*सुसंस्कृति परिहार
भारतीय किसानों के मुख्य दो ही त्यौहार है जिन्हें भी कारपोरेट घरानों ने बाजार के ज़रिए दीपोत्सव और होली को बुरी तरह हथिया लिया है।दोनों बाजारु आईटम पर निर्भर होकर रह गए हैं। पूंजीपतियों ने जिस तरह इन पर्वों के उत्साह को कम किया है उसके मूल में तड़क भड़क वाले साजो-सामान हैं।जिन्हें आम भारतीय इस सुरसा सी मंहगाई के दौर में कैसे खरीद सकता है आधुनिकता की दौड़ में वह अपने त्यौहार पर खुश नहीं हो पाता सारी खुशियां ले देकर कारपोरेट और लुटेरों के घर ही नज़र आती हैं। यह चिंताजनक है।जो आम भारतीय के प्राचीन पर्व हैं।
हम सब जानते हैं कि हमारा देश कृषि प्रधान है हम बचपन से यह पढ़ते और सुनते आए हैं ।देश की आबादी का लगभग आज भी 65% कृषि कार्य से जुड़ा था और जो शेष 35% है वह भी कृषि उत्पादन के बढ़ने से प्रसन्न होता था क्योंकि तमाम विकास का एक बड़ा संसाधन कृषि ही है दूसरे शब्दों में कहें तो कृषि उत्पादन ही खुशहाली मनाने का अवसर देता था जिस का प्रतीक पर्व है दीपावली ,जो खरीफ फसल के आने से झोली में खुशियां भर देता है ।होली भी है, जो रवि फसल के आने से झूमने ,खुशी मनाने ,मस्त होने का अवसर देती है और भी त्योहार हैं पर दिवाली का त्यौहार किसानों के लिए विशेष मायने रखता है क्योंकि यह खुशगवार मौसम में आता है इसमें शादी विवाह ज्यादा होते हैं व्यापारी भी किसानों की खरीदारी की उमंग को सहेजे हुए होता था।हिसाब किताब दुरुस्त कर लक्ष्मी पूजन करता है। खरीदारी करने की खुशी में किसान भी लक्ष्मी पूजन करता है।
पहले सीधा-साधा गणित था अच्छा उत्पादन तो किसान, व्यापारी और जनता खुश। वजह अधिक उत्पादन महंगाई कम कर देता था ,खरीदारी बढ़ती थी विपरीत स्थिति में भी सामान्यतः यह परिस्थिति मानसून के पर्याप्त ना आने , तूफान से फसलों के नाश होने या अधिक वर्षा होने के कारण उत्पन्न होती थी लेकिन इससे जो भी क्षति होती थी उसमें किसान टूटता नहीं था क्योंकि वे जीवन निर्वाह कृषि करते थे जिसमें मिश्रित कृषि होती थी धान, मक्का, उड़द, मूंगफली लगाने का जो चलन था उसने बुरी से बुरी स्थिति में भी किसान को खाली हाथ कभी नहीं रखा । किंतु आज तमाम तौर-तरीके बदल गये हैं ।जीवन निर्वाह कृषि ने व्यवसायिक रूप ले लिया मिश्रित खेती की जगह व्यापारिक फसलें बोई जाने लगीं । सरकार पहले खरीदारी की गारंटी देती रही। इससे किसान उत्साहित हुए । उन्होंने कीटनाशक ,रासायनिक खाद का इस्तेमाल करना शुरू किया। उन्नत बीज ट्रैक्टर से डाले जाने लगे । थेसर, हार्वेस्टर और सिंचाई के नवीनतम उपकरण जैसे स्प्रिंकलर आदि से काम होने लगा ।
