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राजनीति के पुरुषोत्तम नीतीश कुमार गद्दी बचा रहे हैं या रद्दी

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अभी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार के समर्थन की ‘कीमत’ एन चंद्रबाबू नायडू ‘अपने तरीके’ से हासिल करने की कोशिश में लगे हैं। नीतीश कुमार क्या कर रहे हैं? कम-से-कम यह तो सुनिश्चित करने की कोशिश करें कि एन चंद्रबाबू नायडू को ‘खुश’ करते-करते देश के अन्य राज्यों के लोगों की हकमारी न हो! जिन्होंने उन्हें वोट दिया और जिन्होंने नहीं दिया है वे सभी चाहते हैं कि नीतीश कुमार कम-से-कम इस पर तो सावधान रहें कि गठबंधन की राजनीतिक विवशताएं देश में राजनीतिक और आर्थिक विषमताओं और असंतुलनों को ठीक करने के बदले कहीं-न-कहीं बढ़ा ही तो नहीं रही है। अभी बजट पेश होगा। बजट आवंटन में खंडित जनादेशवाली निर्वाचित सरकार पर अ-निर्वाचित शक्तियों (Deep State) का प्रभाव कैसा होगा कुछ भी कहना मुश्किल है।

प्रफुल्ल कोलख्यान 

नीतीश कुमार भारतीय जनता पार्टी के साथ अ-सहज हो गये थे। उन्होंने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का साथ छोड़कर बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व में चल रहे महागठबंधन के साथ जनता दल यूनाइटेड को ले आये। बिहार विधानसभा में विधानसभा सीट संख्या के लिहाज से महागठबंधन में छोटी पार्टी होने के बावजूद मुख्यमंत्री बने। वे भारतीय जनता पार्टी को लोकतंत्र के लिए खतरनाक मान रहे थे और उसके शासन-काल की निरंतरता को तोड़ने के लिए संकल्प-बद्ध होकर विपक्षी राजनीतिक दलों को एकजुट करने के लिए निकल पड़े थे। उन्होंने इस दिशा में सार्थक प्रयास भी किया। फिर उन्हें ‘अच्छा’ नहीं लगने लगा। 

‘अच्छा’ नहीं लगने के कारण नीतीश कुमार ने महागठबंधन छोड़कर फिर से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में शामिल होने का फैसला कर लिया। हर बार अपने गठबंधन के बदलाव को आखिरी कहा। लेकिन किसी ने कभी उनकी बात पर भरोसा नहीं किया। भरोसा नहीं किया लेकिन वे हर बार मुख्यमंत्री बनाये जाते रहे। बार-बार पलट जाने के कारण उन्हें ‘पलटू’ कहा जाने लगा। इस बार वे अभी तक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में टिके हुए हैं। कब तक! कुछ भी कहना मुश्किल है। उन्होंने हर-बार ‘बिहार के हित’ को पाला बदल का प्रमुख कारण बताया है। यह कैसा ‘बिहार हित’ जिसे लगभग इक्कीस साल के शासन-काल और नौ-दस बार की पलटी मार के बाद भी नीतीश कुमार हासिल नहीं कर पाये बहुत तक! 

बिहार के लिए  ‘विशेष पैकेज’ की उनकी चिरकालिक मांग है जो आज तक पूरी नहीं हुई है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लगातार तीसरी बार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार बनी है। यह सरकार एन चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार के समर्थन पर टिकी हुई है। एन चंद्रबाबू नायडू जमकर ‘अपने राज्य का हित साधने’ के लिए हर तरह के प्रयास में लगे हुए हैं जबकि नीतीश कुमार बिहार विधानसभा के चुनाव जल्दी करवाने और अपनी गद्दी बचाने में ही लगे हुए दिख रहे हैं। बीच-बीच में बिहार के लिए ‘विशेष पैकेज’ की बात भी उठा देते हैं। असल में नीतीश कुमार पिछले इक्कीस साल के अपने शासन-काल में सिर्फ मुख्यमंत्री की अपनी गद्दी ही बचा रहे हैं। जबकि लोकतंत्र की राजनीतिक प्रक्रिया से मिली गद्दी अब रद्दी में बदलती जा रही है। अब शक्ति नाम की ‘सोने की चिड़िया’ कॉरपोरेट घरानों के पास है। शक्ति ही न रहे तो गद्दी और रद्दी में फर्क ही क्या बचता है?

