~ कुमार चैतन्य
तबला वादक ज़ाकिर हुसैन से लेखिका नसरीन कबीर ने पूछा – क्या आप नियमित योग करते हैं ? ज़ाकिर हुसैन ने कहा – मेरे लिए योग और ध्यान की परिभाषा कुछ और है। हर परफॉर्मेंस के पहले जब मैं बहुत ध्यान, तन्मयता और मेहनत से अपने कुर्ते और पायजामे की क्रीज को ठीक करता हूं तो यह मेरे लिए ध्यान जैसा होता है।
ढेर सारे लोगों ने समय-समय पर योग और ध्यान को व्यक्तिगत रूप से अलग-अलग ढंग से परिभाषित किया है। तो क्या योग और ध्यान के मायने बदल रहे हैं या परिभाषाएं बदल रही हैं। आज के जटिल ,उलझे और गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में लोगों का बिगड़ता मानसिक स्वास्थ्य एक वैश्विक समस्या है।
सर्वेक्षण बताते हैं कि दुनिया में तनाव, अवसाद और दूसरी मानसिक बीमारियों से ग्रस्त लोगों की संख्या में पिछले कुछ दशकों में तेजी से इजाफा हुआ है। इस समस्या का निराकरण दुनिया भर के मनोवैज्ञानिकों और मनोचिकित्सकों के लिए आज बड़ी चुनौती है। उनसे पार पाने का एक कारगर उपचार हमारी अपनी भारतीय संस्कृति ने भी दिया है और वह भी हजारों साल पहले। यह उपचार है योग।
अपने मूल अर्थ में योग आत्मा का विज्ञान है। इसके तीन चरण निर्धारित हैं। पहले चरण में यह विभिन्न आसनों के माध्यम से देह को परिष्कृत और स्वस्थ करता है। दूसरे चरण में यह ध्यान के माध्यम से हमें मानसिक तौर पर एकाग्र और तनाव-मुक्त करता है। तीसरा चरण योगियों के लिए है जहां ध्यान के अंतिम चरण समाधि की अवस्था में वे अपने वास्तविक स्वरुप और अपनी संचालक ऊर्जा का साक्षात्कार करते हैं। आदियोगी शिव योग के प्रवर्त्तक थे।
योगेश्वर कृष्ण ने इसे ऊंचाइयां दीं। बुद्ध, महावीर, पतंजलि, रामकृष्ण और विवेकानंद ने योग के माध्यम से अपना और दूसरों का जीवन भी बदला था।
योग को आधुनिक समय में विविध आसनों के माध्यम से शरीर को स्वस्थ और रोगमुक्त करने का विज्ञान भर कहा जाने लगा है। यह योग का आंशिक सच है। योग ध्यान के माध्यम से तनाव से मुक्ति, एकाग्रता और मानसिक स्वास्थ्य का का अचूक साधन भी है। ध्यान मन में गहरे घर जमाए असंख्य विचारों, उलझनों, कामनाओं और अनावश्यक सूचनाओं से खाली करते रहने का विज्ञान है।
मन को विचारशून्यता की आदर्श स्थिति तक ले जाना एक लंबी और निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। ज्यादातर लोग कुछ ही दिनों के अभ्यास के बाद ध्यान से ऊबने लगते हैं। मन में इतना सारा कूड़ा भरा हो तो इसे खाली करने के लिए जैसी एकाग्रता की आवश्यकता है वैसी एकाग्रता पाना कठिन तो होता ही है। प्राचीन काल में जब जीवन में इतनी ज्यादा जटिलताएं नहीं थीं और लोगों के पास इफरात समय था तब ऐसा करना शायद संभव था।
आज के दौर में वैसी निश्चिंतता और समर्पण किसी के लिए भी कठिन है। ध्यान के एक विकल्प के रूप में कुछ घंटों की बहुत गहरी नींद मानसिक समस्याओं का एक कारगर निदान है, लेकिन दिमाग पर जब इतना बोझ पड़ा हो तो गहरी नींद आती किसे है ? टुकड़ों में बंटी आधी-अधूरी नींद से बात नहीं बनती। शायद यही सोचकर हमारे पूर्वजों ने मानसिक शांति और एकाग्रता के कुछ अन्य साधन भी खोज निकाले थे। इन्हें हम कला कहते हैं।
हमारा हजारों साल का अनुभव बताता है कि जो एक कला योग के सर्वाधिक निकट है, वह है संगीत। संगीत मन और आत्मा को निर्मल करने का साधन भी है और साधना भी। मन की उदासी, परेशानी और आत्मा के कलुष का संगीत से बेहतर कोई उपचार नहीं। योग और संगीत को हमारी संस्कृति में एक दूसरे का पूरक भी कहा गया है।
