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क्‍या उद्योग बढ़ा रहा है, सड़कों की असुरक्षा?

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बॉबी रमाकांत

भारत और अन्य 193 देशों ने सतत विकास लक्ष्य के तहत वादा तो किया था कि सड़क दुर्घटना मृत्यु दर (और उनमें होने वाली चोट और शारीरिक विकृति दर) में 2020 तक 50% की गिरावट आएगी, परन्तु हुआ इसका उल्टा: सड़क दुर्घटना मृत्यु दर भारत में बढ़ गयी है। सन् 2015 में भारत में 1,46,133 लोग सड़क दुर्घटना में मृत हुए थे। आधे होने के बजाये सड़क में मृत होने वालों की संख्या बढ़ गयी – 2019 में देशभर में सड़क दुर्घटना में 1,54,000 लोग मृत हुए। इससे अनेक गुणा लोग, सड़क दुर्घटना में ज़ख़्मी हुए थे या शारीरिक विकृति के साथ जीने को मजबूर हुए। सबसे चिंताजनक बात यह है कि अधिकाँश सड़क दुर्घटनाएं (लगभग 60%), अति-तेज़ रफ़्तार से गाड़ी चलाने के कारण हुईं। ज़रूरी है यह समझ लेना कि हर सड़क दुर्घटना में होने वाली मृत्यु असामयिक है, जिसका पूर्ण रूप से बचाव संभव था।

दुनिया में मृत्यु के सबसे बड़े कारणों में से 10वें नंबर पर है, सड़क दुर्घटना जिसके कारण 13 लाख से अधिक लोग हर साल मृत होते हैं और 5 करोड़ से अधिक लोग ज़ख़्मी होते हैं, या शारीरिक/ मानसिक विकृति के साथ जीने को मजबूर होते हैं। सार्वजनक आवागमन या परिवहन ज़रूरी है और वह एक मौलिक अधिकार भी है, पर इसकी कीमत हमें अपने हाथ-पैर तुड़वा के या जान गवां के देने की क्या ज़रूरत है?

भारत सरकार 18 जनवरी से 17 फरवरी 2021 तक, ‘राष्ट्रीय सड़क सुरक्षा माह’ मनाती है और अनेक जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करती हैं। भारत सरकार भी यही कह रही है कि सड़क दुर्घटना से पूर्ण बचाव मुमकिन है और लोगों को सड़क दुर्घटना के कारण अनावश्यक आर्थिक, शारीरिक और भावनात्मक पीड़ा और त्रासदी झेलनी पड़ती है। सरकार का कहना यह भी है कि सड़क सुरक्षित होनी ज़रूरी हैं क्योंकि यह कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि आवागमन की स्वतंत्रता की कीमत हमें अपने हाथ-पांव तुड़वा के या जान गंवा के देनी पड़े? यह अनावश्यक त्रासदी है क्योंकि सड़क दुर्घटना से बचाव मुमकिन है।

पिछले अनेक सालों से दुनिया के देश सड़क-सुरक्षा पर कार्य कर रहे हैं, परन्तु अपेक्षित नतीजा नहीं निकल रहा है क्योंकि दुर्घटना अनेक जगह बढ़ोतरी पर हैं और मृत्यु-दर भी। दुनिया की सभी सरकारों ने पूरा दशक 2010-2020 ‘सड़क सुरक्षा अभियान’ को समर्पित किया था।

उत्तरप्रदेश सरकार के एक विज्ञापन के अनुसार, 400 लोग हर रोज़ प्रदेश में सड़क दुर्घटना के कारण मृत होते हैं। सरकार के अनुसार, इसका मुख्य कारण है, सड़क यातायात नियमों की जानकारी का अभाव।

इसमें कोई दो राय हो ही नहीं सकती कि सभी यातायात नियमों का, सभी को, हर समय सख्ती से अनुपालन करना चाहिए, पर बड़ा सवाल यह भी है कि क्या यातायात नियमों के पालन करने से सड़क आवागमन सबके लिए सुरक्षित हो जायेगा, खासकर वे लोग जो बिना-मोटर वाले वाहन का उपयोग करते हैं या पैदल चलते हैं, सड़क पर ही रोज़गार करते हैं या रहने को मजबूर हैं?

दुनिया की सरकारें मानती हैं कि सड़क दुर्घटना का सबसे बड़ा कारण तेज़-गति से मोटर-वाले वाहन चलाना है, पर वे यह क्यों नहीं बतातीं कि जब गति-सीमा निर्धारित है तो मोटर वाले वाहन को कौन अनुमति देता है कि उनका निर्माण ऐसा हो कि इनकी अधिकतम गति-सीमा, सरकार द्वारा निर्धारित गति-सीमा से अनेक गुणा अधिक रहे? उदाहरण के तौर पर यदि 80 किलोमीटर प्रति घंटा की अधिकतम गति-सीमा निर्धारित है, तो मोटर वाहन में क्यों यह प्रावधान है कि उनको इसके ऊपर चलाया जा सके?

