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अन्याय शक्तिशालियों का आयुध होता है और न्याय शक्ति-हीनों का रडार

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संसद का, सत्ताधारी परिवार का, सत्तासीन गठबंधन का विवेक भले ही खंडित हो चुका हो अपने प्रक्षेप पथ पर चलते हुए राहुल गांधी भारत के जिस ‘आम-जन’ से जुड़ रहे हैं, उस ‘आम-जन’ का विवेक खंडित नहीं है। अखिलेश यादव का तत्परता से इस अवसर पर किया गया हस्तक्षेप संसद में घने अंधकार में बिजली की तरह चमकी। राहुल गांधी के माफी चाहने से इनकार और अखिलेश यादव के संयम के चलते यह बिजली वज्राघात में नहीं बदली। पीठासीन अधिकारी ने इस स्थिति को अविलंब भांपते हुए संसदीय कार्रवाई से हटा दिये जाने का आश्वासन दिया। यह आश्वासन तब तक सार्थक और असरदार नहीं हो सकता है, जब तक संविधान के प्रति अपनी ‘सच्ची श्रद्धा’ को खंडित करते हुए ऐसी स्थिति उत्पन्न करनेवाले माननीय सांसद के मन में अपने किये के प्रति ‘सच्ची ग्लानि’ उत्पन्न करने में सत्ता-परिवार और सत्तासीन गठबंधन ‘सच्ची कामयाबी’ हासिल नहीं कर लेती है। लेकिन जिस प्रतियोगी तत्परता से प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी ने खुद इस मामला में भी जो रुख और रवैया अपनाया है, उससे तो यही लग रहा कि सच्ची क्या, ‘नकली ग्लानि’ की भी उम्मीद बेकार ही है। शुभ-विवेक के जागने का कोई निश्चित समय नहीं होता है, उम्मीद को बचाये रखना जरूरी है। सो ना-उम्मीदी के विरुद्ध उम्मीद को जिलाये रखना होगा।  

प्रफुल्ल कोलख्यान 

न्याय का सवाल सभ्यता का मौलिक सवाल है। अन्याय शक्तिशालियों का आयुध होता है और न्याय शक्ति-हीनों का रडार। शक्ति-हीन लोग न्याय के रडार से शक्तिशाली लोगों के आयुध और आक्रमण की सूचना पा जाते हैं। अपने साथ होनेवाले अन्याय को पहचानने और चिह्नित करने के लिए न्याय-शास्त्र में पारंगत होने की जरूरत नहीं होती है। दूसरों के साथ होनेवाले अन्याय को चिह्नित करने, पहचानने के लिए जरूर माननीय वकीलों, जजों आदि को बड़ी-बड़ी पोथी पढ़नी पड़ती है, गहरा अध्ययन करना पड़ता है। लोकल ‘न्याय-पुरुष’ तो पोथी-पतरा के बिना ही तत्काल ‘न्याय-सेवा’ संभव कर देते हैं। 

असल में, शक्ति के बिना सूचना का महत्व बहुत कम हो जाता है। ऐसे दौर में जब राक्षसवाद सूचना समेत शक्ति के सभी केंद्रों पर शिकंजा कसने में कामयाब हो जाता है, आम लोगों की मुश्किलों की कोई सीमा नहीं रहती है। ऐसे में, जब शक्ति की कोई विपथित धारा, सचमुच शक्ति-हीनों की शक्ति बनकर जुड़ जाती है तो ‘शक्ति-हीनों’ की क्षमता की सफलता में कमाल की धार आ जाती है। इसका कारण एक बड़ा कारण तो यह है कि शक्तिशाली लोगों के पास आयुध जितना मारक होता है, लेकिन उनके पास विवेक का रडार या तो होता ही नहीं है या फिर बहुत कमजोर होता है। 

सच पूछा जाये तो ‘न्याय योद्धा’ राहुल गांधी इस समय शक्ति की उसी ‘विपथित धारा’ के रूप में ‘शक्ति-हीन’ लोगों के साथ जुड़ रहे हैं। बल्कि जुड़ गये हैं। अखिलेश यादव हों, हेमंत सोरेन हों या तेजस्वी यादव आदि हों वे राजनीति के अपने स्वाभाविक पथ पर हैं। स्वाभाविक पथ इसलिए कि वे सभी उसी पथ पर राजनीतिक रूप से सक्रिय हैं, जिस यात्रा-पथ के किसी-न-किसी मकाम से उनकी यात्राएं शुरू हुई थी। लेकिन राहुल गांधी भारतीय राजनीति में अपने स्वाभाविक पथ पर नहीं हैं। वे विपथित धारा की शक्ति के रूप में सक्रिय हैं, ऐसा किसी को भी साफ-साफ दिख सकता है। 

राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की नई राजनीतिक शैली अपने नये प्रक्षेप पथ (trajectory) पर यात्रा करती हुई दिख रही है, इस दिखने में कोई छायाभासी प्रसंग नहीं है। कांग्रेस जमात को इस प्रक्षेप पथ पर लाना राहुल गांधी के लिए कितनी बड़ी चुनौती रही होगी, इसका बाहर से अनुमान करना बहुत आसान नहीं है! इस मामले में राहुल गांधी के संघर्ष की चुनौती समाप्त नहीं हो गई है। अतीत में कांग्रेस के उठाये गये राजनीतिक कदम, रणनीतिक पहल का बार-बार उल्लेख करते हुए भारतीय जनता पार्टी के नेता राहुल गांधी की चुनौती को बढ़ाने की कोशिश में लगे रहते हैं। मुराद यह है कि राहुल गांधी को उनके नये प्रक्षेप पथ पर चलने में मुश्किलें बढ़े। सच पूछा जाये तो राहुल गांधी का जितना संघर्ष भारतीय जनता पार्टी की राजनीति से है उससे कम संघर्ष कांग्रेस की पारंपरिक राजनीति से नहीं है। अगर राहुल गांधी अपने इस आंतरिक संघर्ष में सफल होते हैं तो वे महात्मा गांधी के बाद कांग्रेस के दूसरे नेता होंगे। 

याद किया जा सकता है कि किस तरह महात्मा गांधी ने कांग्रेस की राजनीति को अपने प्रक्षेप पथ पर लाने के लिए कांग्रेस में कितना और कैसा संघर्ष किया था। संघर्ष भीतरी हो या बाहरी, अपने प्रक्षेप पथ पर लाने की कोशिश करनेवाले नेता को वास्तविक संघर्ष के लिए संगठन में पहले से उपलब्ध शक्ति से कहीं अधिक और अतिरिक्त शक्ति चाहिए होती है। महात्मा गांधी ने इस संघर्ष के लिए ताकत का स्रोत अपनी आत्मा की ‘अध्यात्मिक किरण’ और पराई पीर को महसूस करनेवालों में खोजी थी। महात्मा गांधी की राजनीतिक शक्ति का मूल स्रोत यही था! उन्होंने भारत के ‘आम जन’ के पीर से जुड़कर अपराजेय राजनीतिक शक्ति हासिल की थी। 

महात्मा गांधी के पहले और बाद के कांग्रेस की राजनीति का गहराई से ऐतिहासिक विश्लेषण करने पर कांग्रेस और महात्मा गांधी के रिश्तों के बारे में कुछ दिलचस्प तथ्य सामने आ सकते हैं। उनके कांग्रेस से जुड़ने और औपचारिक रूप से कांग्रेस से अलग होने के बाद भी कांग्रेस-जन के उनसे जुड़े रहने पर अचंभित हुए बिना नहीं रहा जा सकता है। अभी तो इतना याद कर लेना ही काफी है कि महात्मा गांधी अपने बारे में कहते थे, ‘हां मैं हिंदू हूं। मैं एक ईसाई मुस्लिम बौद्ध और यहूदी भी हूं।’ वे अपनी नागरिकता को भारतीय और जाति को गुजराती मानते थे। बंगाल में जाति का मतलब आज भी जातीयता के राष्ट्रीयता के अर्थ में ही लिया जाता है। 

2024-25 के आम बजट पर बोलते हुए सत्ताधारी दल के सांसद और पूर्व मंत्री ने राहुल गांधी की जाति का सवाल उठाया और बोल गये कि जिनकी जाति का पता नहीं है वे (जाति) गणना की बात करते हैं! यह बात जितनी अभद्रता और दुष्टता से बोल दी गई वह अपने-आप में सन्न कर देनेवाली थी। अभद्रता और दुष्टता के जिस निकृष्ट अर्थ में राहुल गांधी की जाति का सवाल उठाया गया और सत्तासीन गठबंधन के किसी सांसद ने इसका कोई प्रतिवाद नहीं किया तो क्या उसे भारत की संसद के खंडित विवेक का उदाहरण नहीं मानेगी दुनिया! जिस अर्थ में राहुल गांधी की जाति का सवाल उठाया गया, उस अर्थ में भारत के कई लोगों की आत्मा अपने-अपने कारणों से भी लहु-लुहान हो गई। इस आपराधिक आघात की कीमत तो किसी-न-किसी को चुकानी ही होगी; चाहे भारतीय जनता पार्टी, सत्तासीन गठबंधन के साथी चुकाएं या भारत का लोकतंत्र चुकाए, कीमत तो चुकानी होगी। 

