~ पवन कुमार (वाराणसी)
चौहान शासक सोमेश्वर और कर्पुरदेवी के पुत्र पृथ्वीराज तृतीय का जन्म लगभग 1166 में हुआ था जिसको लोककथाओं में ‘रायपिथौरा’ के नाम से जाना जाता है। अल्प आयु में ही शासक बनने (1177 में) के कारण माँ संरक्षिका थी और कदम्बवास एक प्रभावशाली प्रधानमंत्री। चाचा भुवनेक मल्ल भी प्रशासनिक कार्यों में सहयोगी थे और भाई था हरिराज।
1180 से वह स्वतंत्र शासक के रूप में साम्राज्य विस्तार की ओर बढ़ चला क्योंकि विग्रहराज चतुर्थ के बाद कमजोर शासकों के वजह से चाहमान साम्राज्य सिकुड़ गया था। इस दौरान उसकी पहली भिड़ंत अपने चाचा नागार्जुन से हुई जो कि विग्रहराज चतुर्थ का पुत्र था।
विग्रहराज चतुर्थ चौहान शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली था जिसके शासनकाल को चौहानों का चर्मोत्कर्ष और सपालदक्ष ( चौहानों का मूल स्थान शाकम्भरी जिसमें सवा लाख गाँव थे इसलिए यह नाम पड़ा) का स्वर्णयुग माना जाता है। दिल्ली विजय और अरबी-तुर्क आक्रमणकारियों पर सफलता के लिये इसे लोग ‘वीसलदेव’ के रूप में याद करते हैं।
नागार्जुन के विद्रोह को दबाकर उसके साथियों सहित उनके सिर अजमेर किले के फाटकों पर टंगवा दिया गया। इसके बाद मथुरा-भरतपुर के भदानक राज्य पर आक्रमण कर साम्राज्य में मिलाया गया। चंदेल राज्य के साथ युद्ध का विवरण आल्हाखंड, पृथ्वीराजरासो से मिलता है बाकी इसका सबसे बड़ा सबूत पृथ्वीराज का ‘मदनपुर अभिलेख’ है जिसके अनुसार चंदेलों के जेजाकभुक्ति पर आक्रमण और लूटपाट की जानकारी मिलती है.
इसी युद्ध में बनाफर सरदार आल्हा और ऊदल वीरतापूर्वक लड़ते हुये मारे गए थे, लेकिन जल्द ही चन्देलों ने महोबा और कालिंजर को स्वतंत्र करा लिया।
परमर्दिदेव से युद्ध कर उसने एक बफर राज्य को खो दिया, चंदेल अब जयचंद्र के मित्र बन गए।
पृथ्वीराज ने गुजरात विजय करने की भी कोशिश की लेकिन ‘वेरावल अभिलेख’ के अनुसार गुजरात-चालुक्य नरेश भीम द्वितीय का मंत्री जगदेव प्रतिहार पृथ्वीराज की कमलिनिरूपा रानियों के लिये चन्द्र के समान था। अर्थात पृथ्वीराज के गुजरात आक्रमण को जगदेव ने बहुत सफल न होने दिया फिर भी संधि शर्तों के अनुसार पृथ्वीराज को अब गुजरात से व्यापारिक सुविधाएं देने का वचन दिया गया।
साम्राज्य विस्तार के बाद 1191 में शहाबुद्दीन गोरी का पृथ्वीराज पर पहला बड़ा आक्रमण हुआ। मिन्हाजुद्दीन सिराज लिखता है कि सुल्तान गोरी ने इस्लाम की सेनाओं को संगठित कर तबरहिन्द पर आक्रमण किया और उसे जीत लिया। गोरी मालिक जियाउद्दीन को तबरहिन्द सौंपकर गजनी जाना चाहता था ताकि वह तैयारियों के साथ और बड़ी सेना लेकर अजमेर पर आक्रमण कर सके लेकिन तभी पृथ्वीराज ने दिल्ली के राजा गोविंदराज के साथ एक बड़ी सेना लेकर आगे बढ़ा, इस तरह तराइन के पास दोनों सेनाओं की भिड़ंत हुई। पृथ्वीराज ने यहाँ सूझबूझ से तुरंत आक्रमण कर गोरी की योजना को विफल कर दिया।
गोरी की सेना में भगदड़ मच गई और उसके सेनानायक अपने क्षेत्रों की ओर भागने लगे। गोरी ने फिर भी हिम्मत न हारी और गोविंदराज से लड़ता रहा, ऐसा प्रहार किया कि उसके दाँत टूट गये।
गोविंदराज के बरछे से बुरी तरह घायल हो गोरी भी अब भागने की फिराक में आ गया और एक खिलजी सरदार के वजह से यह बच कर निकल गया वरना अपने ही सैनिकों से कुचला जाता (तबकाते नासिरी के अनुसार)।
