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अमेरिका की बदली रणनीति में फिट होने के लिए भारत अपने हितों पर समझौता करने की हद तक

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सत्येंद्र रंजन

मकसद वही है, लेकिन रणनीति बदल गई है।मकसद है दुनिया पर अमेरिकी वर्चस्व को इस रूप में कायम रखना, जिससे दुनिया एक-ध्रुवीय बनी रहे।

मगर ऐसा लगता है कि डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन ने दुनिया की बदली परिस्थितियों को समझा है। उसने स्वीकार किया है कि चीन के अभूतपूर्व उदय के बाद एक-ध्रुवीयता को कायम रखना आसान नहीं रह गया है। ऐसा एक झटके से नहीं किया जा सकता। तो उसने कदम-दर-कदम अपने वर्चस्व को पुनर्स्थापित करने की सोच अपनाई है। 

इस बदलाव की सबसे ज्यादा चुभन अमेरिका के सहयोगी (allies) और साझीदार (partner) रहे देश महसूस कर रहे हैं। और इनमें भारत भी शामिल है। तो, नई बनी अमेरिकी रणनीति में फिट होने के लिए भारत अपने हितों पर समझौता करने की हद तक जाता दिख रहा है। 

भारत के संदर्भ में इस बदलाव का अहम पहलू यह है कि ट्रंप का अमेरिका फिलहाल चीन से टकराव टालना चाहता है। इस बीच चीन से अवश्यंभावी टकराव की तैयारी में वह रूस को चीन से अलग करने की जुगत में जुट गया है। 

इसी प्रेस कांफ्रेंस में ट्रंप से यह सवाल भी पूछा गया कि अगर व्यापार के मामले में आप भारत के प्रति सख्त होने जा रहे हैं, तो फिर चीन का मुकाबला कैसे करेंगे?

ट्रंप का जवाब था- ‘हम किसी को भी हरा सकने के लिए बहुत अच्छी अवस्था में हैं। लेकिन मैं किसी को हराने के बारे में नहीं सोच रहा हूं।’

ट्रंप की रणनीति में आज भारत की कितनी जरूरत है, इन दो कथनों से स्पष्ट हो जाता है। ट्रंप के इस कार्यकाल के पहले तीन हफ्तों में ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ की उनकी क्रमिक रणनीति के जितने संकेत मिले हैं, उसके मुताबिक उनका प्रशासन सर्व प्रथम पश्चिमी गोलार्द्ध में अमेरिकी वर्चस्व को पुनर्स्थापित करना चाहता है। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जेम्स मुनरो (1817-1825) ने पश्चिमी गोलार्द्ध को अमेरिकी प्रभाव क्षेत्र (backyard) घोषित किया था। मतलब था कि उस इलाके में किसी अन्य देश का हस्तक्षेप अमेरिका बर्दाश्त नहीं करेगा। यह नीति आज तक कायम है, लेकिन अमेरिका की गिरती आर्थिक ताकत के साथ यह वर्चस्व स्वतः कमजोर पड़ता गया है।

बीसवीं सदी में जब कभी दक्षिण अमेरिका में समाजवादी शक्तियां उठीं, अमेरिका ने बर्बरता से उनका दमन कर दिया। इसका अपवाद सिर्फ क्यूबा रहा। बहरहाल, 21वीं सदी में आर्थिक महाशक्ति के रूप में चीन के उदय ने स्थितियां बदल दी हैं। एक के बाद एक लैटिन अमेरिकी देश चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव का हिस्सा बनते गए हैं। इसका राजनीतिक प्रभाव यह हुआ है कि एक के बाद एक लैटिन अमेरिकी देश ‘एक चीन नीति’ को अपनाते चले गए हैँ। ट्रंप का पहला मकसद इस स्थिति को पलटना है। गौरतलब है कि उनके विदेश मंत्री मार्को रुबियो अपनी पहली आधिकारिक विदेश यात्रा पर उन लैटिन अमेरिकी देशों में गए, जो अब भी मजबूती से अमेरिकी धुरी से जुड़े हुए हैँ।

इस क्रमिक रणनीति को पूरा करने के लिए ट्रंप प्रशासन एशिया प्रशांत क्षेत्र में चीन से फिलहाल सीधे टकराव को टालना चाहता है। यही बात ट्रंप के उपरोक्त दो कथनों में स्पष्ट रूप से सामने आई है।

