संदीप पाण्डेय
बराबंकी जिले का एक गांव है असेनी। यहां ग्राम सभा की खुली बैठक में 12 अगस्त, 2021 को ग्रामवासियों द्वारा एकमत होकर गांव की शराब की दुकान को बंद कराने का प्रस्ताव पारित किया गया। भारत के संविधान के अनुच्छेद 243छ ‘पंचायतांे की शक्तियां, प्राधिकार व उत्तरदायित्व‘ के तहत इस शराब की दुकान को ग्राम सभा से हटाना चाहिए। 2021 से दो जिलाधिकारियों को पांच ज्ञापन दिए जा चुके हैं। किंतु अधिकारी कहते हैं कि उत्तर प्रदेश सरकार की आबकारी नीति के तहत यह दुकान नियमानुसार चल रही है एवं सरकार को इससे राजस्व की प्राप्ति होती है।
उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार राम राज्य की स्थापना करने का दावा करती है। क्या राम राज्य में शराब पिला कर राजस्व कमाना उचित है? फिर यह तो उ.प्र. सरकार की नीति है। गुजरात व बिहार जैसे राज्यों में सरकार ने शराबबंदी की नीति लागू की है। क्या वहां की सरकारों को राजस्व कमाने का लालच नहीं है? वहां की सरकारें बिना शराब की कमाई से चल ही रही हैं। अतः स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश की सरकार में इच्छा शक्ति की कमी है। यदि सरकार के लिए शराब बेचकर राजस्व कमाना इतना ही जरूरी है तो वह अपने अधिकारियों-कर्मारियों के लिए उनके वेतन के 5-10 प्रतिशत से शराब खरीदना अनिवार्य क्यों नहीं कर देती?
असेनी गांव में 4 सितम्बर को शराब की दुकान बंद कराने के लिए एक अनिश्चितकालीन धरना शुरू हुआ। 7 सितम्बर को गांव की महिलाएं शराब की दुकान पर ही जा कर बैठ गईं। आबकारी विभाग से व तहसील प्रशासन से कई अधिकारी आए। इन सभी अधिकारियों से जब पूछा गया कि क्या वे शराब पीते हैं तो किसी ने भी यह नहीं कहा कि वे पीते हैं। तो गांव वालों ने सवाल उठाया कि जब वे खुद नहीं पीते तो जनता को क्यों पिला रहे हैं? अधिकारी तो अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा देते हैं लेकिन वे गांव वालों का पैसा बरबाद करवा कर ग्रामीण परिवारों को जीवन की मूलभूत जरूरतों, दवा, शिक्षा, आदि से वंचित कर देते हैं। महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार अलग से होती हैं। नवयुवतियों के साथ छेड़-छाड़ की घटनाएं भी होती हैं। गांव के बच्चे इस बात से दुखी हैं कि उनके परिवार के बड़े शराब पीकर घर में आकर हंगामा करते हैं।
असेनी गांव की महिलाओं का संकल्प है कि जब तक गांव की शराब की दुकान बंद नहीं होती तब तक आंदोलन चलेगा। प्रयास यह भी रहेगा कि उत्तर प्रदेश सरकार की आबकारी नीति बदले एवं पूर्ण शराबबंदी लागू हो। अतः आपसे अनुरोध है कि इस आंदोलन से जुड़ें और सरकार को अपनी अनैतिक नीति बदलने के लिए मजबूर करें।
दूसरी तरफ योगी सरकार की गाय नीति ने किसानों के लिए बड़ी समस्या खड़ी कर दी है। गौ-हत्या पर तो पहले भी प्रतिबंध था – हलांकि भारत के सभी राज्यों में नहीं है। किंतु योगी के सत्ता में आते ही गोवंश के बाजार बंद हो गए क्योंकि तथाकथित गौ-रक्षक, जो खुद कभी गाय नहीं पालते, किसी भी गोवंश को ले जा रहे, खासकर मुस्लिम या दलित, के साथ मार-पीट करने लगे, कई मामलों में तो लोगों की जानें भी चली गईं। इसलिए लोग गोवंश खरीदने-बेचने से डरने लगे। नतीजा यह हुआ कि सारे अनुपयोगी पशु खुले घूमने लगे और घूम घूम कर किसानों के खेत चरने लगे। यह समस्या प्रदेश व्यापी और कई राज्यों में खड़ी हो गई।
योगी आदित्यनाथ ने गोशाला खोलने की योजना बनाई। लेकिन खुले घूम रहे गोवंश की संख्या गौशालाओं की क्षमता से कहीं ज्यादा है। फिर गांव गांव ग्राम प्रधानों पर अधिकारियों ने दबाव बनाना शुरू कर दिया कि अस्थाई गौ-आश्रय स्थल शुरू किए जाएं। अब सरकार के पास ग्राम पंचायतों के लिए यह गौ-आश्रय स्थत बनाने के लिए कोई पैसा नहीं है। सिर्फ गोवंश को खिलाने के लिए वह पहले रु. 30 प्रति पशु प्रति दिन देती थी अब उसे बढ़ाकर रु. 50 प्रति पशु प्रति दिन कर दिया है। ग्राम प्रधानों से उम्मीद की जाती है कि वे राज्य वित्त के पैसे से अथवा महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के पैसे से गौ-आश्रय स्थलों का निर्माण कराएं। जाहिर है कि इन गौ-आश्रय स्थलों की व्यवस्था उचित न होने के कारण कुछ दिनों बाद पशु छोड़ कर चले जाते हैं। हरेक गौ-आश्रय स्थल व गौशालाओं में बिना चारे या बिना इलाज के गोवंश के मरने की खबर है। पशु चिकित्सक यह कहते हुए कि भूख का कोई इलाज नहीं होता अपना पल्ला झाड़ लेते हैं।
सरकार कभी भी गुणवत्तापूर्ण गौशालाएं या गौ-आश्रय स्थलों का संचालन नहीं कर सकती। अतः जो पैसा सरकार ने खुले गोवंश के लिए आवंटित किया है वह पैसा सीधे किसानों को, किसान सम्मन निधि की तर्ज पर उनके खाते में, प्रति पशु प्रति दिन रु. 50 की दर से दे दे। इनमें किसानों के पालतु गोवंश को भी शामिल किया जाए ताकि किसान के लिए कभी ऐसी स्थिति ही न आए कि उसे अपना पशु छोड़ना पड़े। किसान ही गोवंश बचा सकता है, सरकार यह काम नहीं कर सकती। योगी को सरकारी पैसे पर पुण्य कमाने का शौक छोड़ देना चाहिए। उन्हें यह समझ में आना चाहिए कि शराब की कमाई से गौशालाएं नहीं चलाई जा सकतीं।
बस जरूरत इस बात की है कि चारे के पैसे में घोटाला न हो। बिहार में लालू यादव तो चारा घोटाले में जेल चले गए किंतु आज उ.प्र. में बड़े पैमाने पर अधिकारी, कर्मचारी व जन-प्रतिनिधि चारा घोटाले में शामिल हैं। गौशाला व गौ-आश्रय स्थलों पर गांेवंश के मरने की यह भी बड़ी वजह है।
आखिरी बात जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व भारतीय जनता पार्टी से पूछी जानी चाहिए कि एकरूप भारत बनाने की कोशिश में एक गाय नीति या एक शराब नीति की बात क्यों नहीं होती?
संदीप पाण्डेय
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लेखक सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) के महासचिव हैं।