इस सप्ताह बहस इस मुद्दे पर होती रही कि क्या हमारे पत्रकार वह कहने-लिखने का जोखिम उठा सकते हैं, जो मोदी सरकार को पसंद नहीं है. जाहिर है, सरकार की नज़रों में मीडिया इतना बड़ा खतरा बन गया है कि जून के उत्तरार्द्ध में नौ आला मंत्रियों के समूह (जीओएम) ने इस भयानक खतरे का सामना करने के उपायों पर विचार के लिए कई बैठकें कर डाली.
ठीक उसी समय (15 जून) गलवान में फ़ौजियों की टक्कर के चलते चीन के साथ युद्ध की स्थिति बन गई थी, इधर लॉकडाउन के बाद हजारों प्रवासी कामगार सैकड़ों मील दूर अपने-अपने घरों के लिए पैदल चल पड़े थे, और भारत में कोरोनावायरस का ग्राफ ऊपर चढ़ रहा था.
अगर आप ‘लीक’ हुए दस्तावेज़ को पढ़ेंगे, जिसे उपरोक्त ‘जीओएम’ द्वारा तैयार किया गया माना जाता है, तो पता चलेगा कि उससे वास्तव में किसी खास खतरे का पता नहीं चलता, सिवा इसके कि उस पर रंगीन और वह भी गलत रंग की पर्चियां लगाई जा सकती हैं. अगर इसका अर्थ आपके दरवाजे पर सीबीआइ , ईडी, या ऐसी ही किसी एजेंसी की दस्तक से है, तो आप किसी दस्तावेज़ में यह कहा जाता नहीं पाएंगे. अगर आप मेरे जैसे जिद्दी आशावादी होंगे तो आप यह तक कह सकते हैं— बहुत खूब! हम पत्रकार इतने महत्वपूर्ण हो गए कि जब देश में महामारी फैली हो, युद्ध का खतरा मंडरा रहा हो, तब आधा मंत्रिमंडल हमारे बारे में सोचने में जुटा है. इसलिए, आपका बहुत बहुत शुक्रिया, आपकी मेहरबानियां गिन रहे हैं.
चाहे कोई भी पार्टी सत्ता में हो, किसी भी सरकार से सवाल पूछना हमेशा जोखिम भरा होता है. इन दिनों बस इतना हुआ है कि यह जोखिम कहीं ज्यादा बढ़ गया है. आप कह सकते हैं कि यह हमारी जिंदगी का ही हिस्सा है. वैसे, अपना रंग उतार कर खुद को ‘दोस्ताना’ रंग में रंग लेने का विकल्प तो हमेशा खुला है. लेकिन आज एक कमेंटेटर के सामने दोहरा खतरा पैदा हो गया है. आपने सरकार पर उंगली उठाई तो आप घृणा के पात्र बन गए, और विपक्ष पर सवाल खड़ा किया तब आप शाप के भागी बने. कहा जा सकता है कि श्रीमान जी! स्वतंत्र प्रेस की मुख्य ज़िम्मेदारी क्या यही है कि सरकार पर हमला न करके विपक्ष को आड़े हाथों ले? महीनों से मैं पीड़ित के कोप से इतना डरता रहा कि मैं कांग्रेस पार्टी या राहुल गांधी के बारे में कुछ आलोचनात्मक लिखना तो दूर, भूले से भी कुछ नकारात्मक लिखने से परहेज करता रहा. तब भी जब उसकी गिरावट, उसकी अलसाई चाल लगातार जारी थी.
अब मैं इस सवाल के साथ आग में कूद रहा हूं कि आज जो हम शिकायत करते रहते हैं कि संस्थाओं को कमजोर किया जा रहा है, कि ‘एजेंसियों’ का दुरुपयोग किया जा रहा है, फिरकापरस्ती और सामाजिक भेदभाव करने वाले कानून बनाए जा रहे हैं, देशद्रोह की धारा का इस तरह इस्तेमाल किया जा रहा है मानो यह कोई पार्किंग टिकट हो, कि संसद में विधेयकों को जबरन पारित कराया जा रहा है, कि मीडिया को लेकर ‘जीओएम’ की इस तरह की बैठक हो रही है, यह सब क्या जरा भी मुमकिन हो पाता अगर लोकसभा में कांग्रेस को 100 या यूपीए को 130-150 सीटें हासिल होतीं?