संसद का, सत्ताधारी परिवार का, सत्तासीन गठबंधन का विवेक भले ही खंडित हो चुका हो अपने प्रक्षेप पथ पर चलते हुए राहुल गांधी भारत के जिस ‘आम-जन’ से जुड़ रहे हैं, उस ‘आम-जन’ का विवेक खंडित नहीं है। अखिलेश यादव का तत्परता से इस अवसर पर किया गया हस्तक्षेप संसद में घने अंधकार में बिजली की तरह चमकी। राहुल गांधी के माफी चाहने से इनकार और अखिलेश यादव के संयम के चलते यह बिजली वज्राघात में नहीं बदली। पीठासीन अधिकारी ने इस स्थिति को अविलंब भांपते हुए संसदीय कार्रवाई से हटा दिये जाने का आश्वासन दिया। यह आश्वासन तब तक सार्थक और असरदार नहीं हो सकता है, जब तक संविधान के प्रति अपनी ‘सच्ची श्रद्धा’ को खंडित करते हुए ऐसी स्थिति उत्पन्न करनेवाले माननीय सांसद के मन में अपने किये के प्रति ‘सच्ची ग्लानि’ उत्पन्न करने में सत्ता-परिवार और सत्तासीन गठबंधन ‘सच्ची कामयाबी’ हासिल नहीं कर लेती है। लेकिन जिस प्रतियोगी तत्परता से प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी ने खुद इस मामला में भी जो रुख और रवैया अपनाया है, उससे तो यही लग रहा कि सच्ची क्या, ‘नकली ग्लानि’ की भी उम्मीद बेकार ही है। शुभ-विवेक के जागने का कोई निश्चित समय नहीं होता है, उम्मीद को बचाये रखना जरूरी है। सो ना-उम्मीदी के विरुद्ध उम्मीद को जिलाये रखना होगा।   

इंडिया अलायंस के साथ मिलकर राहुल गांधी के नेतृत्व में भारत का लोकतंत्र जिस नई राजनीतिक यात्रा पर निकल पड़ा है। उसे अभी लंबी दूरी तय करनी है। इस लंबी यात्रा में तरह-तरह के चक्कर और चक्रव्यूह हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि राहुल गांधी और इंडिया अलायंस के नेता इस चक्कर को तोड़ने, चक्रव्यूह को भेदने में निश्चित ही कामयाब होंगे। अपने ‘राष्ट्रवाद’ पर इतरानेवाले ‘राष्ट्र-कवि’ को कभी याद भी नहीं कहते हैं! सनातन की बात करनेवाले ‘अयोध्या’ का सांस्कृतिक और सनातन अर्थ ही भूल गये कि अयोध्या का सनातन अर्थ है, जहां और जिसके संदर्भ में युद्ध नहीं किया जा सकता है। लेकिन सतत युद्ध की मुद्रा में रहनेवाले लोगों ने इसे तब तक नहीं समझा, जब तक खुद अयोध्या ने उन्हें नहीं समझाया। समझ तो गये लेकिन मानते नहीं। सहज समझ और संवेदनशीलता के विरुद्ध आचरण तो राक्षसवाद की राजनीति में आम बात होती है। 

मैथिलीशरण गुप्त (3 अगस्त 1886 – 12 दिसंबर 1964) राम भक्त थे, उनके राम कहते हैं, ‘सन्देश यहां मैं नहीं स्वर्ग का लाया, इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।’ 1910 में प्रकाशित उन का प्रसिद्ध खंड काव्य है, ‘जयद्रथ-वध’। इस खंड काव्य की तीन उक्तियों में से एक-एक सत्तासीन गठबंधन, भारत के ‘आम-जन’ और सत्ता-परिवार के हित की दृष्टि से बहुत प्रासंगिक है, हालांकि अपने हित के प्रसंग को समझना बहुत आसन नहीं होता है; मतांध और मदांध लोगों के लिए तो अपने हित के प्रसंग को समझना लगभग असंभव ही होता है। सत्तासीन गठबंधन के हिस्सेदारों के लिए इस खंड काव्य की एक उक्ति है, ‘न्यायार्थ अपने बंधु को भी दण्ड देना धर्म है।’ भारत के ‘आम-जन’ के लिए एक उक्ति है, ‘अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है।’ एक उक्ति सत्ता-परिवार के लिए है, ‘ले डूबता है एक पापी नाव को मझधार में।’ जीवन और दृष्टि का अनुभव साफ-साफ बताता है, जहां-जहां धुआं, वहां-वहां आग; जहां-जहां अन्याय, वहां-वहां रण। अन्याय लगातार हो रहा है, अन्याय हुआ है तो ‘आम-जन’ भी मानता है, ‘न्याय योद्धा’ भी जानता है कि न्यायार्थ रण भी होगा। सदा की ही तरह इस रण में सबसे बड़ी भूमिका ‘आम-जन’ की है।

लोकतंत्र में शक्ति-हीन की शक्ति का स्रोत मताधिकार में होता है। इस मताधिकार में ही यह ताकत है कि जिसके नारा ‘आम-जन’ विश्वास करता है, उसे यह शक्ति नारायण बना देती है। मताधिकार को अपने अनुकूल करने के लिए राजनीति परेशान रहती है; नहीं, नहीं, भारतीय जनता पार्टी की राजनीति तो अपने अनुकूल नहीं, ‘उनके अनुकूल’ करने के लिए हलकान रहती है! ‘उनके अनुकूल’ का मतलब कॉरपोरेट के अनुकूल! इसके लिए धुआं-बाढ़ भाषण और धुआं-उद्धार भाषण का नजारा दिखना भारत में महत्वपूर्ण चर्चा को समझने का अद्भुत अनुभव है। कहना न होगा कि धुआं-बाढ़ भाषण का बढ़ता हुआ वर्चस्व लोकतंत्र में चिंता का विषय है। 

‘आम-जन’ के दिखनेवाले मौन में बहुत ताकत होती है! सत्ता के मद में डूबे लोगों को ‘आम-जन’ के मौन में अपनी अभद्रता और दुष्टता की स्वीकृति ही दिखती है। ‘आम-जन’ के मौन में मजबूरी दिखती है। ‘आम-जन’ के मौन में न तो अभद्रता और दुष्टता की स्वीकृति होती है और न मजबूरी ही होती है। वक्त आने पर ही ‘आम-जन’ के मौन का अर्थ समझ में आता है, ऐसे मामलों में वह ‘वक्त’ तब आता है, जब असल में वक्त जा चुका होता है। लोकतंत्र में ‘आम-जन’ के मौन का आयुधीकरण, प्रतिपक्ष को निशाना बनाने का ‘कारोबार’, अंततः राजनीतिक दिवालिया होने की अनिवार्य परिणति तक पहुंच ही देता है। 

विवेक के बहिष्करण के चक्रव्यूह में कौतूहल, कलह और कोलाहल का नागरिक-पाठ इतना मुश्किल तो नहीं है, नागरिक समाज के अगले और उच्च पायदान पर पहुंचे लोगों के लिए। नागरिक समाज के अगले और उच्च पायदान पर पहुंचे लोगों की तरफ से न्याय-विमुख राजनीति के विरुद्ध स्पष्ट आवाज का इंतजार ‘आम-जन’ को भी है, ‘आम-जन’ की राजनीति को भी है। कुछ लोगों को ठीक ही लगता है कि यह उनका देश है। उन्हें ठीक से कब यह भी लगने लगेगा कि सूखे पत्तों की तरह उड़ती हुई जिंदगी किसी और की ही नहीं उनकी भी है! ठूंठ पर लटके हुए लोगों में शामिल तो वे खुद भी हैं! जिस अधिकार से शामिल रहा करते हैं राष्ट्र के गर्व में, उसी तरह से स्वतः शामिल रहते हैं शर्म में भी! ‘दिनकर’ बता गये हैं, ‘जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध’! क्या हमारा समय सिर्फ तटस्थों का अपराध ही लिखता रह जायेगा! लोकतंत्र तटस्थों की आकांक्षा से नहीं, पक्षकारों के पराक्रम से कार्यशील रहता है।     

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