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क्या परमात्मा को परिभाषित करना सम्भव है ?

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सुष्मिता शुक्ला (भदोही)

चेतना मिशन के निदेशक डॉ. विकास मानवश्री के शब्दों में कहूं तो – “ईश्वर सर्वत्र- संब्याप्त- स्वसंचालित- नियामक सत्ता है.” एक-एक शब्द पर ध्यान दें तो बुतपूजा, ब्यक्तिपूजा, मंडल-कमंडल, तीर्थ-व्रत, बाबा-काबा सब नौटंकी. सिर्फ़ और सिर्फ़ कर्म और फल का महत्व. पूजा, प्रार्थना, चढ़ावे जैसी हमारी किसी भी नौटंकी से सुपरसत्ता अपना कर्मफल बिधान बदलकर हमें कुछ नहीं दे सकती.

*परमात्मा और उसकी परिभाषा :*
 _बड़ी अजीब बात है। परमात्मा की परिभाषा क्या सम्भव है ? परमात्मा अर्थात् अपरिभाष्य। परमात्मा समग्रता का पर्याय है, समग्रता का दूसरा नाम है। समग्रता के संदर्भ में सभी वस्तुओं की परिभाषा हो सकती है, लेकिन समग्रता की परिभाषा किसके सन्दर्भ में होगी ?_
   इस संसार में ऐसा बहुत कुछ है जो असम्भव है। सच बात तो यह है कि जो असम्भव है, वही प्राप्त करने योग्य है। परमात्मा के संबंध में कहना असंभव है इसलिए कि परमात्मा प्राप्त करने योग्य है।
   परमात्मा के सम्बब्ध में वेद, शास्त्र, पुराण, उपनिषद आदि में शब्दों के माध्यम से बहुत कुछ कहा गया है, लेकिन उन शब्दों में अनुभूति की झलक नहीं है, इसलिए कि अनुभूति सदैव कुँवारी होती है।
  _जब भी हम परमात्मा के सम्बन्ध में जानेंगे, वह उधार का नहीं होगा। वह हमारा स्वयम् का होगा। वेद, शास्त्र, उपनिषद भले ही गहन ज्ञान से भरे हुए हों, लेकिन जिन्होंने उनके भीतर मौजूद तत्व की अनुभूति की, उनके लिए वे ज्ञान-स्वरूप हैं, लेकिन दूसरों के लिए वे शब्द-जाल के अलावा और कुछ नहीं है, क्योंकि हमारे लिए वे दूसरे का ज्ञान है, उधार का ज्ञान है।_
    उधार का ज्ञान 'ज्ञान' नहीं कहला सकता। वह मात्र जानकारी हो सकती है। ज्ञान स्वयम् की अनुभूति की वस्तु होती है। जब और जिस पल हम परमात्मा को जान लेते हैं, हम गूंगे हो जायेंगे। सब कुछ बोल सकेंगे, लेकिन परमात्मा के सम्बंध में मौन साध लेंगे। क्योंकि वह हमारी अपनी अनुभूति होगी।

शब्दों की सीमा, सत्य असीम :
शब्दों की एक सीमा है और परिभाषाएं शब्दों से बनती हैं। इसलिए परमात्मा के सम्बन्ध में जितनी भी परिभाषाएं हैं, वे सब की सब उधार की हैं, अनुभूति पर आधारित नहीं।
परमात्मा के सम्बन्ध में मूर्तियां कुछ नहीं बतला सकतीं, चित्र कुछ नहीं बतला सकते और साहित्य, संगीत भी कुछ नही बतला सकते।
परमात्मा का अर्थ है और वह यह है कि जिसमें समूची सृष्टि, समूचे ब्रह्माण्ड समाहित हैं। इसमें पदार्थ भी है और चैतन्य भी। इसमें जीवन भी है और मृत्यु भी। परमात्मा सारे अस्तित्व का सन्दर्भ है। उसकी पृष्ठभूमि है। इसीलिए परमात्मा की कोई परिभाषा नहीं हो सकती।

सत्य अनिभूति से सुलभ :
परमात्मा प्रत्यक्ष प्रतीति की, अनुभूति की वस्तु है। परमहंस स्वामी रामकृष्ण इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं, विवेकानन्द भी इसके प्रमाण हैं। योगानन्द परमहंस और मैं स्वयम् परमात्मा की अनुभूति का साक्षी हूँ। परमात्मा की प्रतीति और अनुभूति का वर्णन नहीं किया जा सकता।
वेद-उपनिषद भी केवल इतना कह सके परमात्मा के बारे में–“नेति.. नेति!”
स्वर्ण को कसौटी पर कसा जा सकता है, लेकिन हीरे को नहीं। शब्द बने हैं संसार और समाज की अभिव्यक्ति के लिए, शब्द बने हैं सामाजिक आदान-प्रदान के लिए, शब्द बने हैं दो व्यक्तियों के बीच संवाद के लिए। यही शब्दों की सीमा है। मनुष्य और परमात्मा के बीच शब्द नहीं है। कोई भाषा भी नहीं है।
अपनी कल्पना से हम परमात्मा की कल्पना कर लेते हैं। परमात्मा के स्वरूप की रचना कर लेते हैं। तब हमारी भाषा परमात्मा की भाषा हो जाती है, हमारे शब्द परमात्मा के शब्द हो जाते हैं। हमारा जीवन परमात्मा का जीवन हो जाता है।
हमारा आचार-विचार परमात्मा का आचार-विचार हो जाता है। हम अपने जैसा ही परमात्मा को गढ़ लेते हैं। अपने जैसा ही परमात्मा को भी समझने लगते हैं। साथ ही हम यह भी समझने लगते हैं कि हमारे जितने भी शास्त्र और धर्मग्रन्थ हैं–ये सब परमात्मा द्वारा दिए हुए हैं।
यह सब हमारा बहुत बड़ा अहंकार है। धर्म से इसका कोई लेना-देना नहीं है।
यद्यपि परमात्मा तटस्थ है, फिर भी वह अत्यंत करुणामय, दयामय और प्रेमपूर्ण है। हम यह सोचते हैं कि यदि परमात्मा तटस्थ है तो फिर प्रेमपूर्ण, दयामय और करुणामय कैसे हो सकता है ? तटस्थ का मतलब न इधर और न उधर। न प्रेम देने वाला और न उपेक्षा करने वाला, बिलकुल निरपेक्ष।
लेकिन यही बात हम लोगों को कभी समझ नहीं आती। परमात्मा के तटस्थ और निरपेक्ष होने में बहुत कुछ ऐसा छिपा हुआ है जिसे जन साधारण समझ नहीं पाता। यदि हम गहराई में जाएँ तो ज्ञात होगा तो परमात्मा पूर्णरुप से तटस्थ और निरपेक्ष होते हुए भी प्रेमपूर्ण, दयामय और करुणामय है। यदि वह ऐसा न होता तो ? तो फिर हमारे जीवन (मानव जीवन) में स्वतंत्रता न होती।(स्वतंत्रः कर्ता–कर्ता या आत्मा स्वतन्त्र है)। हम अपने जीवन में परतंत्र होते।
हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि हमारी जीवन की स्वतंत्रता के लिए परमात्मा का तटस्थ और निरपेक्ष होना आवश्यक है। नहीं तो स्वतंत्रता नष्ट हो जायेगी। यदि परमात्मा जीवन में कदम- कदम पर बाधा डालने लगे तो हमारा जीवन नरक बन जायेगा। जीवन कारागार बन जायेगा। जीवन नरक नहीं है, कारागार नहीं है।

नर्क हमारा स्वनिर्मित सत्य :
हमने स्वयम् उसे नरक और कारागार बना लिया है। परमात्मा का इसमें क्या दोष है ? उसने तो हमको पूर्ण स्वतंत्रता दे रखी है। यह स्वतंत्रता देना ही परमात्मा का प्रेम है, उसकी दया है, करुणा है। हमको क्या होना है–पापी या पुण्यात्मा, अच्छा या बुरा, विद्वान् या मूर्ख, धनी या निर्धन ? परमात्मा का इससे कोई नाता-रिश्ता नहीं।
हिटलर से लेकर बुद्ध तक, कृष्ण से लेकर कंस तक, राम से लेकर रावण तक हम जो होना चाहते हैं, हो सकते हैं। इसी के लिए परमात्मा ने हमें पूर्ण स्वतंत्रता दे रखी है। सच पूछो तो हमारे लिए यही परमात्मा द्वारा दी गयी स्वतंत्रता परमात्मा की दया है, करुणा है और है–एक प्रेम की अजस्र धारा जिसे हम अपनी अल्प बुद्धि से समझ नहीं पाते हैं और जब हम इस विशाल दया, करुणा और प्रेम का अजस्र स्रोत जान-समझ लेते हैं तो हमारे जीवन में भी सच्चे प्रेम के स्रोत का प्रस्फुटन शुरू हो जाता है, करुणा और दया की धारा फूट जाती है और फिर हमारे नेत्र उस दया, करुणा और प्रेम से सराबोर हो जाते हैं।
फिर तो हम उस परमात्मा का उसकी करुणा का, दया का और प्रेम का आभार भी व्यक्त करने योग्य नहीं बचते हैं। फिर जो हमारी स्थिति होती है, उसे हमारे नेत्र प्रकट कर देते हैं निरन्तर अश्रुधारा के रूप में।
वह अश्रुधारा सिवाय परमात्मा के प्रति कृतज्ञता के और कुछ भी नहीं होती।
[लेखिका शासकीय शिक्षिका एवं चेतना विकास मिशन की प्रसारिका हैं)

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