लोकतंत्र में संस्थाओं का, नागरिकों की स्वाधीनता का सम्मान करने और संविधान के पालन की गारंटी देने की मुख्य जवाबदेही शासक दल पर होती है. लेकिन इन सबके लिए संघर्ष करना विपक्ष की भी मुख्य ज़िम्मेदारी होती है. इसके लिए, विपक्ष की ज़िम्मेदारी यह भी होती है कि वह अपनी ताकत बनाए और उसे जो ताकत विरासत में मिली है उसे गवां न दे. अतीत में जब दशकों तक कांग्रेस का वर्चस्व रहा तब लोहियावादियों से लेकर जनसंघ तथा भाजपा और वाम दलों तक तमाम विपक्षी पार्टियों ने अपनी पहचान इसी तरह बनाई.
वास्तव में, 1984 में जब राजीव गांधी ने चुनाव में सबका सफाया कर दिया था तब उन्होंने मज़ाक में (और कुछ कटाक्ष करते हुए) कहा था कि ‘हमने विपक्ष के लिए 10+2+3 सिस्टम लागू कर दिया है.’ यह इशारा बेशक जनता पार्टी, भाजपा, लोकदल को क्रमशः मिली 10, 2, 3 सीटों की ओर था. लेकिन घायल विपक्षी नेता चंद महीनों के भीतर ही मैदान में खड़े होकर ताल ठोकने लगे थे.
आधा 1985 बीतते-बीतते यानी राजीव गांधी के 415 लोकसभा सीटें जीतने के साल भर के अंदर ही विपक्ष उनके गले पर सवार था, चाहे वह शाह बानो का मामला हो या मंडल आयोग का. बाद में जब राजीव मीडिया पर लगाम लगाने के लिए बदनाम ‘मानहानि विरोधी विधेयक’ ले आए तो विपक्ष, खासकर भाजपा को प्रेस की आज़ादी बचाने का ऐसा कारगर मुद्दा मिल गया जिसमें मेहनत कम और फायदा ज्यादा था.
राजीव सरकार के प्रतिशोध के शिकार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ का इतिहास देख जाइए. जब कांग्रेस के गुर्गों ने इसके कर्मचारी संघ पर कब्जा करके हड़ताल करवा दी और अखबार को बंद करवाने की धमकी देने लगे तो भाजपा और आरएसएस ने न केवल विरोध किया बल्कि प्रेस की मशीनों को चलाए रखने के लिए अपने स्वयंसेवक तक भेज दिए. आज एक विचित्र स्थिति पैदा कर दी गई है, आज सरकार आपको अलग रंग में रंगना चाहती है, तो विपक्ष और खासकर कांग्रेस आप पर थूक रही है.
कहा जा सकता है कि शासक दल का पाप अगर कार्रवाई करना है, तो विपक्ष का पाप कार्रवाई से परहेज करना है. सभी प्रमुख मुद्दों पर, बढ़ती बेरोजगारी से लेकर ईंधन की चढ़ती कीमतों तक या संस्थाओं को कमजोर करने से लेकर अल्पसंख्यकों तथा अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमलों तक, विपक्ष ‘ऐक्सन’ से गायब, निष्क्रिय नज़र आता है. तुलनात्मक रूप से देखें, तो राजीव गांधी की लोकसभा में महज दो सीटों वाली भाजपा प्रायः हर दिन जंतर-मंतर पर प्रदर्शनकारियों का जमावड़ा जुटा देती थी. आज विपक्ष बस गुस्सैल ट्वीट करता है.
विपक्ष पर सवाल न खड़ा करने के मेरे परहेज का बांध दरअसल पिछले सप्ताह केरल से मिली कुछ तसवीरों ने तोड़ दिया. इनमें राहुल गांधी कहीं मछुआरों के साथ तैरते दिखते हैं, तो कहीं उनकी पार्टी के समर्थक उनके ‘सिक्स पैक्स’ पर फिदा नज़र आते हैं, और कहीं वे खुद एक हाथ से ‘पुश-अप’ करते दिखते हैं. क्या हम यह पूछने की हिम्मत कर सकते हैं कि ये सब वायरल होने वाली तस्वीरें तो हैं, वोट दिलाने वाली तस्वीरें भी साबित हो सकती हैं?
अब जरा सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के वास्तविक नेता के बारे में सोचिए, लोकसभा में जिसे अभी 51 सीटें हासिल हैं, जो तीन बड़े राज्यों में सत्ता में है, और चार अन्य राज्यों समेत एक केंद्रशासित प्रदेश में चुनाव लड़ने जा रही है, और जिनमें उसके बड़े दांव लगे हैं. वे स्कूली बच्चों के सामने अपनी जबरदस्त फिटनेस का प्रदर्शन कर रहे हैं. मैं स्कूली बच्चों के बारे में कुछ नहीं कह सकता, लेकिन 50 साल का कोई शख्स उन्हें अपने बाजुओं की ताकत से हैरत में डालने की कोशिश करे?