जिसका प्रतिफलन सामने आया।जो राशन के रुप में मध्यम और गरीब तबके का सहारा बना । मंडियों में पहुंचे अनाज ने बाढ़ सूखा,भूकंप जैसी त्रासदियों में किसी को भूखा नहीं मरने दिया।अब मंडियों में अनाज की कम खरीदी ने किसान को तोड़ कर रख दिया। कहां वे सरकार से अनाज के दाम बढ़ाने के लिए आंदोलन कर रहे थे उसे कारपोरेट से जुड़े लोगों को अनाज बेचना पड़ रहा है। कारपोरेट ने पहले से ही बड़े गोदाम बना लिए और उनके कहने पर सरकार ने कम खरीद की। । किसान यही मात खा गया उसकी सारी मेहनत पर पानी फिर गया एक साल से अधिक चला आंदोलन और 700से अधिक किसानों की शहादत व्यर्थ गई।कहने को तीनों काले कानून हटाए गए। इससे किसान परेशान भी हुआ और साथ ही साथ हताश भी । परिणाम सामने है अच्छे उत्पादन के बाद भी किसान का दीवाली पर दिवाला निकल गया । कृषि के साथ दूध उत्पादन और पशुधन भी किसान से छिन गया जिससे जैविक खाद भी गया। फलस्वरूप कृषि से जुड़े बहुतेरे उद्यम बंद हो गया । अनेकों लोगों के रोज़गार छिन गये ।
हालात ऐसे बने कि कृषि व्यापार के घाटे में कृषक इतना बड़ा कर्जदार बन गया कि सिवाय आत्महत्या के उसे मुक्ति का कोई मार्ग नहीं दिखा देश में हजारों किसान फांसी के फंदे पर झूल चुके हैं। जिसने किसान की पहचान को बदल दिया। पहले का किसान संवेदनशील था, पशुधन से वह प्रेम करता था ,कई लोग जो खलिहानों में साथ काम करते थे उन से उसका अटूट रिश्ता होता था । पशु-पक्षी भी उनके आत्मीय और मित्रवत थे ।नई कृषि नीति ने यह सब छीन लिया सिवाय धन की लालच ने उसे बज्जुर की छाती वाले से कमजोर बना दिया ,इतना कि वह फांसी पर झूलने लगा।
इस बार तो हालत भारत सरकार की कथित उदारनीति ने रूस और यूक्रेन युद्ध के कारण उनसे अनाज देने वाले देशों को बिना सोचे समझे अपनी गोदामों का लगभग सारा अनाज बेच डाला।अब हालत यह है कि गरीब लोगों को राशन में मिलने वाला गेहूं बंद है उन्हें सिर्फ चावल दिए जा रहे हैं। गांवों से मोटे अनाज ज्वार,बाजरा, रागी,मक्का की सरकार ख़रीद कर रही है जो राशन में बंटेगा इसका मतलब यह है कि जो गांव के लोग मोटा अनाज खाकर जीवननिर्वाह कर लेते थे वह भी उनसे सस्ते में लेकर उनका भोजन छीना जा रहा है वे क्या खायेंगे गेहूं 35-40₹किलो वे खरीद सकेंगे यह बड़ा सवाल है। गेहूं की अगली फसल अप्रेल में आएगी तब तक पेट भरने की मुसीबत सामने आ खड़ी हुई है। इससे मध्यम और छोटे किसान भी प्रभावित हुए हैं जिनके पास अनाज भंडारण की सुविधा नहीं है।कहने का आशय यह है कि इतने बड़े किसान आंदोलन के बावजूद बड़ी मात्रा में अनाज पैदा करने के बाद सरकार की अदूरदर्शिता के कारण आम आदमी आज दो जून की रोटी के लिए मुहताज़ है।उस पर हर चीज़ पर मंहगाई का तड़का।भला कैसे मने दीपावली का त्यौहार।