पृथ्वीराज के कुशल नेतृत्व, सैनिक मोर्चेबंदी और बलशाली सेना का ये प्रत्यक्ष प्रमाण था जिसकी सराहना समकालीन मुस्लिम लेखकों ने भी की है। फिर भी पृथ्वीराज ने यहाँ सबसे बड़ी भूल कर दी, भागती हुई दुश्मन की सेना खत्म न करके गोरी को जिंदा वापस जाने दिया।
ऐसा करना भारतीय युद्ध-नियमों का तिरस्कार था और खुद को क्षत्रिय कहलवाने का दम्भ भी। विजयी होकर वह गोरी के आक्रमणों को समाप्त मानकर खुशियां मनाने लगा और भोग-विलास में मस्त हो गया।
इसी बीच अगर हम पृथ्वीराजरासो पर यकीन करें तो पता चलता है कि उसने संयोगिता का अपहरण कर अजमेर की दुर्ग में उसके साथ अपना सारा समय बिताने लगा। रनिवास के बाहर निकलना भी अब एकदम कम हो गया (विरूद्धविध्वंस में भी कुछ ऐसा ही वर्णन है)।
जनश्रुतियों में पृथ्वीराज के विजयों से ज्यादा जयचंद्र के साथ उसका सम्बंध और गोरी से युद्ध का ज्यादा प्रचार-प्रसार मिलता है। गहड़वाल जयचंद्र की पुत्री संयोगिता के स्वयंवर की कथा में कितनी ऐतिहासिकता है इसपर कुछ निश्चित नहीं हुआ जा सकता क्योंकि इसका वर्णन पृथवीराजरासो के साथ सुर्जनचारित और आईने-अकबरी में तो मिलता है लेकिन पृथ्वीराजविजय, हम्मीरमहाकाव्य और प्रबंधचिन्तामणि जैसे समकालीन ग्रँथों में इसका उल्लेख नहीं है।
जयचंद पृथ्वीराज की तरह ही दिल्ली सहित सम्पूर्ण उत्तर भारत पर अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहता था और दोनों की सीमाएँ एक दूसरे को छूती थीं बाकी इनके दादा-परदादाओं में भी आपसी शत्रुता थी इसलिए संयोगिता के विवरण से इनके बीच की शत्रुता को और बढ़ाचढ़ाकर प्रस्तुत करना कथाकारों के लिये कोई नई बात न थी।
चाहमानों/चौहानों का अधिकतर इतिहास तुर्क-मुस्लिम आक्रमणकारियों से संघर्ष का इतिहास रहा है जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण विग्रहराज चतुर्थ के अभिलेखों में पढ़ा जा सकता है कि उसने तुर्क मलेक्ष्छों से आर्यावर्त की रक्षा का वचन लिया था। जयनायकभट्ट पृथ्वीराजविजय में लिखता है कि गोमाँसभक्षी मलेक्ष्छ के रूप में शहाबुद्दीन गोरी प्रत्यक्ष कलयुग के समान था जिसका अंत करना पृथ्वीराज का परम लक्ष्य था, लेकिन तत्कालीन आक्रमणकारियों का सामना करने के लिए पृथ्वीराज में जितनी वीरता और उत्साह था उतनी ही उसके अंदर राजनीतिक अदूरदर्शिता भी थी।
फिर भी केवल उसे ही दोषी न ठहराया जा सकता क्योंकि उस समय भारतीय क्षेत्रों के सभी शासक ऐसे ही था, जयचंद भी।
गुजरात में चालुक्य शासक भीम द्वितीय से हारने के बाद भी गोरी ने सीमांत भारतीय शासकों के इसी कमजोरी का फायदा उठाकर मुल्तान, सिंध और पंजाब जीतता गया। तराइन के युद्ध के पहले गोरी और पृथ्वीराज के सामंतों सेनाओं के बीच छोटे-छोटे कई भिड़ंत हो चुके थे, चाहमान सेना ने इन्हें हर बार सीमा से बाहर खदेड़ दिया। इन प्रारंभिक मुठभेड़ों का बहुत महत्व नहीं इसलिए मुस्लिम लेखक इसपे मौन हो जाते हैं, इनमें से कुछ केवल 2 मुठभेड़ों की बात करते।
लेकिन पृथ्वीराज के चारण इसे भी बड़ी उपलब्धि बताते हैं जबकि उसी समय पृथ्वीराज की सेना को आगे बढ़कर इन्हें खत्म कर देना चाहिए था।
