प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में वह कहा है, जिसे कहने से आमतौर पर प्रधानमंत्री कतराते रहे हैं। शायद यह पहली बार है कि किसी प्रधानमंत्री ने चुनावों की घोषणा से पहले ही अगले पांच साल के एजेंडे को भी सामने रख दिया हो। यह आत्मविश्वास है या अतिआत्मविश्वास या जुमला या फ्लोटिंग वोटर को प्रभावित करने के साथ विरोधियों को पस्त करने की रणनीति है, अथवा यह समान विचारधारा के विरोधियों को ढका-छिपा निमंत्रण है? कहा गया है कि भाजपा को अपने दम पर 370 और एनडीए को कुल मिलाकर 405 सीटें मिलेंगी। क्या वस्तुतः यह संभव है?
तकनीकी तौर पर जरूर संभव है। अगर राजीव गांधी के समय कांग्रेस 1984 में चार सौ पार सीटें ला सकती है, तो नरेंद्र मोदी की भाजपा भी ऐसा क्यों नहीं कर सकती? लेकिन दो अंतर देखे जा सकते हैं। 1984 का चुनाव इंदिरा गांधी की हत्या पर उमड़ी सहानुभूति और गुस्से का इजहार था। इसके अलावा तब कांग्रेस का विस्तार जम्मू-कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और गुजरात से लेकर असम तक था। भाजपा का विस्तार ऐसा है कि लोकसभा की 543 सीटों में से लगभग 150 सीटें ऐसी हैं, जो आज तक उसने जीती नहीं हैं। अगर कोई पार्टी 543 में से 390 में ही मौजूद है, तो वह अपने दम पर 370 तक कैसे पहुंच सकती है?
चुनाव विश्लेषकों का मानना है कि अगर भाजपा का पांच फीसदी वोट बढ़ता है, तो वह अधिकतम 343 तक पहुंच सकती है। भाजपा को 2014 में 31 फीसदी वोट के साथ 282 सीटें मिली थीं। 2019 में भाजपा का वोट छह फीसदी बढ़ा और सीटें 21 बढ़ गईं। अगर भाजपा को 370 तक पहुंचना है, तो छह की जगह आठ-दस फीसदी वोट बढ़ाने होंगे। उसे ज्यादा ऐसी सीटों पर जीत हासिल करनी होगी, जहां पांच फीसदी से भी कम वोट मिले हंै। इसमें आंध्र प्रदेश की 25 और तमिलनाडु की 39 सीटें आती हैं। केरल में जरूर भाजपा को दहाई संख्या में वोट मिले हंै, पर वह खाता नहीं खोल पाई है।
अगर यह मानकर चलें कि भाजपा हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में पिछले प्रदर्शन को दोहराने में कामयाब हो जाती है, तो 303 सीटों तक पहुंच सकेगी। अगर उत्तर प्रदेश और तेलंगाना में बढ़त ले ले, तो आंकड़ा सवा तीन सौ तक पहुंचेगा। यानी अगर भाजपा को 370 तक पहुंचना है, तो उसे बंगाल और ओडिशा में भी संख्या बढ़ानी होगी। महाराष्ट्र और बिहार में पिछला प्रदर्शन दोहराना होगा। पिछली बार भले ही भाजपा ने 224 सीटें दो लाख के ज्यादा के अंतर से जीती थीं, पर 77 सीटें ऐसी भी थीं, जिन्हें भाजपा एक लाख या उससे कम के अंतर से जीत पाई थी। इन 77 सीटों पर विपक्ष एक संयुक्त उम्मीदवार उतारता है और वोट ट्रांसफर करने पर पूरा जोर लगाता है, तब भाजपा मुश्किल में पड़ सकती है।
चुनाव विश्लेषकों का कहना है कि अगर विपक्ष एक रहता है और उसके वोट प्रतिशत में पांच फीसदी का इजाफा होता है, तभी भाजपा 303 से घटकर 223 पर सिमट सकती है। स्पष्ट है कि भाजपा की रणनीति अपना कुनबा बढ़ाने के बजाय विपक्षी कुनबे में क्लेश कराने की होगी। क्लेश बढ़ेगा, तो आम वोटर की नजर में विपक्ष की विश्वसनीयता कम होगी। यहां भी निशाने पर कांग्रेस को लिया जा रहा है। साफ है कि भाजपा को लगता है कि क्षेत्रीय दलों के प्रति नरम रुख अपनाया जाए। भाजपा अगर ऐसा कुछ कर रही है, तो कुछ भी नाजायज नहीं कर रही है। चुनाव जीतने के लिए हर तरह के रणनीतिक हथियारों का इस्तेमाल किया जाता है।
देखा जाए तो राम मंदिर, राष्ट्रवाद, करोड़ों की संख्या में लाभार्थी, मोदी की छवि के बावजूद भाजपा कोई जोखिम लेने के लिए तैयार नहीं है। जो पार्टी मेयर का चुनाव भी पूरी गंभीरता से लड़ती हो, वह लोकसभा चुनाव कितनी संजीदगी से लड़ेगी, इसका अनुमान लगाना कोई रॉकेट साइंस नहीं है। भाजपा की लड़ाई विपक्षी दल ही आसान कर रहे हैं। अगर ममता बनर्जी कहें कि कांग्रेस 40 सीटों पर सिमट जाएगी, अगर स्टालिन तमिलनाडु की 39 सीटों को ध्यान में रखकर सनातन का संकट खड़ा कर उत्तर भारत की 200 सीटों को संकट में डाल दें, अगर केजरीवाल और भगवंत मान दिल्ली, पंजाब की 20 सीटों को नाक का सवाल बनाने पर आमादा हो जाएं, तो इसके लिए मोदी को तो दोषी नहीं ठहराया जा सकता।