अधिकाँश सड़क दुर्घटनाएं जो अति-तेज़ गति से मोटर वाले वाहन चलाने से होती हैं, उनमें सिर्फ वाहन सवार लोग ही ज़ख़्मी या मृत नहीं होते। सड़क दुर्घटना में ज़ख़्मी या मृत होने वाले लोगों में साइकिल या रिक्शा सवार, पैदल चलने वाले लोग, सड़क पर रोज़गार करने वाले लोग, रहने वाले लोग आदि भी होते हैं। सड़क तो सबकी है तो सिर्फ मुठ्ठी भर कार सवार लोगों की सुविधा देखकर ही क्यों नियम, सड़क-इंतज़ाम और सुरक्षा-इंतज़ाम बनाए जा रहे हैं? हमारा लक्ष्य यह नहीं है कि मोटर वाले वाहन सवार लोगों के लिए सड़क सुरक्षित हों, बल्कि लक्ष्य तो यह है कि हर इंसान के लिए सड़क आवागमन और यातायात सुरक्षित और आरामदायक बने।

यदि हम मोटर वाले वाहनों की संख्या बढ़ाते जायेंगे तो सड़क असुरक्षित तो होंगी ही। सभ्य समाज में निजी-वाहन की किसी को भी क्या आवश्यकता हो सकती है? विकसित देशों/शहरों में अमीर-गरीब सभी सार्वजनिक यातायात का उपयोग करते हैं तभी वहां सड़क दुर्घटना दर कम हो सकी है। निजी वाहनों की संख्या कम ही नहीं करनी है, बल्कि निजी वाहन को बेमतलब करना है जैसे निजी हवाई जहाज या निजी ट्रेन होती है? यह तब तक मुमकिन नहीं जब तक सार्वजनिक यातायात या परिवहन सेवा, हर इंसान के लिए आरामदायक, सुविधाजनक, सस्ती और सुरक्षित नहीं बनायी जाएगी। यह सरकार की जिम्मेदारी है। उसी तरह से जैसे सरकारी शिक्षा या स्वास्थ्य सेवा मज़बूत होती है तो निजी स्कूल और अस्पताल बेमतलब हो ही जाते हैं। यदि सरकारी शिक्षा या स्वास्थ्य सेवा कमज़ोर रहेगी तो निजी स्कूल और अस्पताल पनपेंगे ही और ऐसे में अनेक लोग सेवा से वंचित हो जायेंगे।

सरकार सार्वजनिक यातायात परिवहन सेवा जर्जर किये हुए है इसीलिए निजी परिवहन उद्योग पनप रहा है और लोगों को ब्याज तक पर मोटर वाले वाहन लेने को उकसा रहा है। सरकारों को यह याद रखना चाहिए कि उनका ही एक वादा (‘सतत विकास लक्ष्य’ 11.2) के अनुसार सन् 2030 तक हर इंसान के लिए सुरक्षित, सस्ती, सुविधाजनक और सतत सरकारी यातायात परिवहन सेवा उपलब्ध करवाना है। इस लक्ष्य को पूरा करने में सिर्फ 117 महीने शेष बचे हैं।

मैं उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में रहता हूँ और आवागमन के लिए साइकिल का ही उपयोग करता हूँ। पिछले सालों में मैंने चियांग मई (उत्तरी थाईलैंड) और अमरीका के बोस्टन शहर में भी आवागमन के लिए साइकिल का उपयोग किया है। मेरा अनुभव है कि सुरक्षित सड़क की जो परिभाषा बाज़ार में उद्योग हमें समझाता है वैसी सड़कें मेरे लिए सबसे असुरक्षित हैं। उदाहरण के तौर पर चौड़े हाईवे/ एक्सप्रेसवे या बड़ी-बड़ी सड़कें। इन्हीं ‘आदर्श’ जैसी आधुनिक, नए ज़माने की सड़कों पर जानलेवा और हृदय-विदारक दुर्घटनाएं अक्सर होती हैं, जबकि जो सड़कें पुराने ज़माने वाली, पुराने शहर की सड़कों और गलियों जैसी मानी जाएंगी तो वे साइकिल और सभी के लिए इसलिए सुरक्षित हैं क्योंकि वहां पर जानलेवा दुर्घटना होने का खतरा ही कम है। सवाल यह है कि सड़क सुरक्षा और सुरक्षित सड़क और आवागमन की परिभाषा हमें मोटर वाले वाहन को मद्देनज़र रख कर क्यों गढ़नी है? क्या ऐसा इसलिए है कि मोटर वाले वाहन और उससे सम्बंधित उद्योग धनाढ्य हैं? उद्योग का बढ़ाना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए या फिर हर इंसान के लिए सड़कें और यातायात परिवहन / आवागमन को सुरक्षित और आरामदायक करना प्राथमिकता होनी चाहिए?

विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के महानिदेशक द्वारा पुरुस्कृत बॉबी रमाकांत, सीएनएस (‘सिटिज़न न्यूज़ सर्विस’), ‘आशा परिवार’ और सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) से जुड़े हैं।

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