आज लक्ष्मी वही पहुंच गई जहां अकूत धन था यानी कारपोरेट के पास अडानी दुनिया का तीसरे नंबर का रईस बन गया ।किसान ही नहीं व्यापारी वर्ग भी सकते में है । बड़े कारपोरेट घराने की मंशा आम भारतीय किसान और छोटे व्यापारियों को खत्म करने की है वे अपने मुताबिक फसलें उगा कर किसानों को इस तरह बना दे रहे हैं ताकि किसान कर्ज में डूबा रहे उसकी जमीन की उत्पादन क्षमता भी खत्म हो जाए और किसान निराश होकर जमीन बेचना शुरू कर दे। यह सिलसिला शुरु हो चुका है ।
आदिवासी क्षेत्रों में स्थिति और खराब है उन्हें जंगल सुरक्षा और वन्य प्राणी सुरक्षा के नाम पर उनकी अपनी जमीन से विस्थापित किया जा रहा है अफसोसनाक यह कि यह सब सरकारी संरक्षण में किया जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां जंगलों के करीब पहुंचकर ना केवल वनोपज, औषधियों और वन्य प्राणियों पर अपनी नजर टिकाए हुए हैं बल्कि वह आदिवासी संस्कृति को भी विलुप्त करना चाहती है जो ना केवल आदिवासियों के लिए बल्कि तमाम देश के लिए आगे चलकर दुखदाई साबित होगा ।
दीपोत्सव में पशु पूजन को पशुधन के रूप में दीपावली के दूसरे दिन पूजा जाता है, इसी तरह दीपावली के बाद पशु चराने वाले ग्वालों का नर्तन तकरीबन एक पखवाड़े चलता है । ये हमारी कृषि परंपरा का एक हिस्सा है वह भी आज आसन्न संकट में है । जब किसान के पास पशुधन ही नहीं होगा तो स्वाभाविक तौर पर उत्सव को कौन मनाएगा । हालांकि गोपालन जरूर कहीं-कहीं कायम है लेकिन उनके बछड़े गली गली सड़कों पर बड़ी संख्या में उन्मुक्त घूमने लगे हैं जो दुर्घटनाओं को आमंत्रण दे रहे हैं नई कृषि नीति में बैल का कृषि में उपयोग बंद कर देने का परिणाम सामने है ।आने जाने में बैलगाड़ी का रिवाज़ भी खत्म हो गया उसकी जगह ट्रैक्टर-ट्रॉली ने ली ।अब गोवंश के इन वंशजों का क्या होगा ॽकोई नीति नहीं ।आप समझ सकते हैं फिर ये कहां जाएंगे , कहने की ज़रूरत नहीं ।
भूमंडलीकरण के दुष्परिणाम हमारे सामने हैं देश का अन्नदाता आज झोली फैलाए फकीरों की तरह सरकार के सामने मोहताज खड़ा है । कहीं-कहीं आंदोलनरत भी है ।उसकी ताकत कमजोर हुई है आप ही सोचिए अपनी फसल का मूल्य वे तय नहीं कर सकते सरकार करती है यह कृषि उद्यम के ख़िलाफ़ है,किसान निरंतर टूट रहा है सरकार बेफिक्र है
इसके गंभीर परिणामों को समझना और सुलझाना होगा । यह भी जानना होगा दीपावली का त्यौहार कैसे किसानों से हटकर कारपोरेट के पास पहुंच गया । दीपोत्सव मनाएं पर यह जरूर सोचें हमारी खुशियां कौन छीन रहा है परंपराएं जीवंत रखनी बेकार हैं यदि उनके पीछे का उद्देश्य हम प्राप्त ना कर पा रहे हो। तकरीबन 15 दिवसीय यह प्रकाश पर्व नई रोशनी दे । इसी उम्मीद के साथ एक शेर अर्ज़ है -जाते-जाते सूरज ने आसमां को समझाया,
एक चिराग बेहतर है सौ दिया जलाने से ।
आइए, सिर्फ एक दीप जलाएं और दीपोत्सव मनाएं।क्योंकि हम रोशनी हर घर पहुंचाने वाले हिंदुस्तानी हैं।