क-हित की चिंता करनेवाला हर आदमी मानेगा कि बड़ी पूंजी और बड़े-बड़े कारखानों का मालिकाना और नियंत्रण सार्वजनिक हाथ में ही होना चाहिए; कहना न होगा कि गांधी और मार्क्स इस विषय पर एक मत रहे हैं। मुनाफा के एक जगह या कुछ ही लोगों के पास जमा होते जाने से आर्थिक विषमता बहुत तेजी से बढ़ने लगती है। भारत में पिछले दिनों यही सब हुआ है। राज-समर्थित पूंजीवाद यानी क्रोनी कैपिटलिज्म और ‘कुछ के बदले कुछ’ यानी क्विड प्रो क्वो का जबरदस्त खेल भारत में पिछले दस साल में हुआ है। अब तो खतरनाक विषमताओं से आर्थिक वातावरण और सामाजिक परिदृश्य पर बहुत बुरा असर पड़ने लगा है। इसके चलते राजनीतिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी भारी असंतुलन और असंतोष उत्पन्न हो गया है। 

यह ठीक है कि इस समय पूंजीवाद का ही जोर है, लेकिन पूंजीवाद का सार्वजनिक जीवन पर कब्जा और निर्बाध शोषण का ऐसा खुला कारोबार किसी भी सभ्य व्यवस्था में वांछनीय और काम्य नहीं हो सकता है। सर्वजन की शक्ति के किसी भी रूप का इस्तेमाल सर्वजन के हित के किसी भी रूप के खिलाफ नहीं किया जा सकता है। दुखद और भयानक है लोकतांत्रिक सत्ता की राजनीति का पूंजीवाद के खेल में शामिल हो जाना या लोकतांत्रिक सत्ता की राजनीति का पूंजीवाद का अधीनस्थ होते चला जाना। 

यह नहीं भूलना चाहिए कि पूंजी मनुष्य के लिए है, मनुष्य पूंजी के लिए नहीं! लोकतांत्रिक सत्ता की राजनीति क्या मछली के तेल में मछली को तलने की कला है? मगरमच्छ के प्रकोप से बचने के लिए अपने ही तेल में तले जाने के लिए मछली का ‘शांति’ के साथ राजी बने रहना या हो जाना लोकतंत्र नहीं, मछली-तंत्र हो सकता है! मछली-तंत्र से उछलते-कूदते मेढकों का रिश्ता क्या होता है? मछली-तंत्र के लोकतंत्र से भिन्न होने के क्या लक्षण होते हैं? इन सवालों पर सोचना चाहिए। 

रात-दिन सत्ताधारी दल और सरकार की तरफ से भारत की अर्थ-व्यवस्था की उन्नति की बात जोर-शोर से उठाई जाती है। वह कितना सच का बखान है कितना भ्रामक बयान वह तो अपनी जगह, साधारण नागरिक के जीवन पर इस का कोई सकारात्मक असर देखने को नहीं मिल रहा, बल्कि कहना चाहिए कि जो दिख है वह बुरा असर ही है। इसके लिए भारत सरकार की नीतियां ही जवाबदेह है। भारत सरकार की रुचि पूंजीवाद को सर्वजन के हित की तरफ मोड़ने या मोड़े रखने से अधिक जायज-नाजायज तरीके से इलेक्टोरल बांड जैसे उपायों से चुनावी चंदा बटोरने और ‘कुछ के बदले’ कुछ यानी क्विड प्रो क्वो के प्रति ही रही है। 

बेकाबू महंगाई और रोजी-रोजगार के अभाव से उत्पन्न समाज और राज-व्यवस्था को तोड़-मरोड़कर रख देने वाली नागरिक, खासकर युवा बेचैनी खतरनाक हद तक बढ़ती जा रही है। सारे तर्क-वितर्क अपनी जगह जारी रहें, इनका निष्कर्ष यही हो सकता है कि किसी भी हाल में पूंजी की पीठ पर सवार होकर लोकतंत्र अपनी मंजिल पर पहुंचने की शुभ-यात्रा नहीं कर सकता है। अधिक सही बात यह है कि पूंजी अपनी पीठ पर लोकतंत्र को कभी सवारी करने ही नहीं देता है। भारत में बेवकूफी के लिए प्रसिद्ध उल्लू पूंजी या धन की देवी लक्ष्मी का वाहन है। लोकतंत्र में इस उल्लू को पहचानना जरूरी है। पूंजीवाद और लोकतंत्र में कभी न समाप्त नहीं होनेवाला तात्विक अंतर्विरोध होता है। पूंजीवाद में केंद्रीकृत होने की अपराजेय प्रवृत्ति होती है, जबकि लोकतंत्र में स्व-वितरित होने की अदम्य लालसा होती है। पूंजीवाद की अपराजेय प्रवृत्ति और लोकतंत्र की अदम्य लालसा के संघर्ष में लोकतांत्रिक सत्ता को हमेशा लोकतंत्र के पक्ष में होना चाहिए। ऐसा नहीं होने पर लोकतंत्र की गुणवत्ता और शक्ति में दुस्सह छीजन होने लगता है। भारत का लोकतंत्र इस छीजन से जूझ रहा है।

