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छीनरो बुजरो की आड़ में गायब होते मुद्दे

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सुनील यादव

हमारा देश बड़ा ही अजीब है और यहाँ के लोग तो महा अजीब हैं इसलिए इस अजीबोग़रीबी में ‘कौआ कान ले गया’ पर अब भी कान पर ध्यान न दे कौआ को ही देखता है जिसका सीधा लाभ चालाक लोमड़ी को जाता है, फिर भी वह इस बात पर घमंड करता है कि ‘हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं।’
किसी घर में झगड़ा होता है खेत की मेढ़ को लेकर और औरते लड़ती हैं ख़सम को लेकर। एक उसके यार का जिक्र करती है तो दूसरी उसके भतार का। एक झाड़ू का ताना देती है तो दूसरी तेल का। एक लुग्गा के पुरानेपन को चैलेन्ज करती तो दूसरी चूड़ी को फिर बहस होती नाक के टेढ़ेपन और कूद के चलने पर। एक मोटाई का मजाक उड़ाती दूसरी छोटाई का पर गज़ब की बात यह है कि झगड़ा मेढ़ का हो रहा होता है।
हमारे देश के नेता और राजनीति भी हूबहू उसी राहे-कदम पर है बस अंतर यह है कि वे महिलाएं होती हैं और यह पुरुष।
इस इक्कीसवीं सदी में देश ग़रीबी और भुखमरी में नित नये आयाम लिख रहा और हमारे नेता अब्बुजान और लाल टोपी पर लड़ रहे।
देश आर्थिक असमानता में नंबर एक पोजिशन पर है और हमारे नेता मजदूर के साथ भोजन कर रहे हैं।
वैमनस्यता समाज की कोढ बनती जा रही और नेताजी गांधीवाद की जय-जयकार लगाते हैं।
कहीं जूता पहन श्रद्धांजलि देने पर बहस हो रही है तो कहीं नाक की नकटी निकालने पर। कहीं कुर्सी ना मिलने पर नारा लग रहा है तो कहीं कपड़े के बदलने पर। पर हाय रे हमारा देश, देश का मूल मुद्दा ही गायब है।
सड़क गड्ढों की राजरानी बन गयी है, महंगाई बढ़ने से रिक्शे वाला दुहरा हुआ जा रहा, प्रायमरी के बच्चे विलुप्त होते जा रहे और कान्वेंट की फीस फैलती ही जा रही, पर हाय रे हमारे नेता! चर्चा लाल टोपी और जिन्ना पर हो रही।
-@सुनील यादव

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