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इसरो प्रमुख की चाटुकारिता : सोमनाथ के वेदों मे विज्ञान बयान पर किसी तरह का आश्चर्य नहीं होना चाहिए

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सुब्रतो चटर्जी

इसरो प्रमुख सोमनाथ के वेदों मे विज्ञान बयान पर किसी तरह का आश्चर्य नहीं होना चाहिए, वो भी इस चाटुकारिता युग में. यहां तक कि भौतिकी के आधारस्तंभ न्यूटन ने बाईबल से वैज्ञानिक जानकारी निकालने के अपने प्रयास का उल्लेख किया है. इस बेवकूफी भरे बयान से उनका भौतिकी को योगदान रत्तीभर कम नहीं होता. न्यूटन ने ये तक कहा कि – गुरुत्व ग्रहों की गति का वर्णन करता है लेकिन यह वर्णन नहीं कि किसने ग्रहों को इस गति में स्थापित किया. उनके अनुसार ईश्वर सब चीजों का नियंत्रण करते हैं.

अंधविश्वास विज्ञान दूर करता है न कि वैज्ञानिक. अगर आपको वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रिय है तो वैज्ञानिकों के उदाहरण को ‘ईश्वर है या नहीं’ बहस में शामिल करना गलत है बल्कि उनके पाले मे खेलना है जो वैज्ञानिकों के उदाहरण देकर धर्म को विज्ञान सिद्ध करना चाहते हैं. क्योंकि कोई एकाध वैज्ञानिक नाम होगा जिसने ईश्वर को नकारा, वो भी उन्हीं कुटिल ‘अंधविश्वास कायम रहे !’ चाहत वाले पंडे पादरियों के उकसाने पर.

मुझे एक नाम डार्विन का ध्यान है, जिनकी प्रसिद्धि और सम्मान ने धार्मिक विचारों के बारे में पूछताछ की बाढ़ ला दी, जिससे उन्हें यह टिप्पणी करनी पड़ी कि ‘पूरे यूरोप में आधे मूर्ख मुझसे सबसे मूर्खतापूर्ण प्रश्न पूछने के लिए लिखते हैं. मुझे आपको यह बताते हुए दु:ख हो रहा है कि मैं बाइबिल को दैवीय अवतरण के रूप में नहीं मानता, और इसलिए यीशु को ईश्वर के पुत्र के रूप में भी नहीं मानता, विज्ञान का ईसा मसीह से कोई लेना-देना नहीं है.’

उन्होंने कुछ श्रद्धालु वैज्ञानिकों द्वारा विज्ञान और धर्म में सामंजस्य स्थापित करने के लिए एक ‘निजी सम्मेलन’ में शामिल होने के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया, क्योंकि उन्हें इससे ‘किसी भी लाभ की कोई संभावना नहीं’ दिखाई दी. ये बात हमे भी समझनी होगी कि धर्म को विज्ञान की जरूरत है विज्ञान को धर्म की रत्तीभर जरूरत नहीं. फिर दोहरा लें कि ‘अंधविश्वास विज्ञान दूर करता है न कि वैज्ञानिक.’

डार्विन के क्रमिक विकास सिद्धांत ने धर्मों द्वारा उल्लेखित मानव उत्पत्ति कहानियों की बखिया उधेड़ कर रख दी, ना कि डार्विन ने व्यक्तिगत रूप से. क्योंकि डार्विन भी ज्यादातर जीवन धार्मिक ही रहे और ज्यादातर धर्म पर बोलने से बचते ही रहे.

वैज्ञानिकों से सामाजिक सांस्कृतिक सुधारों की उम्मीद बेमानी है, लेकिन हां, अंधविश्वास आस्था दूर होने में विज्ञान का विकास बहुत महत्वपूर्ण क्योंकि ‘चन्द्र दशा कुंडली में बैठी है’ के भय को विज्ञान ही दूर कर सकता है, खुद चन्द्रमा पर जाकर.

अंधविश्वास कुप्रथाएं दूर करने में राजनीति और शासन का महत्वपूर्ण स्थान है. हमारे संविधान में मौलिक कर्तव्यों (अनुच्छेद 51ए) में स्पष्ट लिखा है कि प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे.’ बताइये कौनसा नेता/शासक करता है वैज्ञानिक चेतना का विकास ?

