विवेक
मरियम कुयतेह, मरियम सिसावो, इसातु चाम गाम्बिया में रहने वाले उन कुछ लोगों के नाम हैं, जिन्होंने अपने मासूम बच्चों को ख़राब गुणवत्ता की दवा के कारण खो दिया। बीते माह पश्चिमी अफ़्रीका के देश गाम्बिया में 69 मासूम बच्चों की मौत की ख़बर आयी, मरने वाले बच्चों में 70 फ़ीसदी बच्चे 2 साल से कम उम्र के थे। सर्दी-ज़ुकाम की शिकायत के उपरान्त इन तमाम अभिभावकों ने अपने बच्चों को वहाँ के बाज़ारों मे उपलब्ध भारत में निर्मित कफ़ सिरप दिये थे, जिसके सेवन के बाद बच्चों की तबीयत और भी बिगड़ने लग गयी व उनकी मौत हो गयी। गाम्बिया की जनता में इस बात को लेकर रोष है, वे न्याय की माँग कर रहे हैं। ज्ञात हो कि गाम्बिया में स्वास्थ्य सुविधाएँ अल्प विकसित हैं, दवाओं के लिए भी यह देश अन्य देशों से आयात पर ही निर्भर है। भारत भी गाम्बिया में दवाओं का मुख्य निर्यातक है। पश्चिमी अफ़्रीका में बसे गाम्बिया में मूलभूत सुविधाओं का घोर अभाव है। स्वास्थ्यगत सेवाओं व दवाइयों के लिए गाम्बिया दूसरे देशों से आयात पर ही निर्भर है। हालात यह हैं कि गाम्बिया के पास इन आयातित दवाइयों की गुणवत्ता जाँचने के लिए प्रयोगशालाएँ भी नहीं हैं। सम्भवत: इसी बात का फ़ायदा दवा उत्पादकों द्वारा उठाया जाता है।
डबल्यूएचओ द्वारा की गयी शुरुआती जाँच के उपरान्त यह बात पता चली कि इन मौतों के पीछे भारत में उत्पादित कफ़ सिरप हैं। प्रोमेथजीन ओरल सोल्यूशन, कोफ़ेक्समलीन बेबी कफ़ सिरप, मकोफ़ बेबी कफ़ सिरप और मगरीप एन कोल्ड सिरप नामक दवाइयाँ जो भारत में स्थित मेडन फ़ार्मास्युटिकल नाम की कम्पनी बनाती है, डबल्यूएचओ ने अपनी शुरुआती जाँच रिपोर्ट में इन्हीं दवाओं को बच्चों की मौत का कारण पाया है। इस रिपोर्ट के मद्देनज़र इन चारों दवाओं की बिक्री पर रोक लगा दी गयी है। इस घटना के कारण अपने ऊपर पड़ रहे दबाव को देखते हुए भारत सरकार ने इस मसले पर जाँच का आश्वासन देकर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश की है।
लागत घटाने के लिए दवा उत्पादकों द्वारा सस्ते व विषाक्त यौगिकों का दवाओं में इस्तेमाल लोगों के जीवन से खिलवाड़ है!
डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार इन दवाइयों में डाई एथिलीन ग्लाइकोल और एथिलीन ग्लाइकोल जैसे विषाक्त यौगिकों का इस्तेमाल किया गया है। ख़ुद भारत में ऐसे विषाक्त यौगिकों के प्रयोग पर मनाही है। ये यौगिक दवाइयों के लिए विलयक के तौर पर प्रयोग किये जाते हैं। चूँकि ये यौगिक सस्ते हैं, इसलिए ये कम्पनियाँ लागत घटाने के लिए इनका प्रयोग करती हैं, इससे ये लागत पर ज़्यादा मुनाफ़ा कमा पाती हैं।
डब्ल्यूएचओ के अनुसार इन दो यौगिकों के सेवन से बदन दर्द, उल्टी, डायरिया हो सकता है, साथ ही इससे मस्तिष्क व किडनी पर भी बुरा असर पड़ता है, अगर ज़्यादा मात्रा में इन यौगिकों का सेवन किया गया तो किडनी फ़ेल्योर होने से मृत्यु भी हो सकती है। बच्चों के लिए तो ये यौगिक और भी ख़तरनाक हैं। इसके बावजूद भी ऐसे ज़हरीले यौगिकों का प्रयोग लगातार किया जा रहा है। अंग्रेज़ी अख़बार ‘द हिन्दू’ में छपी ख़बर के मुताबिक़ ख़ुद भारत में भी वर्ष 2019 में जम्मू में डाइ एथेलीन ग्लाइकोल युक्त कफ़ सिरप के सेवन से 11 बच्चों की मौत हुई तथा वर्ष 2020 के शुरुआत में डिजीटल विजन नामक कम्पनी द्वारा बनायी गयी ख़राब गुणवत्ता वाली कफ़ सिरप के कारण हिमाचल प्रदेश में भी क़रीब 13 बच्चों की मौत हुई थी।
मेडन फ़ार्मा कम्पनी पर अतीत में भी घटिया दर्जे की दवाई बनाने के आरोप लगते रहे हैं। केरल में एक जाँच के दौरान मेडन कम्पनी द्वारा निर्मित डायबिटीज़ की दवा को घटिया दर्जे की सामग्री का बना पाया गया। इसी साल कुन्नूर में इएस्प्रीन नामक दवा में ज़रूरत से ज़्यादा सेलीसाईलिक एसिड की मात्रा पायी गयी थी। इसी तरह वर्ष 2015 में भी गुजरात में मेडन फ़ार्मा द्वारा बनी दवा गुणवत्ता जाँच में पास नहीं हो पायी थी। हालाँकि इसके उपरान्त भी इस कम्पनी द्वारा दवाओं का उत्पादन जारी रखा गया। जिस मेडन फ़ार्मा पर अभी सवाल उठ रहे हैं, उसने अतीत में अपनी वेबसाइट में यह दावा किया था, कि डब्ल्यूएचओ की तरफ़ से उसे गुड मैन्युफ़ैक्चरिंग प्रैक्टिसेज़ प्रमाण पत्र मिल चुका है। परन्तु, ऑनलाइन न्यूज़ पोर्टल द वायर में छपी रिपोर्ट के अनुसार डब्ल्यूएचओ ने बयान दिया है कि उनकी तरफ़ से कभी मेडन फ़ार्मा को कोई भी प्रमाण पत्र नहीं दिया गया है।
ज्ञात हो कि ये दवाइयाँ हरियाणा के कुण्डली, पानीपत और हिमाचल के सोलन में स्थित मेडन फ़ार्मा के प्लाण्ट्स में बनी हैं। इस कारण प्रश्न, हरियाणा स्टेट ड्रग कण्ट्रोल प्राधिकरण पर भी उठता है कि बार-बार जब इस कम्पनी पर घटिया सामग्री का प्रयोग करने को लेकर सवाल उठ रहे थे, तब इस पर कोई ठोस कार्रवाई क्यों नहीं की गयी। इण्डियन ड्रग और कॉस्मेटिक्स एक्ट के अनुसार घटिया दर्जे की दवा बनाने वाले उत्पादकों को 10 साल की सज़ा व 10 लाख जुर्माने का प्रावधान है। हालाँकि ऐसा शायद ही हुआ है, जब डीईजी (डाइ एथेलिन ग्लाइकोल) जैसे विषाक्त यौगिकों के इस्तेमाल करने वाले उत्पादको पर इस क़ानून के तहत कार्रवाई कि गयी हो।