दोनों के मेल से एक संपूर्ण व्यक्तित्व का जन्म होता है – प्रेम और उदात्त मानवीय भावनाओं से भरा हुआ एक शांत, स्वस्थ व्यक्तित्व। योग के प्रवर्त्तक शिव संगीत के भी प्रवर्त्तक थे। उनकी डमरू से निकला हुआ नाद सृष्टि का आदिम राग कहा गया है। योगेश्वर कृष्ण की योग-साधना बांसुरी के बिना अधूरी थी। आज दुनिया भर में संगीत का उपयोग मानसिक विकारों की चिकित्सा के तौर पर होने लगा है और इसके बेहतर नतीजे भी सामने आ रहे हैं।
जो अन्य कलाएं योग जैसी मानसिक एकाग्रता हासिल करने में सहायक होती रही हैं, वे हैं साहित्य, नृत्य, चित्रकला, मूर्तिकला और हस्तशिल्प।
कुछ पश्चिमी देशों में तनाव-मुक्ति और मानसिक एकाग्रता के लिए उम्रदराज लोगों में ही नहीं, युवाओं में भी हाल के वर्षों में कला पर निर्भरता का प्रचलन बढ़ा है। वहां इसे नया योग कहा जा रहा है। हाल में इंग्लैंड की एक चर्चित संस्था ‘होम ऑफ क्राफ्ट, होबिज एंड आर्ट्स’ ने 18 से 34 वर्षों के युवाओं के बीच एक व्यापक सर्वेक्षण कराया था जिसके नतीजें बहुत दिलचस्प रहे हैं।
इससे पता चलता है कि इस आयु वर्ग के 52 प्रतिशत युवक और युवतियों की प्राथमिकताएं बदली हैं। वे एक उलझे और थका देने वाले दिन के बाद टेलीविजन देखने, सोशल मीडिया से जुड़ने या जिम में पसीना बहाने के बजाय अपनी पसंदीदा कला या शिल्प के साथ कुछ घंटे बिताना ज्यादा पसंद करते हैं। ज्यादातर युवाओं की पसंद पेंटिंग या कलरिंग है और युवतियों की हस्तशिल्प या बुनाई। सर्वेक्षण में शामिल बाकी लोगों ने बताया कि दिमागी बोझ से मुक्त होने के लिए वे किसी कला से जुड़ने के बारे में गंभीरता से विचार कर रहे हैं।
जिन लोगों ने कला और शिल्प के माध्यम को चुना था उन्होंने बताया कि दिन भर के तनावपूर्ण अनुभव और चिंताओं से मष्तिष्क को मुक्त करने और अपनी ऊर्जा के रचनात्मक उपयोग के लिए उन्होंने यह रास्ता चुना है। इनके अनुभव ने उन्हें बहुत हद तक बदला भी है। ये उनके लिए न सिर्फ मनोरंजन और दिमाग को शांत और स्वस्थ रखने के माध्यम बने हैं, बल्कि इस शौक ने उनके भीतर की रचनात्मकता को दिशा और उड़ान भी दी है।
दुनिया भर की आदिवासी संस्कृतियों में व्यस्त दिन के बाद स्त्रियों और पुरुषों के सामूहिक संगीत और नृत्य खुद को अनावश्यक चिंताओं और विचारों से खाली करने का ऐसा ही एक उपक्रम रहा है। अब किसी उत्सव के दौरान ही सही, आदिवासी संस्कृतियों में यह चलन आज भी जारी है। हमारे यहां एक ऐसा दौर भी रहा है जब सांझ होते ही लोग गांवों में चौपाल में आ बैठते थे।
गांव की सामूहिक समस्याओं पर भी चर्चा होती थी और लोकसंगीत की स्वरलहरियों पर लोग झूमते-नाचते और गाते भी थे। टेलिविजन और इंटरनेट के आगमन के साथ सामूहिकता की इस भावना का तेजी से लोप हुआ। चौपाल बंद हुए और लोग अपनी-अपनी उलझनों के साथ अपने-अपने घरों में अकेले रह गए।
हमारे अपने देश में एक व्यस्त और थका देने वाले दिन के बाद आमतौर पर लोग या तो टेलीविजन के आगे बैठ जाते हैं या अपने आपको सोशल मीडिया के हवाले कर देते हैं। टेलीविजन और सोशल मीडिया कुछ हद तक अपनी दुनिया से जुड़ने के साधन तो हैं, लेकिन उनकी बढ़ती लत लोगों को राहत देने के बजाय उन्हें अनिद्रा, सिरदर्द, माइग्रेन जैसी बीमारियों की ओर लगातार धकेल रही हैं।
एक तरह से यह अपने को एक नए तरह के तनाव और अवसाद में ले जाने जैसा ही है। दिन शुरू करने के पहले या एक व्यस्त दिन के बाद कुछ देर के लिए ध्यान में जाने की मानसिकता लोगों की आमतौर पर नहीं है। विभिन्न कलाओं का सहारा लेने वाले लोगों की संख्या भी बहुत कम है। ऐसे लोगों के लिए भी एकाग्रता और मानसिक तनावों से मुक्ति के कुछ सीधे, सहज उपाय मौजूद हैं।
