अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

क्या यही इक्कीसवी सदी?

Share

शशिकांत गुप्ते

कैलेंडर के पन्ने पलटते हुए हम इक्कीसवी सदी के तृतीय दशक में पहुँच गए हैं। बीसवीं सदी के पांचवें दशक में अपना देश स्वतंत्र हुआ।
अपना देश संस्कार संकृति का देश कहलाता है।
मनुष्य की अमूल्य निधि उसकी संस्कृति है। संस्कृति एक ऐसा पर्यावरण है, जिसमें रहकर व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी बनता है, और प्राकृतिक पर्यावरण को अपने अनुकूल बनाने की क्षमता अर्जित करता है।
मूल रूप से संस्कृति मानव को पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्राप्त होती है। संस्कृति का सम्बंध मानव के मानस से है।
भौतिकवादी सोच को आत्मसात करने के कारण संस्कृति शब्द का प्रयोग मानव अपने स्वार्थपूर्ति के लिए कर रहा है।
पाश्चात्य रहन सहन और असभ्य आचरण को अंगीकृत करने को पाश्यात्य संस्कृति कहा जाता है?
संत कबीरसाहब ने मानव कैसा होना चाहिए,यह प्रेरणा निम्न दोहे के माध्यम से दी है।
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।

भौतिकवादी सोच ने मानव,संत कबीरसाहब के उपदेश को दरकिनार कर इस कहावत को चरितार्थ कर रहा है।
थोथा चना बाजे घना
इनदिनों उक्त कहावत स्पष्टरूप दृष्टिगोचर हो रही है।
जमीनी हक़ीक़त को हाशिए में रख कर विज्ञापनों में हम कृत्रिम तरक्की कर रहें हैं।
इनदिनों एक कथित संस्कृति और प्रचलित हुई है।
Bulldozer बुलडोजर संस्कृति।
Bull का हिंदी अनुवाद होता है,बैल और dozer का अनुवाद गिरना। मकान,इमारत,वृक्ष आदि को गिराना। ज़मीन को समतल करने का विशाल यंत्र।
Dozer का हिंदी में एक अनुवाद झपकी लेना भी होता है। ऊँघना भी होता है।
ऐसे यंत्र के प्रयोग को यदि संस्कृति कहा जाएगा तो क्या परिणाम हो सकता है। यह तो हम प्रत्यक्ष अनुभव कर ही रहें हैं।
बुलडोजर का सियासत के साथ समन्वय होने के कारण यह कहावत झुठलाई जा रही है।
आ बैल मुझे मार, अब तो यांत्रिकी बैल स्वयं जाकर मार की क्रिया को सम्पन्न कर रहा है।
इसीलिए कहा जाता है कि हम सिर्फ कैलेंडर के पन्नो को पलटते हुए इक्कीसवी सदी में पहुँच गए हैं।
सभ्यता Civilization की दौड़ में हम Reverse जा रहें हैं, मतलब उल्टा पीछे जा रहें हैं।
एक ओर हम Globalization अर्थात वैश्वीकरण या सार्वभौमिकता या भूमंडलीकरण की दिशा में बढ़ रहें हैं। दूसरी ओर हमारा सोच संकीर्णता की ओर लेजाने की साज़िश रची जा रही है।
एक ओर हम वसुध्येवकुटुम्बकम को मूर्त देने के लिए अग्रसर हैं,दूसरी ओर हम स्वयं को मानसिक रूप से निश्चित दायरे में बांध कर रखना चाहतें हैं?
इसलिए विंध्वसक कार्यवाही की वाह वाही छोड़ना पड़ेगी।
सर्वोदय के प्रणेता, गांधीजी के अनुयायी, आचार्य विनोबाभावे ने कहा है कि, जब किसी कुएं का खनन होता है तब जो खनन करने में अपना परिश्रम कर थक जातें हैं और कोई आकर एक दो कुदाल चलता है,उसी समय कुएं में पानी आ जाता है तो निन्नानवे कुदाल चलाने को श्रेय नहीं मिलता है जो सौवी कुदाल चलता है श्रेय उसे मिल जाता है।
आज यही हो रहा है। देश की स्वतंत्रता के लिए शहादत देने वालो के अमूल्य योगदान को भूल रहें हैं।
संकृति को विकृति में बदलने का कारण है। बगैर परिश्रम से मिली उपलब्धियां ही हैं।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

Recent posts

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें