शेखर
लोकतंत्र का उजियारा कैसे सत्ता के हाथों में कैद होकर अंधियारे में परिवर्तित हो जाता है उसकी प्रत्यक्ष बानगी आज देश देख भी रहा है और समझ भी रहा है और चुपचाप भोग भी रहा है।
संसदीय लोकतंत्र की गरिमामय प्रस्तावना की बातें अब खत्म हो चुकी है, जनता के मुद्दे अब कहीं नहीं दिखते दिखते है तो गैरजिम्मेदाराना सरकारी आदेश और जाहिल नेताओं की अशोभनीय बयानबाजी और भोंडी हरकतें। जिम्मेदार अपनी जिम्मेदारी को सत्ता के कदमों में रख अपनी झूठी बेचारगी प्रदर्शित करने को ही कर्तव्य समझ बैठे है। संसदीय लोकतंत्र की पहचान ही यह है कि संसद का सदस्य जनता का प्रतिनिधि हो, उसके पास जनता के मुद्दे हो वह देश की विविधताओं को आत्मसात करता हुआ जनहित में सशक्त रूप से अपनी आवाज को रखे, परन्तु अब तो ना मुद्दे मायने रखते है ना ही उम्मीदवार, और ना ही संसद की वह गरिमा बची है जिसके आसरे जनता में भावनात्मक लगाव जागे कि संसद चल रही है तो उनकी जिन्दगी से जुडे मुद्दो पर बात होगी, रास्ता निकलेगा।
अब इस नये लोकतंत्र में न तो हमारे पास निष्पक्ष संसद है, न ही निडर न्यायपालिका। हमारे पास अब तो ऐसा निष्पक्ष संवैधानिक संस्थान भी नहीं रहा जो सत्ताधारी नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों पर लगे आरोपों की स्वतंत्र जाँच कर सके। और तो और हर पाँच वर्ष बाद लोकतंत्र को जीने की स्वतंत्रता का एहसास दिलाने वाला चुनाव आयोग अब सत्ता के आँगन का आज्ञाकारी पुत्र बन चुका है। मानवाधिकार आयोग मानवहित छोड़ दानवों के राजप्रासाद का आतिथ्य सुख भोगने में इतना मसरूफ हो चुका है कि उसे दानव ही मानव नजर आने लगे है। किसान मजदूर और गरीबों के हित में आवाज उठाने वाले सामाजिक संगठन अब नदारद हैं, पत्रकारों की कलम सत्ता के यशगान तक सीमित है और शिक्षा के मंदिर नोटप्रेस का दूसरा रूप बन चुके है। और तो और अब देश को जोड़ने और सामाजिक समरसता की भावना का एहसास भी खत्म हो चुका है।
प्रश्न यह उठना स्वाभाविक है कि फिर हमारे पास बचा क्या है? हमारे पास अब बची है बेरोजगारों की विशाल फ़ौज जिसमें से अधिकांश मात्र इसलिये खुश है कि भारत अब सुरक्षित हाथों में है और शीघ्र ही धर्मनिरपेक्षता का चोला छोड़ धार्मिक राष्ट्र बनने वाला है। हमारे पास बची है किसानों की बदहाली जिसके लिये सत्ता के पास देने को आत्महत्या का एकमात्र विकल्प है। हमारे पास बची है ढोंगी बाबाओं की फौज जो कहीं व्यापार में मदमस्त है और कोई तेल मालिश में। हमारे पास अरबपतियो की ऐसी कतार है जो देश में लूट मचाकर दुनिया के बाजार में अपनी धमक बनाये हुये है। अब हमारे पास अपराधी और भृष्ट सांसदो विधायको की ऐसी फौज है जो जनता के प्रतिनिधी बनकर संविधान को खत्म कर संविधान से मिले विशेषाधिकार का भी लुत्फ उठा रही है और अपराध भी खुले तौर पर कर रही है।
हमारे पास अब है महात्मा गाँधी को गालियाँ देते विक्षिप्त और कुंठित लोगों का समूह जो सावरकर और गोडसे को देश का आदर्श बनाने पर आमादा है। अब हमारे पास कानून-व्यवस्था नहीं है बल्कि सड़क पर लिचिंग कर न्याय देने का जंगल कानून है। अब हमारे पास ऐसी फौज है जो असली फ़ौज से ज्यादा ताकत दिखाने का दम्भ भरती है।
इस आधुनिक संसदीय लोकतंत्र में अब सत्ता से सवाल करने वालों को अर्बन नक्सली, कांग्रेसी और देशद्रोही की उपाधि मिलना आम बात हो चुकी है, साथ ही जब सवाल करने वालों को भाड़े के अशिक्षित आईटी सेल के आतंकियों के द्वारा गलियों से जब नवाजा जाता है तब भारत जगतगुरु नहीं होकर एक संस्कृति विहीन गालीबाज देश के रूप में परिवर्तित हो जाता है।
जब सत्ता अपने कुत्सिक विचारों के साथ लोकतंत्र को अपने हाथों में कैद कर अपने द्वारा गड़े हुए झूठ को ही सत्य दिखलाना चाहती है तब यह प्रश्न उठता है कि क्या लोकतंत्र जीवित है, क्या संसद की गरिमा जिंदा है, क्या देश की जनता स्वतंत्र है? तब प्रश्न उठता है क्या वोट का लोकतंत्र अब और इस देश मे साँस ले पायेगा?
पहले इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी को अनुशासनात्मक कार्यवाही कह कर लोकतंत्र का दम घोटा था और अभी की सत्ता भी अपने लाभ अनुसार जनहित को त्यागने को राष्ट्रवाद का नाम दे लोकतंत्र को खत्म कर चुकी है। वाकई देश बहुत विकास कर चुका है हम कहीं पिछड़ तो नहीं गये।
शेखर