इस रणनीति का दूसरा भाग यह है कि रूस और चीन के बीच दूरी बनाई जाए। ट्रंप इसे पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडेन की “मूर्खता” बताते रहे हैं कि तत्कालीन प्रशासन ने रूस को चीन के करीब धकेल दिया। ट्रंप प्रशासन अमेरिकी रणनीतिकारों के उस हिस्से की राय से इत्तेफाक रखता है, जिनके मुताबिक रूस और चीन के एक धुरी पर आने के बाद उनका साझा मुकाबला कर सकने की स्थिति में अमेरिका या पश्चिमी देश नहीं हैं। इसलिए उचित तरीका यह है कि यूक्रेन की बलि चढ़ा कर भी रूस को प्रसन्न किया जाए। इस कोशिश में ट्रंप यहां तक चले गए हैं कि उन्होंने रूस को फिर से जी-7 में शामिल कर इस ग्रुप को जी-8 में तब्दील करने का सुझाव दे दिया है।

भारत के लिए यह बदलाव बेहद महत्त्वपूर्ण है। यह तथ्य है कि अमेरिकी प्राथमिकता में चीन का मुकाबला करना जितना अहम होगा, उसकी रणनीति में भारत का महत्त्व उतना बढ़ेगा। स्वाभाविक है कि प्राथमिकता घटने का प्रभाव इसके विपरीत होगा। ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में चीन के खिलाफ व्यापार युद्ध शुरू किया था। तभी उन्होंने अमेरिकी सुरक्षा रणनीति में बड़ा बदलाव करते हुए इसे इंडो-पैसिफिक रणनीति नाम दिया था। इसी के तहत क्वाड्रैंगुलर सिक्युरिटी डॉयलॉग (क्वैड) की शुरुआत हुई। और इसके अनुरूप अमेरिकी रणनीति में भारत का महत्त्व बढ़ता चल गया। जो बाइडेन के काल में भी इसी रणनीति को अमेरिका ने आगे बढ़ाया गया।

अब रणनीति में फ़ौरी बदलाव हुआ है, तो स्वाभाविक है कि उसका असर भारत महसूस कर रहा है। नरेंद्र मोदी सरकार अमेरिकी रणनीति से अधिक से अधिक जुड़ने की नीति पर चली है। तब इसका लाभ भी उसे मिलता दिखा। मगर अब आए बदलाव के बाद नई परिस्थितियों में खुद को फिट करने की चुनौती सामने है। ट्रंप भारत के प्रति फिलहाल कोई रियायत दिखाने के मूड में नहीं हैं। मोदी के साथ हुई प्रेस कांफ्रेंस में ही ट्रंप ने कहा- ‘भारत अमेरिकी उत्पादों पर दुनिया भर में सबसे ज्यादा शुल्क लगाने वाला देश रहा है। भारत में सामानों की बिक्री बहुत कठिन है। हम भी भारत पर समान दर से शुल्क लगाने जा रहे हैं।’ 

और यह सिर्फ धमकी नहीं है। मोदी के साथ मुलाकात से लगभग दो घंटे पहले ट्रंप ने ‘जवाबी शुल्क’ (reciprocal tariff) लगाने के आदेश पर दस्तखत कर दिए। इसका मतलब यह है कि जो देश जितना अधिक शुल्क लगाता है, अमेरिका भी उससे होने वाले आयात पर उतना ही शुल्क लगाएगा। उस मौके पर जिस देश का नाम लेकर ट्रंप ने जिक्र किया, वह भारत ही है।

यह भारत को बहुत असहज करने वाली स्थिति है। मोदी सरकार ने अमेरिका की टोकरी में अपने इतने अंडे रख दिए हैं कि वो टोकरी हिलने लगे, तो उसके लिए नई राह चुनना आसान नहीं है। ऐसे में उसने ट्रंप प्रशासन के आगे रियायत-दर-रियायत देने का आसान उपाय चुना है। तो मोदी-ट्रंप वार्ता के दौरान जिन बातों पर भारत राजी हुआ, उन पर एक नज़र डालेः

