~ पुष्पा गुप्ता
इंडोनेशियाई समाज की भाषाओं में संस्कृत मूल के शब्दों की रचबस वैसी ही है जैसी श्रीलंकाई समाज की दोनों भाषाओं यानी तमिल और सिंहली में है।
यह रचबस एक दो दशकों या एक दो सदियों में नहीं हुई है बल्कि यह दो हजार बरसों के साहचर्य का परिणाम है। मिसाल के तौर पर जावा द्वीप पर बोली जाने वाली भाषाओं में खून के लिए लिए लुदिर शब्द प्रचलित है। यह रुधिर का रूपभेद है।
लात्रि शब्द का प्रचलन रात के अर्थ में है। निश्चित ही यह रात्रि का प्रतिरूप है। इसी तरह सलिर शब्द स्वयं (खुद-स्वयं) के अर्थ में प्रचलित है। यहाँ दिलचस्प बदलाव हुआ है। सलिर यूँ तो शरीर का पर्याय है पर जावायी में इसका अर्थ काया स्वयं अथवा खुद का संकेत हो गया। अर्थात तू वहाँ आएगा में तू (सशरीर) वहाँ आएगा वाला भाव आ गया है।
हिन्दी में बच्चों को किसी भी गर्म चीज़ को छूने से रोकने के लिए ‘तत्ता’ कह कर डराया जाता है। इसे हिन्दी कोशों में अनुकरण आधारित शब्द बताया जाता है।
अनुकरण किस का? तत्त शब्द मूलतः प्राकृत का है। संस्कृत के तप्त का रूपभेद। यही लोकबोलियों में तत्ता हो जाता है। प्राकृत में तत्त का आशय एक नर्क से भी है और जला हुआ या गर्म किया हुआ से भी है। बच्चा हमारे बोलने के बाद तप्त या गर्म वस्तु को तत्ता कहना सीखता है।
इसलिए यह कहना तार्किक नहीं कि तत्ता बच्चे के मुँह से निकली अनुकरणात्मक ध्वनि है। घण्टे की टन टन ध्वनि के अनुकरण पर ‘टनटनाना’ शब्द बना है या मेंढक के गलफड़ों से आती टर्र टर्र से टर्राना बना।
भाषा का विकास सतत प्रक्रिया है। किसी व्यक्ति के दिमाग़ी ख़लल से अस्पष्ट अस्फुट उच्चार लोकस्वीकृत नहीं हो जाते। भाषा के महासागर में साहित्य एक टापू भर है।
साहित्य की दुनिया में भी किसी रचनाकार द्वारा किया गया कोई प्रयोग लोक द्वारा अपना लिया जाए इसकी सम्भावना बेहद क्षीण होती है। भाषिक बदलाव समाज सापेक्ष होते हैं। उन्हें पसरने में बरसों लगते हैं।