1192 में ठीक एक साल बाद गोरी अपनी पूरी तैयारी के साथ गजनी से चला जबकि इधर पृथ्वीराज अभी भी अपने विजयरस में डूबा हुआ था। 1 लाख 20 हजार चुने हुये अफगान, तुर्क और ताजिक सेना के साथ आगे बढ़ते हुये फिर तराइन में आ धमका तबतक पृथ्वीराज भी अपने 3 लाख ( फरिश्ता के अनुसार बाकी भारतीय लेखकों ने लाख की सँख्या तक ही बताया) घोड़े-हाथी और सेनाओं और 150 सामंतों के साथ तैयार हो चुका था। पृथ्वीराज ने गोरी को वापस लौटने के शर्त पर कोई नुकसान न करने का संदेश भिजवाया लेकिन गोरी चालाकी से यह बात पहुँचवाई कि वह गजनी अपने भाई के पास यह संदेश भेजकर फिर कोई निर्णय लेगा।
पृथ्वीराज की सेना युद्धविराम की स्थिति समझकर निश्चिंत हो गयी। ऐसी ही स्थिति में एक दिन जब सुबह भी नहीं हुई थी कि गोरी की पीछे वाली छिपी सेना ने उनपर आक्रमण कर दिया, इस समय पृथ्वीराज भी सोया ही था (तबकाते नासिरी का अनुवाद, इलियट और डाउसन)। पृथ्वीराज की सेना हड़बड़ा गयी और शाम होते-होते लगभग 1 लाख की सँख्या में चौहानों की सेना मारी गयी।
पृथ्वीराज भागते हुये पकड़ा गया जबकि सेनाप्रमुख गोविंदराज लड़ते हुये मारा गया। अजमेर खूब लूटा गया, मंदिरों-मूर्तियों को नष्ट कर दिया गया। अजमेर किले के चित्रों में सुअरों द्वारा मुसलमानों को मारने का चित्र देखकर गोरी आगबबूला हो गया जिससे लूट-मार की भयानकता और बढ़ा दी गयी।.
मुसलमान लेखकों ने कैदी रूप में पृथ्वीराज के षड्यंत्रों का उल्लेख किया है जिसके कारण उसे मृत्युदंड दिया गया, हसन निजामी लिखता है कि गोरी पृथ्वीराज को मारना नहीं चाहता था लेकिन षडयंत्र के डर से उसने पृथ्वीराज को मरवा दिया।
पृथवीराजरासो के अनुसार गजनी में उसकी मृत्यु हुई।केवल विरुद्ध विधि विध्वंस के अनुसार पृथ्वीराज युद्धस्थल पर मारा गया । मिन्हाजुद्दीन कहता है कि भागते हुए पृथ्वीराज को पकड़ मार दिया गया जबकि हसन निजामी कहता है कि अजमेर में कुछ दिन उसने गोरी के अधीन राज्य किया।
बाकी दिल्ली के टकसालों से निकली उन सिक्कों के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है कि कुछ दिन तक पृथ्वीराज ने गोरी की अधीनता में भी राज्य किया, क्योंकि इन सिक्कों पर मोहम्मद बिन साम के साथ पृथ्वीराज का भी नाम है या हो सकता है.
ये सिक्के पृथ्वीराज के पुराने सिक्के रहे हों जिन्हें गोरी ने अपने नाम से दुबारा टंकित कराया(इसके बहुत उदाहरण हैं इतिहास में)।
पृथ्वीराज का अंत भले बहुत गड़बड़ रहा लेकिन उसमें कई योग्यताएं थीं। तराइन के द्वितीय युद्ध से पहले वह किसी भी युद्ध में पराजित नहीं हुआ था। कर्नल टॉड उसे 108 बड़े सामंतों का स्वामी कहता है।
तराइन के द्वितीय युद्ध में भी उसकी वीरता में कोई कमी न थी बल्कि वह राजनीतिक अदूरदर्शिता का शिकार हो गया। जमून और घतैक के राजाओं द्वारा गोरी की सहायता का भी जिक्र मिलता है।
पृथ्वीराज के इतिहास लिखने के क्रम में उसके भाट-चारणों के विवरणों में अनैतिहासिक अंशो की मात्रा ज्यादा होने के कारण तत्कालीन अभिलेखों और मुस्लिम लेखकों का सहारा लिया गया है लेकिन मुस्लिम लेखक भी कई जगह एकमत नहीं हैं विशेषकर पृथ्वीराज के अंतिम समय का विवरण देने में।
समकालीन लेखकों में मिन्हाजुद्दीन सिराज की तबकाते नासिरी ज्यादा सटीक जानकारी देती है।
(चेतना विकास मिशन)