हमारे जीवन में ऐसे असंख्य काम है जिन्हें तबियत से और डूबकर किये जायं तो कुछ हद तक ध्यान वाली एकाग्रता हासिल की जा सकती है।
मतलब यह कि मानसिक एकाग्रता के लिए ध्यान, कला या रचनात्मकता कारगर उपाय तो हैं, लेकिन इनमें आपकी रुचि नहीं है तो दैनंदिन के ऐसे बहुत सारे छोटे-छोटे काम भी हैं जिन्हें तन्मयता से करके वांछित परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। मसलन जब हम बच्चों के साथ हैं तो बच्चा बनकर उनके साथ रहें। उनके साथ थोड़ी देर खेलें और उनके जैसी कुछ हरकतें कर लें। कभी घर से निकलें और कुछ दिन प्रकृति के बीच जाकर रहें।
बाहर निकलना संभव न हो तो अपनी छोटी-बड़ी बागवानी को ही थोड़ा वक़्त दें। खिले फूलों और नवजात पत्तों को प्यार से सहलाएं और उनसे आंखों ही आंखों में संवाद करें। किसी बाग में जाकर पक्षियों की आवाज सुनें और वैसी ही आवाज में उन्हें प्रत्युत्तर दें। बड़ा मजेदार सिलसिला होता है यह। स्नान करने जाएं तो उसे निबटाएं नहीं, उसका आनंद लें। पानी की धार और शीतलता को देह पर महसूस करें। अकेले हैं तो अपनी पसंद के गीत सुनें।
कोई गीत सुनकर हाथ-पांव थिरके तो कमरा बंद कर उटपटांग ही सही, थोड़ा नाच लिया करें। गाने का मन करें तो मन से और खुलकर गाएं। पढ़ने का मन है तो कोई अच्छी किताब लें और उसकी भावनाओं और पात्रों के साथ बह निकलें। लिखने का मन हो तो लिखें, लेकिन तबियत से। एक अच्छी रचना से मिलने वाली संतुष्टि सौ तनावों पर भारी है। व्यायाम करते हैं तो आदतन नहीं, एकाग्रचित होकर और प्रसन्नता से करें। टहलने की आदत है तो टहलते समय उठने वाले एक-एक कदम पर ध्यान टिकाएं। खेलने का मन हो तो खेल के मैदान में चले जाएं या गली के बच्चों के साथ ही कुछ देर क्रिकेट या फुटबॉल खेल लें। हंसी आए तो खुलकर हंसें।
लाफिंग क्लब वाली नकली हंसी नहीं, सहज और स्वाभाविक हंसी। रोना आए तो अकेले में जी भर कर रो लें। खुलकर हंसना और रोना मन-मस्तिष्क को हल्का कर देता है। पूजा या नमाज़ आपकी दिनचर्या में शामिल हैं तो उसे भीड़ में नहीं, एकांत में पूरी एकाग्रता से करें। दैनंदिन के छोटे-छोटे काम भी मनोयोग से किए जाएं तो तनाव से बहुत हद मुक्त हुआ जा सकता है।
महान अभिनेता चार्ली चैपलिन ने कहा था – जीवन को क्लोज- अप में देखोगे तो यह ट्रेजेडी ही नज़र आएगी। लंबे शॉट में देखो तो यह कॉमेडी के सिवा कुछ भी नहीं।’ वस्तुतः हमारा यह छोटा-सा जीवन हंसी और आनंद ही है। जब ईश्वर को आनंद स्वरूप कहा गया है तो उसकी कृतियां हम सब इस आनंद से वंचित कैसे हैं ? जीवन की तमाम उलझनें और तनाव क्षणिक हैं जिन्हें हम स्वयं अपनी सोच और कृत्यों से पैदा करते चलते हैं।
वे जैसे आते हैं, वैसे ही चले भी जाएंगे। उन्हें अपने ऊपर इस कदर हावी न होने दें कि वे हमसे भी बड़े हो जायं। हमारे चारों तरफ छोटी-छोटी खुशियां और राहतें बिखरी हुई हैं। बड़ी खुशियों के इंतज़ार में या अपनी ओढ़ी हुई चिंताओं के दबाव में हम उनकी अनदेखी करते चलते हैं।
खुशियों और राहतों के इन छोटे-छोटे पलों को पहचानना और उन्हें लपक लेना हमारी दिनचर्या में शामिल हो जाय तो मन का मंजर बदलते देर न लगेगी। यह किसी योग या कला से कम नहीं है। बस अपना नज़रिया बदलने की ही तो बात है – हमको जीना नहीं आया वरना / ज़िंदगी जश्न के सिवा क्या है ! (चेतना विकास मिशन).