वह भी तब जब कि उसकी अपनी पार्टी में आग लगी हो? तथाकथित ‘जी-23’ गुट जम्मू में बैठक करके सवाल उठा रहा था; एक वरिष्ठ पार्टी नेता, पूर्व केंद्रीय मंत्री और परिवार भक्त आनंद शर्मा आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी के सहयोगियों के चयन पर सैद्धान्तिक प्रश्न खड़े कर रहे थे.
पार्टी के सबसे ताकतवर मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह उस खतरनाक दिशा में बढ़ रहे थे जब कोई सरकार भारी बहुमत के बावजूद सबसे बड़े मसले—उनके मामले में किसान आंदोलन—पर अपनी बढ़त खोने लगती है. शायद चंद दिनों की ही बात है जब वे अपनी राजनीतिक पूंजी गवां सकते हैं या, उनके जोरदार खंडनों के बावजूद मैं यह कहने का जोखिम उठा रहा हूं कि, उन्हें अपने विकल्प तय करने पड़ सकते हैं.
राहुल ने 2019 के चुनाव में पराजय की ज़िम्मेदारी कबूलते हुए जब इस्तीफा दे दिया था तब से उनकी पार्टी उनकी बीमार मां को राहत न देते हुए बिना किसी नियमित अध्यक्ष के काम चला रही है. पार्टी के चुनाव जल्दी होने के आसार भी नहीं हैं. और इस सवाल का जवाब हमने इस सप्ताह इस सवाल के रूप में ही सुना कि कोई भाजपा से क्यों नहीं पूछता कि वह अपनी पार्टी में चुनाव क्यों नहीं करवाती? अच्छा सवाल है, मगर उसके पास एक अध्यक्ष तो है.
पिछले 25 वर्षों से, जबसे गांधी परिवार ने पार्टी की बागडोर फिर से संभाली है, भाजपा के नौ अध्यक्ष हो चुके. उनमें से तीन अमित शाह, राजनाथ सिंह, और नितिन गडकरी आज केंद्रीय मंत्री हैं. चौथे, लालकृष्ण आडवाणी ‘मार्गदर्शक मंडल’ में हैं.
मुझे इन सब सवालों के जवाब मालूम हैं. वे यही होंगे— ये ‘जी-23’ वाले किस गिनती में हैं? क्या वे कहीं भी एक सीट भी जीत सकते हैं? उन्हें तो सत्ता से हटने के बाद राज्यसभा की सीट या ऐसी ही कोई आराम का ओहदा चाहिए. और कौन ऐसा है जो पार्टी अध्यक्ष बन सके और पार्टी को एकजुट रख सके? भाजपा और आरएसएस का सीधा जवाब देश में राहुल के सिवा और कौन बन सकता है? ये सब वाजिब सवाल हैं. लेकिन तब आप उसी बंदगली में पहुंच जाते हैं— तो फिर वे पार्टी के अध्यक्ष पद पर क्यों नहीं हैं? क्या इस तरह की बड़ी पार्टी खुद को पुनर्गठित करना भूल सकती है? हताश होकर कितने और ज्योतिरादित्य सिंधिया की पार्टी से विदाई का इंतजार किया जाएगा? आप अपने जो वोट गवांते जा रहे हैं उन्हें शरद पवार की एनसीपी से लेकर अरविंद केजरीवाल की ‘आप’ तक तमाम पार्टियों को बटोरने से कैसे रोकेंगे?
पिछले सप्ताह ‘कूल-कूल’ केरल से जो खुशनुमा तस्वीरें वायरल हुईं उन्होंने मुझे दिलीप कुमार और सायरा बानो की 1974 की फिल्म ‘सगीना’ के एक गाने की याद दिला दी. यह गाना लिखने वाले मजरूह सुल्तानपुरी ने शायद ही सोचा होगा कि इस गाने की यह लाइन राहुल गांधी और कांग्रेस की आज की हालत पर सटीक पर बैठेगी— आग लगी हमरी झोपड़िया में, हम गावें मल्हार/ देख भाई कितने तमाशे की ज़िंदगानी हमार. माफ कीजिएगा मजरूह साहब, आपकी ये पंक्तियां चुरा रहा हूं. लेकिन राहुल गांधी से कोई माफी नहीं मांगूंगा, ये आपके लिए ही लिखी गई हैं.