भारत सरकार द्वारा प्रेस इन्फ़ॉर्मेशन ब्यूरो के हवाले से बयान जारी करते हुए यह कहा गया है कि सेण्ट्रल ड्रग्स स्टैण्डर्ड कण्ट्रोल ऑर्गेनाइज़ेशन इस मामले की जाँच कर रही है। पर साथ ही यह भी कहा है कि दवाइयों की जाँच करने की ज़िम्मेदारी आयात करने वाले देश की है। अपने बयान मे बड़ी बेशर्मी से कहा है कि जो चार कफ़ सिरप अभी जाँच के दायरे में हैं, उन्हें भारत में वितरित नहीं किया जाता है। यहाँ तक कि मेडन फ़ार्मास्युटिकल भारतीय बाज़ार में कोई भी दवाई बेचने के लिए उत्पादित नहीं करता है! यह कितना अमानवीय प्रतीत होता है, अगर मेडन फ़ार्मा की दवाएँ भारत में वितरण के लायक़ नहीं हैं, तो इन्हें निर्यात क्यों करने दिया जा रहा है? क्या इन अफ़्रीकी देशों में रहने वाले बच्चों की जान की कोई क़ीमत नहीं है। इस बयान में सबसे विदूप्र बात यह है कि इसमें कहा गया है कि आयातित दवाओं की गुणवत्ता की जाँच की ज़िम्मेदारी ख़ुद आयात करने वाले देश की है। इस बयान से यह तो स्पष्ट है कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इस बात के तूल पकड़ने के उपरान्त, भारतीय सरकार द्वारा किसी भी तरह से लीपापोती करके इस पूरे मामले को रफ़ा दफ़ा करने की कोशिश की जा रही है।
जब गाम्बिया में बच्चों की मौत की बात सामने आयी तो यह बाज़ारू गोदी मीडिया इस पूरे घटनाक्रम को देश को बदनाम करने की साज़िश क़रार देने में लग गया। भारत से पिछले वर्ष दवाइयों के निर्यात का कुल कारोबार क़रीब 24.62 अरब डॉलर का रहा है। अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में अपनी साख को बचाये रखने के लिए भारत के दवा उद्योग से जुड़े पूँजीपति इस मामले पर पर्दा डालने का पूरा प्रयास कर रहे हैं।
और अन्त में…
पूँजीपतियों की मुनाफ़े की हवस इतनी प्रचण्ड होती है कि इसके सामने मासूम ज़िन्दगियाँ भी छोटी दिखने लगती हैं। पूँजीवादी व्यवस्था ऐसी ही घिनौनी विदुप्रताओं को जन्म देती है। दवा उत्पादक दवाएँ इसलिए नहीं बनाते ताकि लोगों की ज़िन्दगियाँ बच सकें, बल्कि इसलिए उत्पादित करते हैं, ताकि वे मुनाफ़ा कमा सकें। आख़िर कब तक चन्द मुट्ठीभर लोगों के मुनाफ़े की भूख की तृप्ति के लिए मासूम ज़िन्दगियों की बलि चढ़ती रहेगी! यह परिपाटी तब ही रुक सकती है, जब इस मानवद्रोही व्यवस्था को सिरे से उखाड़कर मानवकेन्द्रित समाज की स्थापना कर दी जाये। इसके लिए लम्बे सतत् संघर्ष की अवश्यकता है।
परन्तु तात्कालिक तौर पर इस मसले पर हमें सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद का परिचय देते हुए गाम्बिया की पीड़ित जनता के पक्ष में खड़ा होना होगा, जिसने ऐसी हृदय विदारक त्रासदी को झेला है। हमारा यह फ़र्ज़ बनता है कि हम भी इस मसले पर सरकार को घेरें, उससे जवाबतलब करें। इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित करें कि दोषी दवा उत्पादकों पर त्वरित कार्रवाई की जाये। साथ ही भविष्य में दवाओं की गुणवत्ता को लेकर इस तरह की लापरवाही न हो, इसके लिए ज़रूरी क़दम उठाने के लिए सरकार को मजबूर किया जाये।