सारे जनता के कर्णधार बाबाओं, तांत्रिकों, ज्योतिषियों के दंडवत मिलते हैं. और आजकल तो मूर्खताओं पर गर्व का स्वर्णकाल Zero रहा लेकिन अंधविश्वास सिर्फ भारत में ही है, ऐसा सोचना गलत है. यह विश्व्यापी है. चीन में माओ के सांस्कृतिक आंदोलन से बड़ा प्रयास सत्ता की तरफ से मेरी नजर में कहीं नहीं हुआ, लेकिन सत्ता की ओर से मार्क्सवादी वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बावजूद चीन में आज भी अंधविश्वास की गहरी जड़ें हैं.

इसे किसी उपदेश या कानून से समाप्त नहीं किया जा सकता. खतरनाक अंधविश्वासों को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए सामाजिक जागृति कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए, साथ ही वैज्ञानिक पहुंच वाली शिक्षा का सहारा लिया जाए. दरअसल आक्रामक ढंग से तो आप किसी को समझा भी नहीं सकते बल्कि उक्त व्यक्ति/समाज के दृष्टिकोण को समझकर उसी अनुरूप अपनी बात कही जाए प्रयास किये जायें तो ज्यादा असरदार होती है.

विज्ञान के विकास के साथ अंधविश्वासों में कमी तो आई है और आएगी लेकिन लाभान्वित पक्ष पंडे, पादरी, मौलवी और कट्टरपंथी, दक्षिणपंथी राजनीति अंधविश्वासों को बढ़ावा देकर अपना उल्लू सीधा करती रहेंगी, कुटिलता से धर्म में विज्ञान का तड़का देकर…न रुका.

संजय कुमार लिखते हैं – यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि अधिक दिनों तक पराधीन पिछड़े रहने वाले राष्ट्रों में, अपने अतीत काल को ले के ऐसी गौरवमय भावना बैठ जाती है जो सिवाय भ्रम के कुछ नहीं होती. गौरवमय इतिहास की कल्पना पराधीन राष्ट्र के लोगों को जीने में उत्साह भरता है, इससे पराधीन होने की हीनता कम होती है, और देखा जाये गलत भी नहीं. परन्तु यदि राष्ट्र आजाद हो जाता है, उसके बाद भी, उसी प्रकार की काल्पनिक इतिहास के गुण गाते रहना, निश्चित ही उस समाज की मनोदशा पर प्रश्नचिन्न लगा देता है.

जब भारत पर इस्लामिक आक्रमणकारी आये तो वे अपने साथ आधुनिक अविष्कार नहीं लाये, या लाये भी तो नाम मात्र का, जैसे कि बारूद का प्रयोग ! चुकि ये भारतीय समाज के सभी वर्गों के उपयोग में नहीं था, इसलिए इस पर समाज का ज्यादा ध्यान नहीं गया. चुकि अधिकतर मामलों में भारतीय ज्ञान अरबी ज्ञान से अधिक ही था, तो इस्लामिक सत्ता के दौरान पराधीन रहके भी इतनी हीनता का अहसास नहीं हुआ. परन्तु जब अंग्रेज भारत आये तो अपने साथ उच्च तकनीक ले के आये, उच्च शिक्षा ले के आये, उच्च अविष्कार ले के आये.

उनकी पराधीनता के दौरान भारतीयों को अहसास हुआ कि जिस तथाकथित ज्ञान के बल पर अब तक इस्लामिक सत्ता के पराधीन रह के भी इज्जत बची हुई थी, वह ज्ञान वास्तव में कितना न्यून है ! ऐसे ऐसे आधुनिक अविष्कार जो भारतीयों ने न तो कभी देखे और न ही सुने थे – रेडियो, घड़ी, मोटरकार, हवाई जहाज, टीवी, आधुनिक हथियार, विज्ञान के नए फार्मूले, यहां तक की माचिस और कपडे तक !

बड़ा आश्चर्य हुआ ये सब देख के, आश्चर्य से भरे अविष्कार ! ये तथाकथित विश्वगुरु के सोच से परे था, अब हीनता बहुत गहरी हो गई. परन्तु किया क्या जाए ? तब इस हीनता से उबरने के लिए प्रचारित किया जाने लगा कि ‘वेदों में हमने अंग्रेजों से पहले ही हवाई जहाज बना लिया था, महाभारत में ऐसे ऐसे हथियार चले थे कि वैसे अंग्रेजों के पास भी नहीं हैं !’ ग्रन्थों में परमाणु खोजा जाने लगा और यह बताया जाने लगा कि हमने एटम बम्ब पहले ही बना लिया था, वायरलेस भारत में वैदिक काल में आम था ! जो भी अंग्रेजों की खोजे हैं, वे वेद पुराणों को पढ़ के ही हैं, उन्हींने हमारे ग्रन्थों को चुरा के और उन्हें पढ़ के ये सब अविष्कार किया !’