एक बढ़ती हुई राजकीय प्रवृत्ति पर भी ध्यान सहज ही चला जाता  है। पिछले दिनों आस्था और विश्वास के नाम पर आम लोगों को राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से ठगने के लिए लोगों को ‘जमा’ किये जाने में अंध-विश्वास के इस्तेमाल की हतप्रभ करनेवाली तेजी सामने आई है। एक बार अंध-विश्वास की चपेट में आ जाने पर आम लोगों की सहज सामान्य आस्था और विश्वास पर बहुत बुरा और गहरा असर पड़ता है। अपने आस-पास की वास्तविकताओं पर से विश्वास उठ जाता है। इसलिए वास्तव में लोकतंत्र की लड़ाई अंध-विश्वास के साथ है। अंध-विश्वास चाहे धर्म-गुरु के प्रति हो या ‘विश्व-गुरु’ के प्रति। पेपरलीक के जमाने में तो ‘शिक्षा-गुरुओं’ और ‘पेपर-गुरुओं’ की भी भरमार हो गई है, इनसे अतिरिक्त सावधान रहने की जरूरत से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। संदर्भ यह कि राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से आराध्य के नाम पर लोगों को ठग लेने के बाद आर्थिक रूप से उनकी वंचना का जाल फैलाना बहुत आसान हो जाता है।  

यह तय है कि सत्ता की राजनीति में लगे लोग सामान्यतः आम लोगों के मन में घर बसाये अंध-विश्वास को दूर किये जाने के संघर्ष में रुचि नहीं लेते हैं। सत्ता की राजनीति करनेवालों को सत्ता की तलाश होती है, वह तलाश विश्वास से पूरी हो या अंध-विश्वास से पूरी हो, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। यह समाज के पढ़े-लिखे लोगों की जिम्मेवारी है कि वे अपने आस-पास के लोगों के मन में आस्था और विश्वास के नाम पर जमाये रहे बुद्धि विरोधी मनःस्थिति और अंध-विश्वास के वातावरण के प्रति लोगों को सचेत करे। जरूरी नहीं है कि इसके लिए वह बहुत बड़े स्तर पर संगठित प्रयास ही किया जाये। व्यक्तिगत स्तर पर भी जिसके संपर्क में आये बस जानबूझकर ऐसे प्रसंग पर थोड़ी-बहुत चर्चा कर ले, इतना भी कुछ-न-कुछ कारगर हो सकता है। अंध-विश्वास से ग्रस्त लोगों के मन को, उसके अनजाने में ही, थोड़ा सा हिला दे; सहज बुद्धिमत्ता को जगा दे, सक्रिय कर दे। 

हां, यह काम बहुत आसान नहीं है। लेकिन हमारे समाज के पढ़े-लिखे लोगों की बौद्धिक लापरवाही या एक अर्थ में अपनी व्यक्तिगत स्वार्थ-सिद्धि में लग जाने के कारण ऐसा कोई प्रयास ही दुर्लभ होता है। व्यक्ति अपने विकास और विनाश के लिए खुद तो जिम्मेवार होता ही है, लेकिन सामाजिक-आर्थिक परिवेश भी कम जिम्मेवार नहीं होता है। यह ठीक है कि सांस लेना व्यक्ति की अपनी शारीरिक क्षमता पर निर्भर करता है, लेकिन आस-पास शुद्ध हवा का होना व्यक्तिगत उद्यम से जुड़ा मामला नहीं होता है। व्यक्ति के विकास और विनाश का हिसाब लगाकर यह साफ-साफ देखा जा सकता है कि उसके लिए कितना वह खुद जिम्मेवार है और कितना परिवेश जिम्मेवार है। 

भारत में लोकतांत्रिक और आर्थिक-सामाजिक न्याय की असंगत स्थिति के लिए बौद्धिक जिम्मेदारी भी नागरिक समाज को खुद ही तय करनी होगी। जिस समाज के अपेक्षाकृत पढ़े-लिखे और समृद्ध लोगों में अपने सह-नागरिकों के प्रति किसी भी प्रकार की सहज आत्मीयता और किसी भी स्तर पर अपनी जवाबदेही का कोई सक्रिय बोध ही न हो, उस समाज में सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन की कोई स्थिति बन ही नहीं सकती है। अब जबकि सत्ता का झुकाव स्पष्ट रूप से कॉरपोरेट घरानों के हितों को सुनिश्चित करने की तरफ हो गया है या सत्ता की राजनीति कॉरपोरेट की अधीनस्थ होती जा रही है, नागरिक जीवन के ‘सब कुछ’ को सिर्फ सत्ता की राजनीति करनेवालों के हवाले छोड़ देना कम खतरनाक नहीं हो सकता है।

भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था का क्या महान दृश्य है! इधर लगातार तीसरी बार के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, महामहिम राष्ट्रपति के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में किये गये भाषण के प्रति धन्यवाद ज्ञापन की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए दुनिया को ‘विकसित भारत’ की ‘प्रपंच गाथा’ सुनाने में तल्लीन थे तो उधर उत्तर प्रदेश के हाथरस से बहुत बड़ी दुखद घटना की खबर आ रही थी। इधर सरकार बुनियादी ढांचे के विकास पर गर्व कर रही होती है उधर बिहार में दनादन पुल धराशायी हो रहे होते हैं। पिछले दिनों के अपने शासन-काल में प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार विरोधी कार्रवाई की अपनी ही परिभाषा गढ़ ली है। 

राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ का इस राजनीति से क्या रिश्ता है! उस पर राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ खुद या उसके समर्थक जो भी कहना चाहें, कहें। लेकिन इतना तो कहा ही जायेगा कि अपनी सक्रियता के 100 साल पूरा करने पर उन्हें सोचना ही चाहिए कि उनके ‘सांस्कृतिक कारखाने और राजनीतिक प्रयोगशाला’ से निकला उत्पाद इतना खराब क्यों निकला? राजनीति से अपने रिश्ता को चाहे जैसे भी परिभाषित कर ले राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ भारत के लोगों की इस स्थिति में होने के प्रति अपनी जवाबदेही से मुक्त नहीं हो सकता है। 

अभी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार के समर्थन की ‘कीमत’ एन चंद्रबाबू नायडू ‘अपने तरीके’ से हासिल करने की कोशिश में लगे हैं। नीतीश कुमार क्या कर रहे हैं? कम-से-कम यह तो सुनिश्चित करने की कोशिश करें कि एन चंद्रबाबू नायडू को ‘खुश’ करते-करते देश के अन्य राज्यों के लोगों की हकमारी न हो! जिन्होंने उन्हें वोट दिया और जिन्होंने नहीं दिया है वे सभी चाहते हैं कि नीतीश कुमार कम-से-कम इस पर तो सावधान रहें कि गठबंधन की राजनीतिक विवशताएं देश में राजनीतिक और आर्थिक विषमताओं और असंतुलनों को ठीक करने के बदले कहीं-न-कहीं बढ़ा ही तो नहीं रही है। अभी बजट पेश होगा। बजट आवंटन में खंडित जनादेशवाली निर्वाचित सरकार पर अ-निर्वाचित शक्तियों (Deep State) का प्रभाव कैसा होगा कुछ भी कहना मुश्किल है।

लोकतंत्र अगर रद्द होता जायेगा तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया से मिली गद्दी के रद्दी बनने में कितनी देर लगेगी! सत्ता की राजनीति करनेवालों को सोचना जरूर चाहिए कि कॉरपोरेट घरानों का वर्चस्व इस तरह से बढ़ते जाने पर जिसे वे गद्दी समझ रहे हैं, वह अंततः रद्दी ही साबित हो जायेगा। लोकतंत्र में लक्ष्य लोक-हित से विमुख हो जाये तो तंत्र से लोक-विच्छिन्न हो जाता है और बादशाह अपने ‘एक मुश्त गुबार’ होने के दुख को ढोने के लिए बाध्य होता है।

एक बात और, पक्ष और प्रतिपक्ष लोकतंत्र के दो पहिये हैं। पहिया खुद नहीं चलता है। पहिया को चलाना पड़ता है। पहिया को लोक-शक्ति गतिशील करती है। लोक यदि शक्ति-हीन हो गया तो दोनों पहिया बेकार! लोकतंत्र में सत्ता की राजनीति का लोक-शक्ति के संवर्धन के प्रति आपराधिक लापरवाही बरतना नर और नारायण दोनों की चिंता का विषय होना चाहिए। संसदीय बहस का जायका न बिगड़े यह जरूरी है लेकिन अधिक जरूरी है कि लोक-हित का मामला सत्ता-हित के लिए कुर्बान न हो जाये। बजट के प्रावधान, 2024 के आम चुनाव का वास्तविक परिणाम बतायेंगे। दिलचस्प होगा जो साफ-साफ दिखेगा और वह भी जो भ्रमास्त्र से आच्छादित रह जायेगा।

फिलहाल तो सत्ता की राजनीति करनेवालों से एक सवाल, हे राजनीति के पुरुषोत्तम गद्दी बचा रहे हैं या रद्दी बचा रहे हैं! 

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