– वीरेंद्र भदौरिया
मात्र इक्कीस महीने के लिए लगाये गये आपातकाल को लोकतंत्र पर पहला आघात माना गया। आपातकाल लगाना गलत था, यह बात तो स्वयं इंदिरा गांधी जी ने स्वीकार की थी, जिन्होंने उसे लगाया था। कांग्रेस पार्टी और उसके तमाम नेता अनेक बार आपातकाल के लिए देश से माफी मांग चुके हैं। संघ का दोमुंहापन नयी बात नहीं है,जो संघ संवैधानिक प्रावधानों के तहत लगाए गए आपातकाल का तत्समय समर्थन कर रहा था, वही आज अपनी पालित पोषित पार्टी द्वारा लगाए अघोषित आपातकाल पर चुप रहता है, भाजपा अपनी लोकतंत्र विरोधी करतूतों को छिपाने के लिए आपातकाल के नाम पर कांग्रेस को कोसती रहती है।
आपातकाल लागू होने के बाद एक और बड़ी घटना घटित हुई, इंदिरा गांधी जी और कांग्रेस के विरोध के चलते सैद्धांतिक रूप से परस्पर विरोधी व उत्तर और दक्षिण ध्रुवों पर खड़ी एकाधिक नाम वाली समाजवादी पार्टियां और जनसंघ एक ही नाव में सवार हो गए। इस एकता को तात्कालिक जरूरत बताया गया, लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि समाजवादियों के कंधे पर सवार जनसंघ आमजन में स्वीकार्यता बनाने में सफल होकर सत्ता के शिखर तक पहुंच गई किन्तु स्वयं समाजवादियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया।
कांग्रेस और पूर्ववर्ती समाजवादी पार्टियों में कोई मौलिक सैद्धांतिक व वैचारिक भिन्नता नहीं थी। दरअसल देश में समाजवादी विचारों को संस्थागत रूप देने का काम तो सर्वप्रथम पंडित नेहरू ने किया था, कांग्रेस पार्टी के भीतर सोशलिस्ट फोरम उन्होंने ही बनाया था, तमाम समाजवादी नेता उसी फोरम से दीक्षित होकर कांग्रेस के बाहर आए।
समाजवादियों का विरोध कांग्रेस की विचारधारा से न होकर नेहरू जी और इंदिरा गांधी से था। अतिशय लोकतांत्रिक नेहरू भी उन्हें मंजूर नहीं थे, और गरीबों और मजलूमों के लिए ताउम्र काम करने वाली इंदिरा जी तो उनकी नजर में तानाशाह ही थीं।
समाजवादी आंदोलन के बिखराव के बाद ‘ एक दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां गिरा कोई वहां गिरा’ की तर्ज पर नेता और कार्यकर्ताओं ने सुविधानुसार नये ठिकाने तलाश लिए,सत्ता से जुड़े फायदे मिलने की सर्वाधिक संभावना विद्यमान होने से भाजपा सबसे अधिक आकर्षक गंतव्य बननी स्वाभाविक थी। भाजपा ज्वाइन करने वालों को सबसे समझदार और दूरदर्शी माना गया।
जो कहीं नहीं गए, उनमें तीन तरह के लोग हैं, एक तो वे हैं जो समाजवादी आंदोलन के बिखराव के बाद पूरी तरह से निष्क्रिय हो गए, तथा खेती पाती, पारिवारिक व्यवसाय या पढ़ने पढ़ाने में रम गए।
दूसरे वे, जिनकी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता इतनी सुदृढ़ थी कि, जिस कांग्रेस का वे जीवन भर विरोध करते रहे, सांप्रदायिक ताकतों के घातक प्रहारों से देश की एकता, संविधान व लोकतंत्र पर संकट के बादल घिरते देखकर वे आज उसी कांग्रेस की मजबूती की कामना कर रहे हैं, क्योंकि राष्ट्रीय परिदृश्य में व्यापक उपस्थिति के कारण उन्हें उम्मीद की एकमात्र किरण कांग्रेस में दिखाई दे रही है।
ये वयोवृद्ध पूर्व समाजवादी बिना किसी निजी लोभ लालच के,कभी कांग्रेस को डांटते हैं, कभी पुचकारते हैं,कभी समझाइश देते हैं और कभी तो नाराज़ होकर उसके भीतर मौजूद कथित स्लीपर सेल पर टूट पड़ते हैं,वे सिर्फ इतना चाहते हैं कि किसी तरह कांग्रेस, भाजपा के मुक़ाबले लायक हो जाए, ताकि बड़ी मुश्किल से हासिल आजादी तथा वह देश बचा रहे, जिसके लिए लाखों लोगों ने कुर्बानियां दी थी।
तीसरी श्रेणी के पूर्व समाजवादी वे हैं ,जो बार बार पार्टियां बदलते रहे, जिससे इनके ऊपर दलबदलू का टैग चिपक गया है, इन्होंने जिस थाली में खाया उसी में छेद किया,ये घाट घाट का पानी पिए हुए हैं। अपार धन दौलत के ढेर पर बैठे हैं,जीवन शैली ऐसी है कि उन्हें देख कर बड़े बड़े रईस लजा जाएं, फिर भी खुद को समाजवादी कहते हैं। सब कुछ है पर कोई पूंछ नहीं रहा है, इसलिए मन में अजीब बेचैनी है, जब ऊंचा पद पाने की छिपी हुई हसरत बहुत जोर मारती है,तो फिर किसी भाजपा नेता की देहरी पर माथा टेक आते हैं, कभी उन्हें अपने घर बुला कर फूल मालाओं से लाद देते हैं,पर अविश्वसनीयता इतनी कमा ली है कि, भाजपा उनके ऊपर भरोसा करने को तैयार नहीं है, इसलिए भाजपा की कृपा पाने के लिए अंतिम उपाय के रूप में कांग्रेस और राहुल गांधी को गरियाने लग जाते हैं, कि शायद यह तरकीब काम आ जाए। यह अस्थिर चित्त व दुविधाग्रस्त पूर्व समाजवादी, भाजपा की कृपा पाने (एक अदद राज्यसभा की सीट ही सही) के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। यही वे पूर्व समाजवादी हैं, जो सत्तासीन भाजपा के बजाय दशक भर से विपक्ष में बैठी कांग्रेस पर हमलावर रहते हैं। कांग्रेस पर हमले के पीछे की एक मात्र वजह मरने के पहले एक बार सत्ता का स्वाद चखने की अदम्य लालसा के सिवाय कुछ और नहीं है।
सांप्रदायिक उन्माद, हिंसा व घोर क्रोनी कैपिटलिज्म के इस जमाने में न्याय, समता, आपसी सौहार्द, भाईचारा,गरीब गुरबों और कमजोर की बात करने वाली समाजवादी विचारधारा कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकती है,पर यह भी सही है कि समाजवादी आंदोलन से निकले मुट्ठी भर नेताओं नेताओं की मतलब परस्ती उन सबको निराश करती है, जो मानते हैं कि समाजवाद अब भी एक संभावना है।
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