शशिकांत गुप्ते
प्रायः फिल्मों जो अभिनेता खलनायक का अभिनय करता है,उसे चरित्र अभिनेता कहतें हैं?
कारण वह बाकायदा पारिश्रमिक प्राप्त कर खलनायक का सिर्फ अभिनय करता है। यही अभिनेता किसी दूसरी फिल्म में सभ्य,सुंस्कृत उपदेशक मलंग बाबा का रोल भी अदा करता है। यह उसका जीविकोपार्जन का पेशा है।
फ़िल्म तो लोगों के मनोंरंजन के लिए बनाई जाती है। फिल्मों की कहानियां कल्पनातीत होती है।
इसलिए फिल्मों में क्रांति का अभिनय करने वालों को चना जोर गरम जैसे गाने भी नाचतें गातें गाना पडतें हैं।
यह सब फिल्मों के लिए और फिल्मों में ही जायज़ है।
वास्तविकता में खलनायक कैसा होता है,इसका ज्वलंत उदाहरण श्रीलंका में घटित घटना है।
यह घटना जनता सहनशीलता की
पराकाष्ठा का परिणाम है।
इस संदर्भ में राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकरजी की कविता की यह पंक्तिया प्रासंगिक हैं।
अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।
जब मानव में अमानवीयता जागृत होकर वह मानव को अन्यायी, अत्याचारी बनाती है। ऐसे अत्याचारी के लिए दिनकरजी लिखतें हैं।
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।
यही फर्क वास्तविकता में समझना जरूरी है। कुख्यात असमाजिक तत्व से,ख्यात शरीफ बदमाश ज्यादा खतरनाक होता है।
इतना लिख पाया था, उसी समय सीतारामजी का आगमन हुआ।
मेरा लिखा हुआ पढ़कर सीतारामजी को सन 1951 में प्रदर्शित फ़िल्म बहार का गीत याद आया। गीतकार राजेंद्र कृष्णजी की यह रचना है।
सीतारामजी में गीत की कुछ पंक्तियां सुनाई।
भगवान दो घड़ी जरा इंसान बनके देख
धरती पे चार दिन कभी मेहमान बनके देख
आसमान वाले कभी गरीबों पे कर नज़र
जो कुछ हो रहा है वो तेरी नज़र में है
मैने कहा आप तो यथार्थवादी (Realistic) हो। आप इन पंक्तियों को गा रहे हो?
सीतारामजी ने कहा हाँ मै यथार्थवादी हूँ साथ ही मैं व्यंग्यकार भी हूँ। वर्तमान में पड़ौसी देश में जो कुछ घटित हो रहा है, इस संदर्भ में मुझे (सीतारामजी को) सन 1965 में प्रदर्शित फ़िल्म जोहर मेहमूद इन गोवा का गीत याद आ रहा है। यह गीत शायर कुमार जलालाबादी ने लिखा है।
सिकन्दर भी आए कलंदर भी आए
न कोई रहा है न कोई रहेगा
इतिहास साक्षी है।
सिंकदर को पोरस की ताक़त ने रोका
गोरी को पृथ्वी की हिम्मत ने टोका
जब खूनी नादर ने छेड़ी लड़ाई
तो दिल्ली की गलियों से आवाज आई
लगा ले तू कितना जोर सितमगर
हलाकू रहा है न हिटलर रहा है
मुसोलिनी का ना वो लश्कर रहा है
नही जब रहा रूस का जार बाकी
तो कैसे रहेगा सालाजार बाकी
सीतारामजी ने कहा उक्त पँक्तियों में स्पष्ट संदेश है।
मैने कहा आप ठीक कह रहे हैं।
लेकिन उक्त संदेश को समझना जरूरी है। लेकिन समझदार होना बहुत कठिन है।
कोई भी आदमी पढा-लिखा, हो सकता है,उसमें बहुत से गुण हो सकतें है, यहाँ तक आदमी ईमानदार भी हो सकता है। लेकिन समझदार होना बहुत कठिन है।
मैने कहा समझदार की तलाश में पता नहीं कितना समय लग सकता है। तलाश जारी रखतें हैं और इस लेख को यहीँ पूर्ण विराम देतें हैं।
शशिकांत गुप्ते इंदौर