  • भारत अमेरिका से अरबों डॉलर की रक्षा सामग्रियां खरीदेगा, जिनमें एफ-35 लड़ाकू विमान शामिल हैं।
  • भारत अमेरिका से कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस की खरीदारी करेगा। इनमें लिक्वीफाइड नेचुरल गैस (एलएनजी) भी है। अमेरिकी एलएनजी का मूल्य आम तौर पर उपलब्ध प्राकृतिक गैस से काफी ज्यादा होता है। 
  • अमेरिका के साथ भारत व्यापार में लाभ (ट्रेड सरप्लस) की स्थिति में है। अब भारत अपने लाभ में 35 बिलियन डॉलर की कटौती करने पर राजी हुआ है। इसके लिए शुल्क घटाए जाएंगे और अधिक अमेरिकी उत्पादों की खरीद की जाएगी। गौरतलब है कि मोदी के अमेरिका यात्रा पर जाने के पहले ही भारत ने तकरीबन 30 वस्तुओं पर आयात शुल्क में भारी कटौती का एलान किया था।
  • भारत अमेरिका से मॉड्यूलर परमाणु रिएक्टरों की खरीदारी करेगा। अमेरिकी कंपनियां निश्चिंत होकर ये बिक्री कर सकें, इसके लिए मोदी की वॉशिंगटन यात्रा से पहले भारत ने अपने परमाणु उत्तरदायित्व कानून में बदलाव की घोषणा की। (https://janchowk.com/beech-bahas/modi-trump-meeting-what-india-has-given-and-received-so-far/)
  • रक्षा क्षेत्र में साझा उत्पादन की और परियोजनाएं शुरू की जाएंगी।
  • आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, बायोटेक और सेमी कंडक्टर जैसी उभरती तकनीकों के मामलों में भारत अमेरिका के साथ निकट सहयोग स्थापित करेगा। इसका अर्थ है कि इन तकनीकों के मामले में भारत अमेरिकी प्रतिमानों को अपनाएगा। ट्रंप प्रशासन ने एलान किया है कि वह एआई क्षेत्र में निजी क्षेत्र के किसी प्रकार के विनियमन के खिलाफ है। जबकि इसी हफ्ते पेरिस में हुए एआई सम्मेलन में भारत ने उस साझा बयान पर दस्तखत किए, जिसमें इस तकनीक के विनियमन की जरूरत बताई गई है। 

भारतीय मीडिया में इसे भारत की जीत बताया गया है कि अमेरिका भारत को एफ-35 विमान देगा। मगर अनेक रक्षा विशेषज्ञ इससे सहमत नहीं हैं। उनके मुताबिक लड़ाकू विमानों की ये सीरिज अब पहले जितने अनूठी नहीं रही। रूस के एसयू-57 विमान अधिक क्षमतावान हैं और भारत के अनुरूप भी हैं, क्योंकि सुखोई विमान पहले से भारतीय वायु सेना के पास रही है। बताया तो यह भी गया है कि हाल में हुए भारत के एयर शो में एसयू-57 का प्रदर्शन इतना प्रभावशाली रहा कि एफ-35 ने अपना प्रदर्शन ही रद्द कर दिया। (https://www.globalresearch.ca/overshadowed-su-57-disgraced-f-35-left-without-airtime-aero-india-2025/5879697)

वैसे ये दोनों विमान पांचवीं पीढ़ी के हैं, जबकि चीन छठी पीढ़ी के लड़ाकू विमान की परीक्षण उड़ान भर चुका है। (https://www.aol.com/chinas-stealth-fighter-spooks-wall-212855987.html). भारत और चीन के संबंधों को देखते हुए यह पहलू अहम है। 

इसी तरह आतंकवादी तहव्वुर राणा के प्रत्यर्पण की घोषणा को प्रधानमंत्री मोदी की कूटनीतिक जीत बताया गया है। जबकि हकीकत यह है कि गुजरे 24 जनवरी को ही अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रत्यर्पण का रास्ता साफ कर दिया था। रहस्यमय यह है कि उसके बावजूद दो राष्ट्र के शासकों की प्रेस कांफ्रेंस में इसकी घोषणा की गई!

एक अन्य पहलू ध्यानार्थ है। अमेरिका की चीन को घेरने और रूस को परास्त करने की रणनीति के दौर में भारत को अपेक्षाकृत अधिक रणनीतिक स्वायत्तता बरतने का अनुकूल अवसर मिला था। भारत ने इसका लाभ उठाया। यूक्रेन युद्ध के मामले में रूस के पश्चिमी बहिष्कार में शामिल हुए बिना भी चीन के प्रति सख्त अमेरिकी रणनीति के कारण भारत ने पश्चिमी खेमे में अपना महत्त्व बनाए रखा। मगर अब जबकि ट्रंप ने अमेरिकी वर्चस्व को पुनर्स्थापित करने के tactics (अल्पकालिक रणनीति) बदल दी है, तो स्थिति भारत के अनुकूल नहीं रह गई है। 

