन घोड़पकर ने इससे जुड़ा किस्सा सुनाया कि साहिर का गीत संगीतकार रवि को पसंद तो आया लेकिन इस गीत की हर पंक्ति में अच्छा शब्द करीब 17 बार आया था और रवि की परेशानी यह थी कि इसे संगीत में कैसे बेहतर तरीके से शामिल करें।उन्होंने यह परेशानी साहिर को बताने के साथ ही ‘अच्छा’ शब्द का हवाला देते हुए एक तरह से गीत को रिजेक्ट ही करने का मन बना लिया था।साहिर ने अपनी परेशानी गीतकार मोहम्मद रफी को बताते हुए मदद मांगी, रफी ने संगीतकार रवि को कहा जितनी भी बार अच्छा शब्द इस्तेमाल हुआ है मैं हर बार उसे अलग अलग अंदाज में गाऊंगा, और इस तरह साहिर का टेंशन दूर हुआ।
संतोष जोशी ने गुलजार का लिखा वह संस्मरण पढ़ा कि किस तरह साहिर का जब सितारा बुलंदी पर था और गीतकार जावेद अख्तर मुफलिसी के दौर से गुजर रहे थे।साहिर उनकी हालत के साथ खुद्दारी भी जानते थे। मेज पर दो सौ रुपये रख दिये और जावेद से नजरें भी नहीं मिलाई।बाद में जब भी साहिर से जावेद का सामना होता जावेद हर बार कहते मुझे आप का कर्ज चुकाना है।
बरसों बाद एक शाम डॉ कपूर ने फोन पर सूचना दी कि साहिर नहीं रहे। जावेद तुरंत उनके घर पहुंचे देखा उर्दू शायरी का बुलंद सितारा सफेद चादर में लिपटा हुआ था। जावेद ने साहिर के वो ठंडे हाथ छुए जिन अंगुलियों ने अनमोल गीत लिखे थे।
साहिर को उसी कब्रिस्तान में दफनाया गया जहां मोहम्मद रफी, तलत महमूद, मधुबाला की कब्र थी। बाकी सब लोग चले गए, गुमसुम-उदास जावेद अख्तर काफी देर बैठे रहे, जब उठ कर अपनी कार की तरफ जा रहे थे कि पीछे से ‘जावेद साब’ आवाज सुनी तो पलट कर देखा। साहिर के दोस्त अलताफ नाइट सूट पहने हुए थे और कह रहे थे जावेद साब कुछ रुपये हैं आप के पास कब्र बनाने वाले मजदूर को देना है। जावेद ने पूछा कितने देना है? दो सौ रुपये। इस तरह जावेद अख्तर ने अंतिम समय पर साहिर का कर्ज चुकाया।
कवि प्रदीप नवीन ने साहिर की फिल्मों और गीतों आधारित तुकबंदी सुनाई, ‘तंग आ चुके हैं कश्मेकश जिंदगी से हम…’ गीत डिम्पल अग्रवाल ने सुनाया, साहिर की ही आवाज में उनकी नज्म ‘ताजमहल’ की रिकार्डिंग सत्यनारायण व्यास (सूत्रधार) ने, विजय दलाल ने साहिर का गीत, किशन शर्मा ने उनकी युद्ध वाली कविता के अंश, विजय खंडेलवाल और संदीप दिघे ने अपनी गजलें सुनाई, साहिर-अमृता-इमरोज से जुड़े किस्से भी सुनाये, आनन्द पचोरी, सुभाष गोलछा, देवेन्द्र डांगी, जगदीश अवस्थी,एसएन पंचोली, एसजे पंजाबी, मनीष मत्ता, नीरज पुरोहित, सुश्री अनुप्रिया देवतालेआदिभी कार्यक्रम में मौजूद थीं।
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