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 क्या ये समाज की बेटियों के साथ बलात्कार और हत्या नहीं

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अशोक मधुप

आज अखबारों में लखीमपुर खीरी की दो  बहनों के साथ बलात्कार के  बाद हत्या की खबर पढ़ रहा हूं। अखबारों ने इसे दलित युवतियों  के साथ बलात्कार के बाद हत्या की घटना बताया है। कुछ अखबारों ने  इसीको  लेकर समाचार पत्रों के शीर्षक भी लगाएं। कुछने इस घटना को लेकर संपादकीय भी  लिखे। उन्होंने दलित युवतियों के साथ बलात्कार और हत्या की घटनाओं पर चिंता    जाहिर की।अग्रलेख लिखे गए।  ऐसा ही बदायूं , उन्नाव और हाथरस में अनुसूचित जाति की लड़कियों या महिलाओं घटनाओं के समय हुआ था।आदिवासी युवतियों के साथ  घटना होने पर उन्हें आदिवासी बताकर घटना को ज्यादा गंभीर बताने की कोशिश होती है।कहीं पिछड़ा होने पर पिछड़ा बताकर ।वास्तव में    बेटियां न दलित होती हैं न  पिछली जाति की न आदिवासी ।  बेटियां  समाज की होती हैं। मुहल्ले की होती हैं।  पूरे गांव की  होती हैं। बेटियों को कभी दलित,पिछड़े आदिवासी,वर्ग और धर्म में  नही बांटना   चाहिए।अगर किसी युवती या बेटी के साथ कोई घटना होती है तो उससे  पूरे  समाज के माथे  पर कलंक लगता है।पूरे समाज को इसका विरोध करना चाहिए।  जातियों में बांट कर विरोध किया जाना उचित नहीं है। इससे  घटना  की गंभीरता कम होती है।

 वैसे भी दलित  या आदिवासी लड़कियों के साथ घटना होना तब  माना जाना चाहिए जब उस जगह पर होने पर अपराधियों द्वारा दूसरी जाति की लडकियों को छोड़ दिया जाता।या बलात्कार −हत्या जाति पूछने के  बाद होती ।

दूसरी जाति की युवती या महिला को छोड़  दिया जाता  , तब दलित या आदिवासी कहना  ठीक लगता। अन्यथा  नहीं।यह तो  सीधी बलात्कार और हत्या की घटना  है। अन्यथा किसी भी  युवती के साथ घटना हो सकती है। किसी भी  महिला के साथ घटना  घट  सकती है। कहीं भी  हो सकती है।  गांव में भी  हो सकती है। शहर में भी।घटना  को दुष्कर्म के बाद हत्या की  माना जाना चाहिए। ये  अपराध जाति विशेष की बेटी या महिला के साथ नहीं हुआ । समाज की बेटी  या महिला  के साथ हुआ है। हम इस प्रकार की  घटना  होने  पर  पीड़ित  को जाति बताकर  घटना की गंभीरता  सिद्ध करने का प्रयास करते है। बताना  चाहतें हैं कि हमारे समाज में , आदिवासी ,दलित अनुसूचित आदि की महिला सुरक्षित नही हैं। ये कोशिश क करते है कि इससे  अपराध की गंभीरता बड़ी हो सके। गंभीरता बढ़ सके ,पर ऐसा  होता नहीं। समझने की बात यह है कि इससे अपराध की गंभीरता बढ़ती नहीं कम होती है। घट जाती है।

देहात में आज भी  अपराध होने पर गांव के सब एकत्र  हो  जातें हैं।विरोध करते हैं।   लखीमपुर खीरी प्रकरण में भी  लड़की की मां का शोर सुन गांव वाले एकत्र हो गए।  लड़कियों को खोजने निकल पड़े। शहरों में तो घटना  होती देख  हम आंख घुमा  लेते  हैं।दुर्घटना  से सड़क पर घायल पड़े व्यक्ति की मदद करना गंवारा नही करते ,  देखकर आगे बढ़  जाते  हैं।शहरी दुनिया के रहने वाले  हम  सब हस्तिनापुर राज के दरबारी बन जाते  हैं।   दरबार में सरेआम द्रौपदी की साड़ी  खींची   जाती है , और सब चुप रहते  हैं।

 पुरानी घटना  है  नादिर शाह ने दिल्ली  पर कब्जा  कर लिया।  उसके सिपाही लूटमार में लग गए।  उन्होंने कुछ युवतियों और महिलाओं से  बलात्कार किया।  हम भारतीय हिंदू हो या मुसलमान ,कोई  भी  हों महिलाओं का अपमान नही बर्दास्त कर सकते । सो  उस  सिपाहियों का खून कर दिया।  सिपाहियों के मारे जाने की सूचना पर नादिरशाह आग बबूला  हो गया।उसने कत्ले आम का हुकम दिया। बताया जाता है कि पांच घंटे में तीस हजार के लगभग पुरूष,  बच्चें, महिलाओं का कत्ले आम हुआ।

अभी  कामनवेल्थ गैम्स हुए।  उसमें   विजयी तो  भारत के खिलाड़ी  हो  रहे थे। घोषणा भी ये ही थी कि भारत को एक और मैडल मिला। भारत आते− आते  ये खिलाड़ी जातियों में बंट रहे थे।  कोई  कह रहा था  इतने  ब्राह्मण जीते । कोई कह रहा था−  इतने जाट खिलाड़ी  विजयी हुई।कोई  प्रदेश के हिसाब से खिलाड़ियों के आंकड़े बता रहा था।

विशेष कारण  के बिना  जातियों ,धर्म  , संप्रदाय और दलित, अगड़े  और पिछड़ो में बांटने की हमारी प्रवृति घातक है।इसपर रोक लगनी चाहिए।  इससे समाज कमजोर होता है। देश कमजोर होता है। महिलाओं की अस्मिता  को  दलित, पिछड़ों और आदिवासियों में मत बांटिए। बेटियां  समाज की होती हैं।  समाज का सम्मान होती हैं।  उन्हें समाज की ही बेटी बनी रहने दीजिए। हमतो  उस देश के रहने वाले  हैं  जहां  प्राचीन कालसे मान्यता  है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।जहांनारी का पूजन और सम्मान होता है,वहीं देवताओं का  वास होता है। 

अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं) 

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