संभवतः इसीलिए भारत सरकार को अमेरिका के साथ निकट रिश्ता बनाए रखने के लिए अधिकतम रियायतें देनी पड़ रही हैं। मगर इस क्रम में “ग्लोबल साउथ का नेता” होने के दावे, ब्रिक्स प्लस के संस्थापक सदस्य के रूप में इसमें नेतृत्वकारी भूमिका, तथा चीन के साथ संबंधों के मामले में भारत किसी ओर जाएगा, इस बारे में नए सवाल खड़े हो गए हैं। 

बेशक, इस स्थिति की प्राथमिक जिम्मेदारी मोदी सरकार पर है। लेकिन जिस राह पर भारत चला है, उस पर राजनीतिक एवं शासक वर्ग के दायरे में आम सहमति है। मोदी की यात्रा के बारे में कांग्रेस की प्रतिक्रिया इस बात की पुष्टि करती है कि जो दुविधा पैदा हुई है, उसके लिए जिम्मेदार भारत का समूचा शासक वर्ग है। 

क्या यह असहज करने वाली स्थिति नहीं है कि मोदी-ट्रंप वार्ता पर प्रधानमंत्री की आलोचना का जो पहलू कांग्रेस और उनके विरोधियों ने ढूंढा वह सिर्फ अडानी के मामले में प्रेस कांफ्रेंस में पूछा गया सवाल है? बाकी मामलों पर शुक्रवार को विपक्ष की ओर किसी कोई आलोचना सामने नहीं आई। मोदी की अगवानी करने कौन आया, कौन नहीं- सारी आलोनाएं ऐसे तुच्छ पहलुओं पर केंद्रित रहीं।

बहरहाल, चूंकि खुद अमेरिका ने चीन से टकराव टालने और रूस को अपने अधिकतम करीब लाने की tactics अपना ली है, तो भारत के लिए उन दोनों देशों से अच्छे संबंध रखना फिलहाल आसान हो सकता है। मगर समस्या यह है कि रूस और चीन एक ऐसी धुरी पर हैं, जिसका मकसद विश्व भू-राजनीति तथा आर्थिक ढांचे को नया रूप देना है। ट्रंप प्रशासन को यह बिल्कुल बर्दाश्त नहीं होगा। ट्रंप ने डॉलर का विकल्प तलाश रहे ब्रिक्स देशों पर 100 फीसदी शुल्क की धमकी दी है। अब तो ट्रंप ने यह एलान भी कर दिया है कि उनकी इस धमकी के बाद ब्रिक्स एक मृत संगठन हो गया है। 

वैश्विक परिस्थितियों से परिचित कोई व्यक्ति ऐसी घोषणाओं को ट्रंप की खामख्याली ही मानेगा। लेकिन इससे उनका इरादा अवश्य जाहिर होता है। तो सवाल है कि मोदी सरकार की नई विश्व व्यवस्था बनाने के प्रयासों में क्या भूमिका होगी? क्या भारत अब भी मन या बेमन से इन प्रयासों से जुड़ा रहेगा, या इनसे दूरी बनाने में वह अपना हित समझेगा?

बहरहाल, भारत इस बात पर संतोष कर सकता है कि ट्रंप की बदली रणनीति के कांटे सिर्फ उसे ही झेलने नहीं पड़ रहे हैं। ये तो उससे भी अधिक धार से यूरोपीय देशों को चुभे हैं। यूक्रेन की तो बलि चढ़ने की आशंका पैदा हो गई है। ट्रंप ने दो टूक कहा है कि ताइवान ने अमेरिका की चिप इंडस्ट्री को छीना, अब वे ताइवान से छीन कर उसे वापस लाएंगे। तो चुभन ताइवान तक पहुंची है। 

हेनरी किसिंजर ने अमेरिका का विदेश मंत्री बनने से पहले कहा था- “it may be dangerous to be America’s enemy, but to be America’s friend is fatal” (संभव  है कि अमेरिका का दुश्मन होना खतरनाक हो, लेकिन अमेरिका का दोस्त होना तो अवश्य ही जानलेवा है।) इस बात का अहसास समय-समय पर अनेक देशों को हुआ है। इस समय यूरोप से लेकर ताइवान तक को इस कथन का अर्थ बेहतर समझ में आ रहा होगा। 

नरेंद्र मोदी की वॉशिंगटन यात्रा का जो नतीजा रहा, उसका संकेत है कि वह दिन दूर नहीं, जब भारत के लोगों को भी इसका असल मतलब समझ में आएगा। 

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