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किसी की पीड़ा बनने से बेहतर है किसी का कुछ नहीं बनना

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डॉ. प्रिया

  _लोग तयशुदा वक्त पर किसी का ख्याल रखते हैं, मैसेज करते हैं, फोन करते हैं, एक मिसकाॅल देते हैं, खाना खाया, नहीं खाया, आज वाॅक हुई ना हुई, क्या कर रहे हो, शाम को क्या करोगे, आज का दिन कैसा गया, वीडियो काॅल करें क्या, सूरत तो दिखा दो, नाराज़गियाँ, तमाम रूठना मनाना, प्यार मोहब्बत, अपना ख्याल रखना, मैं हमेशा साथ हूँ, वगैरह वगैरह।_
   ये सुनने में कॉमन, क्लीशे या मज़ाक भी लग सकता है लेकिन ज़िंदगी का असली रंग-रूप यही है। बाकी सब तो भीड़ में भेड़ चाल चलने की कवायदें मात्र हैं। 

जब किसी वक्त फिर ये नहीं मिलता या लोग किसी को ये सब ट्रीटमेंट नहीं देते तो कलेजा मुँह को आ जाता है क्योंकि आपने किसी की और किसी ने आपकी आदतें बिगाड़ी होती हैं।
वो कोई भी हो सकता है, माँ-पिता, भाई-बहन, यार-दोस्त, प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी कोई भी।
किसी की आदतें नहीं बिगाड़नी चाहिए क्योंकि इन सबके अभाव में सब कुछ बिखरा बिखरा लगता है।

रिश्तों के दरकने की ज़िम्मेदारी भी लेनी चाहिए क्योंकि उसके बाद एक इंसान हमेशा के लिए अकेला रह जाता है और जाने वाले को एक रेशा फर्क नहीं पड़ता।
रिश्ते बिगड़ने पर इंसान भी अलग तरह से बिगड़ जाता है। मानसिक रूप से वो इस तरह से टूटता बिगड़ता है जिसका इलाज तक उसे पता नहीं। इलाज के रास्ते तक पता नहीं होते।
कम्फर्ट ज़ोन में रहकर लोग एक दूसरे के साथ खेलते रहते हैं। जब मर्ज़ी हुई प्रेम जताया प्रेम के नाम पर सेक्स ‌कर‌ लिया।
दो‌ लोगों में से कोई एक हमेशा तड़पता रहता है। चाहे वो‌ लड़का हो चाहे लड़की या कोई भी जेंडर।

आप जब अपने स्तर पर स्पष्ट हों कि हम भावुक नहीं प्रैक्टिकल हैं तब कम से कम आप किसी भावुक को मत पकड़िए। भावुक लोग सब कुछ हो सकते हैं, प्रैक्टिकल नहीं हो सकते।
इस दुनिया में सारे कॉम्बिनेशन हैं और बहुत वक्त नहीं लगता आपको ये समझने में कि आप कर क्या रहे हैं!
रिश्तों के आपसी तनाव ने बहुत कुछ बिगाड़ रखा है।

कम से कम अति भावुक लोगों को‌ लपेटे में नहीं लेना चाहिए। सबके लिए सब कुछ भूलकर आगे बढ़ना आसान नहीं है। कुछ की ज़िंदगी के मोड़ ऐसे मोड़ मुड़ते हैं जहाँ डेड एंड आ जाता है।
मानसिक व्याधियों का इलाज करते करते जब हर दूसरा इंसान इन सब बातों से पीड़ित मिलता है मुझे तब मेरा ये कहना शायद किसी एक को ही सही, समझ आए कि इन सबके परिणाम क्या होते हैं।
किसी को अपना टाइमपास बनाने और उसे ही अपना टाइम बनाने में ज़मीन आसमान का अंतर है।

मजबूरी के नाम पर मनमर्ज़ी करना जस्टिफाई नहीं किया जा सकता।
चलते-चलते एक बात जो मैं ओवरथिंकिग से पीड़ित लोग हैं, उनसे कहना चाहूँगी कि, “जिस दर्द की दवा उपलब्ध हो उस पर वक्त ज़ाया ना करें और जिस दर्द की दवा उपलब्ध ना हो उसके निवारण के अलावा किसी और पर वक्त ज़ाया ना करें।”
मेंटल हेल्थ से बढ़कर कुछ नहीं है। खुद रहेंगे तब तो कुछ रहेगा। खुद ही नहीं रहेंगे तो रहे हुए का क्या कर लेंगे।

चूँकि आजकल फैशन है हर चीज़ को‌ ओवररेटेड कह देना तो कल किसी महान ज्ञानी ने मनोविज्ञान को ही ओवररेटेड कहकर अपना परिचय दे दिया क्योंकि ऐसा कहने से अलग और कूल‌ दिखने का स्वैग झलकता है, जबकि सच्चाई ये है कि हर दो मिनट में होती आत्महत्या बुरी मेंटल‌ हेल्थ का उदाहरण और परिणाम है जिसका इलाज नहीं सूझता तथाकथित ज्ञानियों को तो‌ उसे इग्नोर कर पतली गली से निकलना ही एकमात्र विकल्प बचता है।
एक ही दिन में आज जयपुर में दो युवाओं (ये तो रिपोर्ट की गई हैं, बाकी तो जाने कितनी होंगी) जिसमें से एक सीए का स्टूडेंट और एक एमबीबीएस का स्टूडेंट रहा, ने क्रमशः मॉल की छत से कूदकर एवं दूसरे ने कमरे में फंदा लगाकर अपनी जान दे दी।
बातों और ज्ञान का क्या है, जब तक है जान, चलते रहेंगे ये सब लेकिन जान, हम्म, जान रहनी भी तो चाहिए उसके लिए।
इसलिए पहला प्यार अपनी जान, अपनी मेंटल‌ हेल्थ, बाकी सब उसके बाद।
किसी की पीड़ा बनने से अच्छा है किसी का कुछ ना बनना। ये बात घरवालों से लगाकर बाहर वालों, सब पर‌ बराबर से लागू होती है क्योंकि आत्महत्या एक परोक्ष हत्या है। बिल्कुल है।
{चेतना विकास मिशन}

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