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प्रसंगवश : मध्यकाल की देन है पर्दा कुप्रथा का उद्भव और विकास

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 पुष्पा गुप्ता 

     _बाणभट्ट की कादम्बरी में प्रतिलेखा लाल रंग का अवगुंठन पहनती है और म्रिच्छकटिकम में अपने प्रेमी के मिल जाने पर विवाहिता हो जाने पर वसंतसेना अवगुंठन पहनती है. अवगुंठन संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ पर्दा या घूँघट है. गुप्तकाल में स्त्रियों द्वारा सिर और चेहरे पर पहने जाने वाले तीन वस्त्रों का उल्लेख है जिन्हें शिरोवस्त्र, जालक और अवगुंठन बताया गया है._

      इसमें से अवगुंठन वही है जिसे बाद के वक़्तों में घूँघट या पर्दा के नाम से हम जानते हैं.

अवगुंठन स्त्रियों द्वारा चेहरे को ढँकने के लिए प्रयुक्त होता था इसे न सिर्फ़ इस शब्द के अर्थ बल्कि इसके प्रयोग के तत्समय के लिखित उद्धरणों से भी समझा जा सकता है. अभिज्ञान शाकुन्तलम में जब शकुन्तला राजा दुष्यंत के सामने जाती है तो उसका चेहरा ढँका होता है और वह उसे ढँके चेहरे वाली याने अवगुंठनावती कहता है और इसी तरह से प्रियदर्शिका में जब राज्यश्री अपने प्रेमी से मिलने जाती है तो अवगुंठन पहने होती है.

      _यहाँ घूँघट चेहरे को किसी प्रयोजन से ढँकने के लिए प्रयुक्त होता है, इसलिए भी अवगुंठन शब्द के प्रयोग के अर्थ स्पष्ट होते हैं._

        बाणभट्ट का काल निश्चय ही आठवीं सदी से पहले का है और राजा शूद्रक और कालिदास गुप्तकाल में हुए. प्रियदर्शिका के रचनाकार हर्ष का काल छटी सदी ईस्वी का है.याने मध्यकाल से काफ़ी पहले का.

इन सबसे यह लगता है कि गुप्तकाल और उसके बाद के समय तक समाज के उच्च वर्ग और ख़ासकर विवाहित स्त्रियों में कहीं यह प्रथा रही होगी. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि गुप्तकाल से पहले घूँघट का ऐसा कोई प्रमाण कहीं मिलता नहीं है.

      _गुप्तकाल और इसके ठीक बाद के समयों तक जो मूर्तियाँ और चित्र आदि मिले हैं उनमें भी घूँघट का कोई साक्ष्य शायद नहीं है. यह भी तय है कि फाहयान, ह्वेनसांग और इत्सिंग ने भी इसका कोई उल्लेख नहीं किया है._

       समकालीन ग्रंथों में उल्लेख मिलने और कहीं और न मिलने से इतिहासकारों की इस बात में तर्क दीखता है कि यह प्रथा रही तो होगी पर यह कोई प्रचलित प्रथा न रही होगी. इसके आम लोगों के बीच प्रचलित होने का एक संदर्भ माघ की किसी रचना का बताया गया है जिसमें उन्होंने लिखा कि थानेश्वर नगर की स्त्रियाँ अवगुंठन पहनती हैं.

      एक तरह से इसे glorify भी किया है. कई जगह पढ़ा है, फिर भी इसे देखना पड़ेगा. हो सकता है यह अतिरेकी हो कि किसी एक नगर की समस्त स्त्रियों को घूँघट पहनने वाला बताया जाए. 

यह भी है कि घूँघट के विरोध को अच्छा नहीं माना जाता रहा होगा. ललितविस्तर सूत्र में एक स्त्री का घूँघट न पहनने का विरोध इसी तरह से दिखाया गया है जिसमें वह अंत में इस बात पर अपनी बात को ख़त्म करती दीखती है कि उसका शील ही उसका घूँघट है, जो उसकी compromising स्थिती को दिखाता है.ललितविस्तर का समय तीसरी सदी ईस्वी का है.  कुछ और संदर्भ भी हैं ही. 

     _तमाम बुराइयों का ठीकरा मध्यकाल पर फोड़ने की प्रवृत्ति पर यही कहुँगा कि इतिहास ही नहीं अध्ययन की कोई भी परम्परा कुछ भी ग्लोरिफ़ाई करने और कुछ भी नष्ट करने को नहीं है. वह सिर्फ़ उतनी ही है, जो है, जितनी जो हो सकती है._

     (चेतना विकास मिशन)

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