बेशक हजारो सालो से वेद पुराण की पोथियां रोज रटी जाती थी, पर कभी उन्हें पढ़ के एक आलपिन तक नहीं बना सके, अंग्रेज आये और संस्कृत सीख के सब कुछ बना लिया इन पोथियों को पढ़ के…!भारतीयों द्वारा हजारों साल से परमाणु का रट्टा मारने के बाद भी वेदों पुराणों से कभी वह बाहर नहीं आया. वेदों में हवाई जहाज उड़ाते रहें पर असल में बैलगाड़ी पर चलते रहें, वो तो भला हो अंग्रेजों का जिन्होंने वेद पढ़ के हवाई जहाज का फर्मूला पता कर लिया ! वेद पुराण में देवता गण आकाश से उदघोष करते पर उन्हें पढ़ के कोई भी पंडा टेलीफोन तक न जान सका, अंग्रेजो ने पढ़ा और वायरलेस बना डाला !!

चलिए अब थोडा नजर डालते हैं कि पोथियों में क्या था, जिन्हें ले के तथाकथित ‘विश्व गुरु’ ये दावा करता था कि ‘हमारे ग्रन्थों में अंग्रेजों से पहले ही सब कुछ था.’ एक झलक देखते हैं कि कितनी वैज्ञानिकता थी जिससे पढ़ के अंग्रेजों ने आधुनिक अविष्कार कर लिए और हम अब तक उन पर गर्व करते हैं कि ‘जो ग्रन्थों में नहीं वह कहीं नहीं !’

  1. पंचविश ब्राह्मण के 16/8/6 में कहा गया है कि ‘पृथ्वी से स्वर्ग और सूर्य की दुरी उतनी है जितनी एक हजार गौओं को एक दूसरे पर खड़ा होने पर ऊंचाई बनती है !’ तो ऐसे नापते थे सूर्य और स्वर्ग की दूरी जिसे अंग्रेजों ने पढ़ा और अमल में लाया !!
  2. महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 146 में कृष्ण कहते हैं- ‘योगमत्र विद्यास्मि सुर्यस्यावरण प्रति………..सिंधुराट.’ अर्थात ‘मैं योग माया से सूर्य को ढक लूंगा, इससे केवल जयद्रथ को ही सूर्य छिपा लगेगा.’ किसी भी योग शक्ति में इतनी ताकत नहीं है कि वह सूर्य को ढंक ले, फिर यदि किसी स्मोक से ढका भी जायेगा तो वह सभी को ढका दिखेगा न कि केवल एक को !
  3. यजुर्वेद अध्याय 33 के मन्त्र 43 में कहा गया है कि ‘सूर्य रथ पर चढ़ कर आते हैं !’ ‘आ कृष्णेन…………पश्यन्’
  4. भास्कराचार्य ने तो पृथ्वी को गतिशील होने की बात को मानने से साफ़ इंकार कर देते हैं और उसे ‘अचला’ घोषित कर देते हैं. देखें सिद्धांतशिरोमणि, गोलाध्याय 5
  5. वराह मिहिर कहते हैं कि पृथ्वी नहीं घूमती, बल्कि सूर्य घूमता है. देखें- पञ्चसिद्धान्तिका, अध्याय 13
  6. नक्षत्रवादी अर्थात खगोल वैज्ञानिकों के बारे में क्या राय थी जरा यह भी पढ़िए… ‘नक्षत्रैयर्सच् …….. विवज्रयेत्’ (मनुसमृति अध्याय 3 श्लोक 162 -167) अर्थात- ‘नक्षत्रजीवी लोग निंदित, पंक्ति को दूषित करने वाले और अधम हैं.’

यदि हमारी पोथियां भरी थी विज्ञान के फार्मूलों से और सभी कुछ हमने पहले ही बना लिया था, तो यह बात अंग्रेजों के आने के बाद ही क्यों हमें पता चली ? अंग्रेजों द्वारा आधुनिक अविष्कारों के बाद ही हमें क्यों ध्यान आया कि ‘ये सब हमारी पोथियों में पहले से मौजूद थे ?’ दरअसल ये हीनता को कम करने का मात्र तरीका भर था/है. इसरो प्रमुख भी इससे अछूते नहीं जो कह रहे हैं कि वेदों में विज्ञान था !!

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